Opposition parties: बारात के जनवासे में साम्यवाद-समाजवाद की पुरवाई खोजने का बुद्धूपन जिन्हें करना है, करते रहें। फिर जो अब्दुल्ला अपने आप ही बारात में शामिल हो गए हों और बिना किसी के कहे कत्थकली के आगाज़ को तांडव के अंजाम तक पहुंचाने में ख़ुद-ब-ख़ुद जान दिए जा रहे हों, दूल्हा-दुल्हन उन्हें क्यों कर अपने सिर पर ढोते फिरें? अब्दुल्ला जानें, उन की दीवानगी जाने और उन का काम जाने। अब्दुल्लाओं को अगर यह नहीं मालूम कि जिन शादियों को वे अपने घर का उत्सव मान रहे हैं, वह बेगानों की है तो कोई क्या करे?
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यह बेगानी शादी के अब्दुल्लाओं के आपस में लड़-मरने का दौर है।(Opposition parties)
यह तो अच्छा है कि इस लड़ाई का निन्यानवे फ़ीसदी ज़मीनी-कुरुक्षेत्र में तीर-तलवारों से नहीं, वाटरलू के आभासी-मैदान में शब्दों की बौछार के ज़रिए लड़ा जा रहा है; वरना सचमुच के फूटे सिर, कटे हाथ-पैर और रक्त सने बदन आप को इधर-उधर पड़े मिलते।
मगर चौरासी लाख योनियों की यात्रा से गुज़र कर मनुष्य जन्म कोई इसलिए थोड़े ही मिला है कि काया को इतने कष्ट में डाला जाए।
सो, वह ज़माना गया, जब न्याय के पक्ष में लोग मैदान में सशरीर खड़े हो जाया करते थे। अब तो युद्ध की नई तकनीकें ईजाद हो गई हैं।
वैचारिक रणबांकुरा बनने के लिए सोशल मीडिया मंचों पर एक पोस्ट सुबह उठ कर कर, एक दोपहर में और एक शाम को कर देना ही काफी है।
अपने-अपने छद्म-कर्तव्य का इतना पालन आप के लिए, आप की हैसियत के अनुसार, लीचड़तम गालियों और चंद प्रशस्तिपत्रों का इंतज़ाम कर देगा, जिन्हें अपने गले में लटका कर आप दुःखी-सुखी होते उस दिन घूमते रह सकते हैं।
दूल्हों-दुल्हनों का कोई लेना-देना नहीं
अब्दुल्लाओं की इस दीवानगी से दूल्हों-दुल्हनों का कोई लेना-देना नहीं है। ये दूल्हे-दुल्हन किसी भी मंडप के हों, इधर के हों या उधर के, या किधर के भी नहीं, उन्हें अपनी-अपनी बारात के हालात से कोई मतलब नहीं है।
दूल्हे के चंद ख़ास दोस्तों और दुल्हन की कुछ ख़ास सहेलियों को छोड़ कर किस बारात में सारे बारातियों का यक-सा ख़्याल रखा जाता है?
बारात के जनवासे में साम्यवाद-समाजवाद की पुरवाई खोजने का बुद्धूपन जिन्हें करना है, करते रहें।(Opposition parties)
फिर जो अब्दुल्ला अपने आप ही बारात में शामिल हो गए हों और बिना किसी के कहे कत्थकली के आगाज़ को तांडव के अंजाम तक पहुंचाने में ख़ुद-ब-ख़ुद जान दिए जा रहे हों, दूल्हा-दुल्हन उन्हें क्यों कर अपने सिर पर ढोते फिरें?
अब्दुल्ला जानें, उन की दीवानगी जाने और उन का काम जाने। अब्दुल्लाओं को अगर यह नहीं मालूम कि जिन शादियों को वे अपने घर का उत्सव मान रहे हैं, वह बेगानों की है तो कोई क्या करे?
शादियां बेगानों की नहीं भी
और, अगर वे शादियां बेगानों की नहीं भी हैं तो सारे अब्दुल्ला कम-से-कम उन शादियों में ख़ुद तो बेगाने ही हैं।
वे लाख घोड़े के आगे नागिन नृत्य कर-कर अपने को दूल्हे का सब से बड़ा हमजोली साबित करने की होड़ में लगे रहें, दूल्हे का असली ध्यान तो मछली की आंख पर है।
बीच-बीच में अपने अब्दुल्लाओं की हौसला आफ़जाई के लिए घोड़े पर बैठे-बैठे ही जोशीली हस्तमुद्राएं बनाते रहने वाले दूल्हे को गंभीरता से ले लेने वाले अब्दुल्ला निर्बुद्धि हैं और उतनी ही नादान फूलों की चादर के आसपास इठला कर चल रही दुल्हन की स्यवंभू सहेलियां हैं।
वे लाख दुल्हन की लटें संवार-संवार अपने को धन्य मानती रहें, दुल्हन का भी ध्यान उन पर नहीं, अपने असली मनोरथ पर है।
झक्कू-मकड़जाल में बिंथे(Opposition parties)
इसलिए इस युग के राजनीतिक दलों की लीलाओं के उपग्रह बन कर आसमान में ज़ोर-ज़ोर से चक्कर लगा रहे उप-संगठनों, समूहों और व्यक्तियों पर तरस खाइए कि वे बेचारे किस कदर झक्कू-मकड़जाल में बिंथे हुए हैं। जो नासमझ हैं, उन से सहानुभूति रखिए
। जो नासमझ नहीं हैं, उन से और भी ज़्यादा सहानुभूति रखिए, क्यों कि समझते हुए भी नासमझ बने रहने का दिखावा करने की उन की पीड़ा को तो आप की संवेदनाओं की और भी बहुत ज़रूरत है।
उन पर हंसिए मत। उन पर खीजिए भी मत। उन की हिम्मत मत तोड़िए। उन की हिम्मत टूट जाएगी तो वे जी नहीं पाएंगे।
वे नहीं जी पाएंगे तो यह जो झूठा-सच्चा प्रतिरोध, दिखाने को ही सही, आप को दीख रहा है, वह भी अदृश्य हो जाएगा। लोकतंत्र का ऐसा दृश्य आप से देखा नहीं जाएगा। इसलिए किसी और के लिए नहीं, स्वयं के ख़्वाबों की दीर्घजीविता के लिए उन के साथ खड़े रहिए।
मगर उन्हें धिक्कारिए तो मत
एक बात गांठ बांध लीजिए कि जम्हूरियत अब सियासी दलों के सुल्तानों की सुल्तानी की वज़ह से नहीं, इन अब्दुल्लाओं के सामूहिक लोकनृत्य की बदौलत ही कायम रहेगी।
यह कह कर उन का मखौल मत उड़ाइए कि वे बेवकूफ़ों की तरह बेगानी शादी में नाच रहे हैं। उन के इस साहस और प्रतिबद्धता की दाद दीजिए कि वे अपनी में नहीं, अपनों की में नहीं, बेगानों की शादियों में पूरे मन से नाच रहे हैं।
स्वजनों की शादियों में तो सब नाचते हैं। परायों की शादियों में भी जिन के मन इस आ-सुरी ‘मोशा’-युग में भी नाचने को करते हों, उन का तो सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए।
वह हम न कर सकें, न सही, मगर उन्हें धिक्कारिए तो मत। वे शाहराहों की नहीं, हमारी पगडंडियों की मान्यता के अभिलाषी हैं। उन से उन का यह सुख छीनने का हक़ हमें नहीं है।
आप को क्या लगता है
आप को क्या लगता है, आज का सकल-प्रतिपक्ष उस के घटक-कर्णधारों की वज़ह से ज़िंदा है? नहीं।(Opposition parties)
उन की वज़ह से ही तो वह इस हालात में पहुंचा है कि उसे बेहद सघन देखभाल की ज़रूरत आन पड़ी है। उस की जो थोड़ी-बहुत सांसें चल रही हैं, वे इन्हीं ‘मान न मान, मैं तेरा मेहमान’ पैदल-सेना की बख़्शी हुई हैं।
जिस दिन यह जीवन रक्षक प्रणाली हट गई, चंद हिचकियों के साथ सकल-विपक्ष दम तोड़ देगा। अलविदाई की गंगाजलि प्रतिपक्ष के हलक में डालने का यह लाचार क्षण हमारे सामने कभी न आए तो बहुत अच्छा।
वरना कम-से-कम जितनी देर में आए, उतना अच्छा। इसलिए अब्दुल्लाओं की दीवानगी की लौ के जलते रहने में अपने हिस्से की आहुति डालते रहने का थोड़ा-सा पुण्य तो आप-हम भी करें!
एक बात और(Opposition parties)
एक बात और। जो-जो यह सोचते हैं कि देश अगर कंप्यूटर है तो उन का राजनीतिक दल उस कंप्यूटर का डिफ़ॉल्ट प्रोग्राम, वे-वे यह अच्छी तरह समझ लें कि सियासी दुनिया में स्वयं-पुनर्स्थापना की कोई तकनीक न कभी थी, न है और न आगे होगी।
यह ठीक है कि संसार में चीज़ें जब हद से ज़्यादा बिगड़ जाती हैं तो वे अपने मूल पर लौट आती हैं। लेकिन आज अगर कोई भी राजनीतिक दल यह सोचता है कि वह भारतीय राजनीति के आचार-विचार की मूल-शिला है तो यह उस की ख़ामख़्याली है।
समाज में बदलाव के साथ उस का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियां भी बदलती जाती हैं, उस के लक्ष्य-क्षितिज भी बदलते जाते हैं और उस की आधारशिलाएं भी नए-नए रंग ओढ़ लेती हैं।
अपने को अपिरहार्य समझने-मानने वाली व्यवस्थाओं और व्यक्तियों के अवसान की गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा है।
स्वतः-मुक्ति का कोई फॉर्मूला नहीं
इक्कीसवीं सदी का रजत काल पूरा होते-होते, भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में, जिस तरह की भदरंगी सियासत ने अपने अदरक पंजे पसार लिए हैं, उन के चंगुल से स्वतः-मुक्ति का कोई फॉर्मूला नहीं है।
अगर कोई नुस्खा है तो सिर्फ़ यह कि अंतिम हल्ला बोलने की इच्छा रखने वाली शक्तियां एकजुट और अविचलित बनी रहें। अपना-तेरी छोड़े बिना यह कतई मुमकिन नहीं है।
लेकिन अब इतने उदारमना लोग हम लाएं कहां से, जो मेरा-तेरा करना छोड़ दें? यह सवाल आप के मन में उदासी नहीं भरता क्या?
क्या मेरी तरह आप को भी यह लगता है कि बौनों के देश में अब शायद ही कोई गुलीवर कभी आए? अगर सचमुच ऐसा ही हुआ तो अपनी आस की कच्ची डोर पर हिचकोले खाते हुए हम कितनी दूर चल पाएंगे?
मगर कच्ची ही सही, इस डोर पर अनवरत चलते रहने को अपनी नियति बनाने का संकल्प ही अब सब-कुछ बचाएगा। तो चाहें तो यह संकल्प ले लीजिए। नहीं तो अपने को मुमुक्षु भवन के हवाले कीजिए।