विपक्षी पार्टियां इसे अहंकार कह रही हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर ऐलान किया कि अगले साल वे फिर लाल किले की ऐतिहासिक प्राचीर से देश को संबोधित करेंगे और अपनी उपलब्धियों का ब्योरा पेश करेंगे। लेकिन यह अहंकार नहीं है। यह बिल्कुल वैसी ही बात है, जैसी बात विपक्षी पार्टियां कर रही हैं। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों को अपनी बात कहने के लिए भले लाल किले का मंच नहीं मिला है लेकिन हर मंच से वे कह रही हैं कि अगली बार विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की सरकार बनेगी। अगर विपक्ष का यह कहना कि अगली बार हमारी सरकार बनेगी अहंकार नहीं है तो मोदी का यह कहना कि हम फिर लाल किले से झंडा फहराएंगे अहंकार कैसे है?
असल में यह अहंकार का नहीं, बल्कि दोनों तरफ आत्मविश्वास का मामला है। एक तरफ विपक्ष इस आत्मविश्वास से भरा है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसकी जीत होगी तो दूसरी ओर नरेंद्र मोदी इस भरोसे में हैं कि वे तीसरी और ऐतिहासिक जीत हासिल कर पंडित नेहरू का रिकॉर्ड तोड़ेंगे।
अब सवाल है कि मोदी के इस आत्मविश्वास का क्या कारण है? किस आधार पर उन्होंने लाल किले से यह ऐलान कर दिया कि अगली बार भी वे झंडा फहराएंगे और अपनी उपलब्धियां बताएंगे? इस सवाल का जवाब लाल किले पर दिए उनके 10वें भाषण से ही मिलता है। उन्होंने अपने 10वें भाषण से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का एजेंडा तो तय किया ही साथ ही भाजपा की ओर से पिछले 10 साल में बनाए जा रहे लोकप्रिय विमर्श को बहुत बड़ा विस्तार दे दिया। पिछले साल यानी आजादी के अमृतवर्ष में लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी ने 25 साल का विजन रखा था। उन्होंने कहा था कि अगले 25 साल अमृत काल के हैं और 2047 में जब देश की आजादी के एक सौ साल पूरे होंगे तब तक भारत विकसित राष्ट्र बन जाएगा। एक साल के बाद उन्होंने इस 25 साल को अगले एक हजार साल के स्वर्णिम और भव्य भारत के निर्माण की आधारशिला बनाने वाले वर्षों में तब्दील कर दिया। उन्होंने अपने या अपनी पार्टी के लिए सिर्फ अगला कार्यकाल नहीं मांगा है, बल्कि अगले 25 साल यानी पांच कार्यकाल मांगे हैं। ताकि उस अवधि में ऐसे फैसले किए जा सकें, जिनसे स्वर्णिम और भव्य भारत का निर्माण हो।
इसका मतलब है कि अब भारत को सिर्फ विकसित राष्ट्र नहीं बनाना है। विकसित राष्ट्र तो दुनिया में बहुत से हैं। अब वैसा स्वर्णिम और भव्य भारत बनाना है, जो एक हजार साल की गुलामी से पहले था। प्रधानमंत्री ने बहुत बारीक तरीके से यह बात कही। पहले उन्होंने एक हजार साल की गुलामी का जिक्र किया, जिसका नैरेटिव राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ओर से दशकों से बनाया जाता रहा है। एक हजार साल की गुलामी का मतलब है आठ सौ साल मुसलमान शासकों की गुलामी और दो सौ साल अंग्रेजों की गुलामी। इसका जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि एक हजार साल पहले एक छोटे से राज्य में एक राजा की पराजय हुई थी और उस हार ने एक हजार साल के लिए भारत की गुलामी का भविष्य तय कर दिया था। उनके यह कहानी बताने का मकसद यह था कि फिर वैसी हार नहीं होनी चाहिए, जिससे गुलामी का भविष्य बने। इस नैरेटिव का दूसरा पहलू यह है कि एक हजार साल की गुलामी से पहले का भारत कैसा था? वह स्वर्णिम था, भव्य था और उसमें मुस्लिम, ईसाई, सिख कोई नहीं था। वह आर्थिक रूप से समृद्ध एक हिंदू राष्ट्र था।
प्रधानमंत्री ने एक हजार साल की गुलामी का इतिहास और अगले हजार साल के भविष्य का नैरेटिव सेट करने के तुरंत बाद युवा शक्ति की बात की। उन्होंने कहा कि देश के युवाओं के सामने ऐसा अवसर है, जैसा कभी किसी के आगे नहीं रहा होगा। साथ ही उन्होंने उम्मीद भी जताई कि युवा इस अवसर को गंवाएंगे नहीं। वे चाहे जिस संदर्भ में युवाओं के अवसर की बात कर रहे हों लेकिन असल अपील यह थी कि युवाओं के सामने फिर से मोदी सरकार चुनने का अवसर का है।
ध्यान रहे पिछले 10 साल में देश के युवाओं के बड़े समूह को कई तरह के प्रचार, नैरेटिव और सोशल मीडिया के जरिए समझाया गया है कि मोदी के कार्यकाल में भारत का वैभव बढ़ रहा है और हिंदू राष्ट्र बनाने का वास्तविक अवसर सामने है। उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना है। उन युवाओं को एक हजार साल में स्वर्णिम, भव्य और गौरवशाली भारत बनाने का सपना आकर्षित करेगा। ध्यान रहे मोदी उम्मीदों या आकांक्षाओं की राजनीति करने में सबसे माहिर राजनेता हैं। इससे पहले के दोनों चुनाव अभियान में उन्होंने देश के लोगों की आकांक्षाओं को बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया। अब उन्होंने नई आकांक्षाएं पैदा कर दी हैं, जिनके बारे में उनका दावा है कि उन्हें वे ही पूरा कर सकते हैं।
उनके आत्मविश्वास को जाहिर करने वाली दूसरी अहम बात उनके भाषण में यह थी कि उन्होंने 2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत का जिक्र किया और कहा कि उससे पहले की 30 साल की राजनीतिक अस्थिरता से सबक सीख कर देश के लोगों ने स्थिर सरकार चुनी थी। मोदी ने कहा कि लोगों ने पूर्ण बहुमत की सरकार फॉर्म की तो सरकार को रिफॉर्म करने की हिम्मत मिली, जिससे देश ट्रांसफॉर्म हुआ। इसके कंट्रास्ट में दूसरी ओर देखेंगे तो अपने आप इस नैरेटिव का महत्व समझ में आएगा। दूसरी ओर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में कोई पार्टी ऐसी नहीं दिख रही है, जो बहुमत के आसपास भी पहुंच सके। 1991 के बाद पिछले 32 साल में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन 207 सीट का रहा है। सो, सबको अंदाजा है कि विपक्ष की सरकार अगर बनती है तो वह खिचड़ी सरकार होगी। यह अलग बात है कि 2014 से पहले की खिचड़ी सरकारों ने ज्यादा बेहतर काम किया था और लोकतंत्र को ज्यादा मजबूत किया था। लेकिन जनता आमतौर पर उतने वस्तुनिष्ठ तरीके से नहीं सोचती है। उसके सामने मोदी ने स्थिर और मजबूत सरकार बनाम कमजोर और खिचड़ी सरकार चुनने का विकल्प पेश किया है।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विश्वगुरू की बजाय विश्वमित्र या विश्व के अटूट साथी का जुमला बोला। यह पिछले कई बरसों से बनाए जा रहे नैरेटिव का हिस्सा है, जिसमें बार बार कहा जाता है कि मोदी के नेतृत्व में दुनिया में भारत का महत्व बढ़ा है और दुनिया अब भारत को पहले से ज्यादा सम्मान से देखती है। मोदी ने अपने भाषण में बताया कि कैसे दुनिया भारत के विकास को लेकर चमत्कृत है और भारत के साथ जुड़ना चाहती है। उन्होंने कहा कि जैसे दूसरे महायुद्ध के बाद एक नई विश्व व्यवस्था बनी थी वैसे ही कोराना के बाद एक नया वर्ल्ड ऑर्डर बन रहा है, जिसमें भारत का अहम स्थान है और यह उनकी वजह से संभव हुआ है। सोचें, इस पैमाने पर मोदी के मुकाबले विपक्ष के पास कौन नेता है? प्रधानमंत्री ने इस बार अपने भाषण में देश के 140 करोड़ लोगों को ‘प्रिय परिवारजन’ कह कर संबोधित किया। देश की बहुसंख्यक आबादी का बड़ा हिस्सा, जो मोदी को पिछले करीब ढाई दशक से हिंदू हृद्य सम्राट के रूप में देखता है उस समूह को यह संबोधन मोदी के और करीब ले आएगा।
इसके अलावा जो बातें हैं वह तो हैं ही। मोदी ने ‘भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टिकरण’ को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताया। उन्होंने अपने प्रचार के दम पर और मीडिया की मदद से समूचे विपक्ष को इन्हीं तीन चीजों के दायरे में समेटा है। विपक्ष को इसका जवाब देना होगा। इसके अलावा सरकार की योजनाएं हैं, करोड़ों लाभार्थी हैं, भाजपा की मशीनरी है, संसाधन है, मोदी का व्यक्तित्व है, उनकी प्रचार करने और भाषण देने की असीमित क्षमता है और ऐसी अनेक चीजें हैं, जो उनको आत्मविश्वास देती हैं। हालांकि चुनाव में यह सब होना भी जीत की गारंटी नहीं होती है। भारत में पहले कई बार ऐसा हो चुका है कि जब सत्ता में बैठे नेता जीत के सर्वाधिक भरोसे में होते हैं तो जनता उनको झटका देती है। सो, मोदी का आत्मविश्वास अपनी जगह है और मतदाताओं का फैसला अपनी जगह होगा, जो किसी वजह से अलग भी हो सकता है।