श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है। अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं करने वाला कृतघ्न होता है। ज्ञान व विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना ही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की सेवा को सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव।
भारतीय परंपरा में मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण माने गए पंच महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय), पितृयज्ञ (तर्पण), देवयज्ञ (होम/हवन), बलि वैश्वदेव (भूतयज्ञ)और नृयज्ञ (अतिथि पूजन) में दूसरे स्थान पर पितृयज्ञ शामिल है। पितृयज्ञ तर्पण का ही अवान्तर भेद श्राद्ध है। भूख-प्यास आदि से होने वाले दुःख की निवृत्तिरूप तृप्ति अथवा प्रसन्नता, मन में पूरा सन्तोष अथवा आनन्दरूप को तर्पण कहा जाता है। और जिस कर्म विशेष के द्वारा अन्न से तृप्त हुए जन क्षुधा से होने वाले दुःख से निवृत्त होते हैं, श्रद्धा कहा जाता है। श्रद्धापूर्वक दिये जाने वाले अन्न का नाम श्राद्ध है। श्रद्धापूर्वक बनाये अन्न का खाने वाला श्राद्धभोजी होता है। इसलिए पाणिनी सूत्र में श्राद्धमनेन भुक्तमिनिठनौ कहा गया है। जिसने श्राद्ध का भोजन किया हो, वह श्राद्धी अथवा श्राद्धिक कहा जाता है। यहां भक्ति श्रद्धा से पकाये हुए अन्न का नाम श्राद्ध है। इससे यह सिद्ध है कि भोजन से होने वाले सत्काररूप कर्म का नाम श्राद्ध है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि भोजन से होने वाले सत्कार कर्म और उस सत्कार के लिए श्रद्धा से बनाए अन्न का नाम श्राद्ध है। श्रद्धा से दिए जाने वाले इस पितृ संबंधी दानकर्म को श्राद्ध कहते हैं।
सामान्यतः पिता शब्द से उत्पादक का अर्थ लिया जाता है, परंतु भारतीय परंपरा में उत्पादक के साथ ही यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं। इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। अन्य लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने अथवा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परंतु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है। अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं करने वाला कृतघ्न होता है। ज्ञान व विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना ही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की सेवा को सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं।
श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। वाणी के कर्म में प्रवीण, पढ़ाने व उपदेश करने में सदा प्रवृत अर्थात पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत का उपकार करने के लिए प्रतिक्षण प्रवृत्त होने वाले देवता कहाते हैं। मनुस्मृति के अनुसार मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करने, अपने मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करने, सदा अच्छे-बुरे का विवेक करने, बहुत कम नियम से बोलने अथवा वाणी को वश में करके मौन रहने, विषय पर सम्यक अनुभव कर उसके प्रचार से जगत का उपकार करने, उस विषय को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करने वाले पितर हैं। वेदविद्या का दान देने से आचार्य, गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जिनमें वाणी के कठोर, मिथ्याभाषण, चुगली और असम्बद्ध बोलना रूप चार दोष न हों, और सत्य भाषण, हितकारी वाक्य संभाषण, प्रियवाणी बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ने आदि चार प्रसंगों में वाणी का व्यय करना, किन्तु क्रोधादि पूर्वक नहीं बोलना आदि गुण मौजूद हों, वे देव हैं। और मानस विचार में तत्पर रहने वाले अर्थात मन के तीन दोष -परद्रव्यापहरण (अन्य के वस्तु को लेने की तृष्णा), दूसरों के प्रति अनिष्ट विचार और असम्भव विचार संबंधी दोष जिनमें न हों तथा मानस तीन गुण- सब प्राणियों पर दया, निरपेक्ष व सन्तोष और शुभकर्मों अथवा परमात्मा की उपासनादि में श्रद्धाभक्ति जिनमें विशेष कर हों वे पितर कहाते हैं।
स्पष्ट है कि वाचिक पापों से रहित और वाचिक पुण्य करने में विशेष कर प्रवृत्त देव, तथा मानस पापों से रहित, मानस पुण्य करने में अधिक कर प्रवृत्त पितृ कहाते हैं। जिनकी वाणी सब प्रकार शुद्ध है, वे देव और जिनका मन सब प्रकार शुद्ध है, वे पितृ लोग कहाते हैं। मानस विचार की रक्षा वाणी से होती है, इसी कारण पितृ कार्य का रक्षक देवकार्य को माना है। तथा देव को ऋषि और पितृ को मुनि। जहां देव, ऋषि, पितृ, सब आते हैं, वहां ऋषि पद वाच्य ब्रह्मचर्याश्रमस्थ वेदाध्येता तपस्वी अन्तेवासी शिष्य लिए जाएंगे। मनुस्मृति के अनुसार सत्त्वगुण की प्रधानता होने से बुद्धिवर्द्धक तथा खाने योग्य कव्यपदार्थ ही प्रयत्न के साथ ज्ञानियों को खिलाना चाहिए। और होमने योग्य वस्तु चारों प्रकार के विद्वानों को खिलाना चाहिए। इसी कारण उपनिषदों में भी आत्मज्ञानी की पूजा करने का निर्देश दिया गया है। इससे ज्ञानी लोगों का ही सत्कार करने की बात सिद्ध होती है। सत्य-असत्य का विवेक करने वाले ज्ञानी जनों की सम्यक श्रद्धा, भक्ति से सेवा करने वाले सेवकों पर वे प्रसन्न होकर कल्याण करने के लिए मन लगाते हैं। और श्रेष्ठमार्ग का उपदेश करते अथवा संकेतमात्र से जता देते हैं कि यह काम ऐसे करना चाहिए और यह न करना चाहिए।
इसी कारण ज्ञाननिष्ठ पितृजनों के सेवक भी कल्याणभागी होते हैं। इसी से ज्ञानयुक्त पितृजनों की अन्नादि दान से श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। सब सत्कारों में भोजनार्थ अन्न से सत्कार करना ही सबमें मुख्य है। वैदिक मतानुसार प्राणियों का प्राण अन्न के ही आश्रय है। और भोजन से ही इस शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और नाश हो सकता है। सात्त्विक- सत्त्वगुण का बढ़ाने वाला आहार मिलने पर शरीर निरोग और सत्त्वगुण वाली प्रबल बुद्धि होती है, इसी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि है। वस्त्र और भूषण आदि सुख के साधनों के न मिलने पर भी केवल अन्न और जल के आश्रय से शरीर ठहर सकता है, परंतु अन्न-जल न मिलने पर अत्यंत समृद्ध धनी होने अथवा सब पृथ्वी का राज्य मिल जाने पर भी शरीर की स्थिति नहीं रह सकती। इससे तर्पण और श्राद्ध में अन्न-जलों से सत्कार करना मुख्य है। अत्यंत प्राचीन काल से ही विद्वानों के मध्य यही परिपाटी चली आ रही है। लेकिन कालांतर में यह परंपरा लुप्त हो गई और मरे हुओं के नाम से पिण्ड देने की नई अवैदिक परंपरा चल पड़ी। पौराणिक ग्रंथों में इन अवैदिक चलन को बढ़ावा दिया गया। इसलिए भोजन से ज्ञानी पितृ लोगों का श्राद्ध करना अत्यन्त उचित है।
श्राद्ध नित्यकर्म और नैमित्तिक दोनों प्रकार का हो सकता है। विधि आज्ञा के अनुसार मनुष्य को नित्य श्राद्ध करना चाहिए। मनुस्मृति में कहा गया है कि- नित्य अन्न, जल, दूध व खीर, फल और कन्द मूलों से पितृ- नाम ज्ञानी पुरुषों का प्रीतिपूर्वक श्रद्धा से सत्कार करना चाहिए। यहाँ नित्यकर्म श्राद्ध के विधान में भोजन के पदार्थ गिनाये हैं। इनमें मांस अभक्ष्य होने से नहीं रखा गया। श्राद्ध में मांस पूर्णतः निषेध है। पंच महायज्ञ सामान्य कर नित्यकर्म हैं, उनके अन्तर्गत होने से भी श्राद्ध नित्यकर्म सिद्ध होता है, यह सब कथन उत्सर्गरूप से है। और अपवादरूप से श्राद्ध नैमित्तिक भी है। अर्थात जो कोई प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने से श्राद्ध नहीं कर सकता। अथवा जिसको सत्कार के योग्य पितृजन नित्य-नित्य नहीं प्राप्त होते, उसको साधनों के मिलने और पूज्य पितृजनों की प्राप्ति होने पर श्राद्ध करना चाहिए। सत्कार के योग्य पितृजनों के संबंध में कहा गया है-
अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः।
अर्थात -ज्ञानवृद्ध का नाम पिता है, किन्तु अवस्थावृद्ध का नाम नहीं।
प्राचीन काल में नैमित्तिक श्राद्ध के लिए हमारे पूर्वजों ने समय नियत किया था। इसी कारण पाणिनी ने अपने सूत्र में कहा है- श्राद्धे शरदः। अर्थात -ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। यद्यपि शरद ऋतु में अनेक सामान्य अथवा विशेष कार्य होते हैं, तथापि शरद ऋतु में हुए अथवा होने वाले श्राद्ध का ही नाम शारदिक होता है, शरद ऋतु के अन्य कामों को शारद कहा जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि शरद ऋतु में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाय अथवा अन्य ऋतु में श्राद्ध नहीं होता। साधनों के ठीक-ठीक न मिलने आदि पर श्राद्ध का नैमित्तिक करना कहा गया है। भोजन करने योग्य वस्तु- खोया, बरफी और रबड़ी, खीर आदि अनेक प्रकार के मीठे अथवा दही, मठा, शिखरन आदि सर्वोपरि उत्तम पदार्थ दूध से बनते हैं। और वर्षा ऋतु के होने से गौ आदि पशुओं के भोजन घासादि मुख्य कर उसी समय अथवा उससे कुछ पहले अवश्य उत्पन्न होते हैं।
पशुओं के भक्ष्य घासादि की अधिकता से दूध अधिकतर उत्पन्न होता है। इस कारण खीर आदि वस्तु सुगमता से प्राप्त हो सकते है। श्राद्ध में खीर आदि पुष्ट वस्तुओं का प्रायः विधान किया है। अन्नों के बीच उत्तम चावल मुख्य माने गये हैं। वे भी वर्षा की अधिकता से शरद ऋतु में ही उत्पन्न होते हैं। इसी कारण आश्विन (क्वार) के महीने में पूर्वकाल से नैमित्तिक श्राद्ध की परिपाटी चलाई गई थी। यह सत्य परम्परा अब नष्ट हो गई है, अर्थात वह श्राद्ध जिस उद्देश्य से पहले चलाया गया था, वैसा उद्देश्य अब नहीं रहा। अब कोई वैसे ज्ञानी लोगों को श्राद्ध के लिए न खोजता और न परीक्षा करता और न उसके मुख्य प्रयोजन को समझ कर श्राद्ध करता है। अब अधिकतर इसके ठीक विपरीत होता है।