राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

एक देश, एक चुनाव की पहल अच्छी

Image Source: ANI

सबको पता है कि बार बार होने वाले चुनावों से लोगों में थकान हो रही है और मोहभंग हो रहा है। लोग मतदान के दिन छुट्टियां मनाने निकल जा रहे हैं और चुनाव आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद मतदान प्रतिशत एक सीमा से ज्यादा नहीं बढ़ रहा है। सारे चुनाव एक साथ होंगे तो लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी और वे ज्यादा संख्या में वोट डालने निकलेंगे। दूसरे, हर साल चुनाव होते हैं तो बेहिसाब खर्च होता है। इस पर रोक लगेगी।

लोकसभा और देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की एक सार्थक पहल केंद्र सरकार ने की है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी की ओर से की गई अनुशंसाओं को स्वीकार कर लिया गया है। इसके बाद विधायी प्रक्रिया शुरू होगी। सरकार सभी संबंधित पक्षों से विचार विमर्श करके विधेयक तैयार करेगी, जिसे संसद में पेश किया जाएगा। उसके बाद अगर आवश्यक हुआ तो विधेयक को स्थायी समिति को या संयुक्त संसदीय समिति को भेजा जाएगा ताकि आम सहमति बनाई जा सके। ध्यान रहे ‘एक देश, एक चुनाव’ का सिद्धांत लागू करने के लिए सभी राजनीतिक दलों और अन्य संबंधित पक्षों के साथ आम सहमति बनाना बहुत बड़ी जरुरत है। तभी कैबिनेट बैठक में कोविंद कमेटी की अनुशंसाओं को स्वीकार किए जाने की जानकारी देते हुए सूचना व प्रसारण मंत्री श्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि सरकार इस पर आम सहमति बना कर आगे बढ़ेगी।

कहने की जरुरत नहीं है कि विपक्ष इस सिद्धांत को लेकर जितना आक्रामक है और जिस अंदाज में विरोध कर रहा है उससे आम सहमति बनाने में मुश्किल आएगी। परंतु सवाल है कि कि क्या विपक्ष जिन तर्कों के आधार पर इसे अव्यावहारिक बता रहा है या जिन तर्कों के आधार पर इसे भारतीय संविधान द्वारा बनाई गई संघवादी व्यवस्था का विरोधी बताया जा रहा है उन तर्कों का कोई ठोस आधार है या विपक्ष सिर्फ विरोध करने के लिए इसका विरोध कर रहा है? यह दुर्भाग्य है कि पिछले 10 साल में विपक्ष का रवैया पूरी तरह से नकारात्मक हो गया है। वह हर अच्छी और सार्थक पहल का विरोध करता है। विपक्ष में होने का मतलब यह नहीं होता है कि सरकार के हर कदम का विरोध किया जाए। विपक्ष को रचनात्मक भूमिका निभानी चाहिए और राष्ट्रहित में किए जा रहे फैसलों का समर्थन करना चाहिए। देश का विपक्ष अपनी यह भूमिका भूल गया है और यही कारण है कि देश के नागरिक उसे बार बार ठुकरा रहे हैं।

बहरहाल, विपक्ष और कुछ स्वतंत्र विचारकों की सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इससे संघवाद की व्यवस्था प्रभावित होगी। कुछ ‘विद्वान’ तो यहां तक कह रहे हैं कि संघवादी व्यवस्था ही खत्म हो जाएगी। ऐसा कहने वालों को यह जरूर बताना चाहिए कि आजादी के बाद पहले चार चुनावों तक देश की सारी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ ही हो रहे थे तो क्या संघवाद समाप्त हो गया था? आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय 1952, 1957, 1962 और 1967 में देश भर में एक साथ चुनाव हुए थे और वास्तविकता यह है कि इन चुनावों से देश में लोकतंत्र मजबूत ही हुआ था। तभी जब नेहरू सरकार के समय सारे देश में एक साथ चुनाव होने से लोकतंत्र और संघवाद मजबूत हो रहा था तो मोदी सरकार के समय सारे चुनाव एक साथ कराने से लोकतंत्र और संघवाद कमजोर कैसे होगा?

इसी से जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि सारे चुनाव एक साथ होने का चक्र कैसे टूटा? कांग्रेस नेतृत्व को इस सवाल का जवाब देना चाहिए। असल में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की मनमानियों और संविधान विरोधी कृत्यों से यह चक्र टूटा था। असल में 1967 में पहली बार देश के कई राज्यों में कांग्रेस विरोधी सरकारें बनी थीं। बाद में राजनीतिक कारणों से इन सरकारों को भंग किया गया, जिससे मध्यावधि चुनाव की नौबत आई और एक साथ चुनाव का चक्र टूटा। फिर इंदिरा गांधी ने 1971 में समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया। उस समय कांग्रेस सरकार की मनमानियों से जो चक्र टूटा था उसे जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है तो इसमें कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। संघवाद के सिद्धांत को चुनौती वाली बात तो इसलिए भी बेमानी है कि अब भी लोकसभा के साथ कई राज्यों के चुनाव होते हैं। इस साल लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में चुनाव हुए। इन राज्यों में संघवाद का सिद्धांत कहां प्रभावित हो गया!

दूसरी आलोचना व्यावहारिकता की है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे अव्यावहारिक बता कर खारिज किया। लेकिन यह भी बहुत सतही आलोचना है। जब सरकार और चुनाव आयोग इसे व्यावहारिक बनाने को तैयार हैं और इसके लिए जरूरी बुनियादी ढांचा विकसित करने को तैयार हैं तो व्यावहारिकता का सवाल नहीं आना चाहिए। मोटे तौर पर इसके लिए आठ हजार करोड़ रुपए की जरुरत है, जिससे अतिरिक्त इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन, कंट्रोल यूनिट और वीवीपैट मशीनें खरीदी जाएंगी। हर साल होने वाले चुनावों पर खर्च को देखते हुए एक बार का यह निवेश बहुत मामूली है। इसी तरह एक साथ चुनाव के लिए कर्मचारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती में भी किसी तरह की समस्या नहीं आनी है। जहां तक मतदाता सूची का सवाल है तो चुनाव आयोग ने साफ कर दिया है कि वह लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों के लिए एक साझा मतदाता सूची बनाएगा। इससे सारी समस्या खत्म हो जाएगी। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि जल्दी से जल्दी इसका कानून पास हो ताकि चुनाव आयोग को तैयारियों के लिए पर्याप्त समय मिल पाए।

इसके अलावा विपक्ष की ओर से एक आलोचना यह की जा रही है कि अगर विधानसभा बीच में भंग हो गई तो क्या होगा? क्या बचे हुए समय के लिए चुनाव होगा या पूरे कार्यकाल के लिए होगा और अगर पूरे कार्यकाल के लिए हुआ तो क्या इससे एक साथ चुनाव का चक्र नहीं टूटेगा? इसी तरह यह भी कहा जा रहा है कि अगर 2029 को ‘निर्धारित तिथि’ तय किया जाना है तो उससे पहले जिन विधानसभाओं के चुनाव होंगे उनका क्या होगा? क्या उनका कार्यकाल पूरा होगा या बीच में उन्हें भंग किया जाएगा? इनमें से कुछ सवालों का जवाब तो कोविंद कमेटी की अनुशंसाओं में ही है। उसमें कहा गया है कि एक बार 2029 को ‘निर्धारित तिथि’ तय करने के बाद जैसे ही इसकी अधिसूचना जारी होगी वैसे ही यह तय हो जाएगा कि उसके बाद होने वाले सभी विधानसभा चुनावों का कार्यकाल 2029 तक होगा। इसमें यह संभव है कि 2028 में जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनको स्थगित कर दिया जाए और उससे पहले जो चुनाव हैं उनका कार्यकाल सीमित किया जाए। सरकार की ओर से पेश होने वाले विधेयक में इसे लेकर प्रावधान किया जाएगा। अगर विपक्षी पार्टियां सहमत हो जाती हैं तो कोई समस्या नहीं आएगी।

जहां तक बीच में विधानसभा भंग होने या सरकार गिरने पर मध्यावधि चुनाव की बात हो रही है तो यह बहुत काल्पनिक संभावना है क्योंकि कांग्रेस का वह समय बीत गया, जब वह मनमाने तरीके से राज्यों में सरकारें गिराती थी, राष्ट्रपति शासन लगाती थी और मध्यावधि चुनाव कराती थी। क्या कोई बता सकता है कि पिछले नई सदी के पहले 24 साल में कितने राज्यों में मध्यावधि चुनाव की नौबत आई है या कितने राज्यों में केंद्र ने राष्ट्रपति शासन लगाया हैश्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने जम्मू कश्मीर के एक अपवाद को छोड़ कर एक भी राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया है और एक भी राज्य में मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आई है। यह मोदी सरकार की संघवाद में प्रतिबद्धता को दिखाता है। वैसे भी दलबदल विरोधी कानूनों को सख्त बनाने से सरकारों में स्थिरता आई है और इसी वजह से मध्यावधि चुनावों की संभावना नणग्य हो गई है। सरकार और विपक्ष में सहमति बने तो ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए लाए जाने वाले विधेयक में यह प्रावधान कर दिया जाए कि किसी भी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की बजाय नया विश्वास प्रस्ताव लाया जाए। यानी किसी सरकार में विधायकों, सांसदों में अविश्वास होता है तो वे नई सरकार बनाने का विश्वास प्रस्ताव पेश करें।

पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के सिद्धांत से जो नुकसान बताए जा रहे हैं उसके मुकाबले इसके फायदे देखेंगे तो पलड़ा फायदे की ओर झुका दिखेगा।

तभी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए की गई कोविंद कमेटी की अनुशंसाओं की मंजूरी के बाद कहा था कि इससे ‘भारत का लोकतंत्र जीवंत और समावेशी बनेगा’। इससे सचमुच लोकतंत्र जीवंत होगा और समावेशी बनेगा। यह सबको पता है कि बार बार होने वाले चुनावों से लोगों में थकान हो रही है और मोहभंग हो रहा है। लोग मतदान के दिन छुट्टियां मनाने निकल जा रहे हैं और चुनाव आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद मतदान प्रतिशत एक सीमा से ज्यादा नहीं बढ़ रहा है। सारे चुनाव एक साथ होंगे तो लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी और वे ज्यादा संख्या में वोट डालने निकलेंगे।

दूसरे, हर साल चुनाव होते हैं तो बेहिसाब खर्च होता है। इस पर रोक लगेगी। तीसरे, चुनावों की वजह से हर समय कहीं न कहीं आचार संहिता लगी होती, जिससे बड़े नीतिगत फैसले प्रभावित होते हैं और विकास की गतिविधियां धीमी होती हैं। चौथे, सभी पार्टियां और नेता सालों भर चुनाव के बारे में सोचते हैं और उसी में लगे रहते हैं। एक साथ सारे चुनाव होते हैं तो तीन महीने की हलचल होगी और उसके बाद पांच साल तक रचनात्मक काम होते रहेंगे।  (लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें