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संघ परिवार: “पता नहीं, कोई मजबूरी होगी!”

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सारे दूसरों‌ वाले ही काम संघ-भाजपा नेता भी कर रहे हैं। इस्लाम-परस्ती को चादर चढ़ाना, तृप्तिकरण, एजेंसियो का दुरुपयोग, पार्टी चंदे के नाम पर भारी व गोपनीय वसूली, कहीं किसी को हिसाब न देना, सार्वजनिक स्थानों, संस्थानों, आदि पर अपने नेताओं के नाम थोपना, विपक्षी दलों को विदेशी एजेंट कहना, संदिग्ध तरीकों से दल-बदल कराना, आदि में आप बढ़े-चढ़े दिखते हैं। तो वर्षों, दशकों पहले इन्हीं कामों के लिए दूसरों पर तंज करना अनर्गल नहीं था?”

 संघ परिवार: स्वयंसेवक लाचार :  एक स्वयंसेवक से वार्तालाप      

“आप के लोग आडंबर, लफ्फाजी, और अहंकार में डूबे दिखते हैं। यह कैसा चरित्र निर्माण है, जिस का संघ दावा करता था? यह तो कुरुचि, कुशिक्षा और दुर्बलता का संकेत है।”

“देखिए, राजनीति में बहुत से काम करने पड़ते हैं।”

“मगर सब तो ऐसा नहीं करते।”

“सफल नेता बनने के लिए बहुत से दिखावे करने पड़ते हैं। झूठी बातें बोलनी पड़ती हैं।”

“क्या नवीन पटनायक सफल नेता नहीं? उन्होंने लंबे समय सत्ता चलाई।‌ अनेक शक्तिशाली दलों को बार-बार हराया। उन्होंने कब घटिया भाषा का प्रयोग किया? कब विरोधी नेताओं का अपमान किया, कब झूठे आरोप लगाए?”

“देखिए, उन की बात और है। वे अपवाद हैं।”

“पर अपवाद तो संघ-प्रचारक को दिखना था। चाल-चरित्र का दावा तो आप का था! फिर, नवीन अपवाद भी नहीं। त्रिपुरा में नृपेन्द्र चक्रवर्ती लंबे समय सत्ताधारी रहे, और नितांत सज्जन बने रहे। ए.के. एंटनी, कैप्टन अमरिंदर सिंह, और भी अनेक नेता।”

“क्षेत्रीय राजनीति थोड़ी आसान है।”

“असंख्य राष्ट्रीय नेता भी भद्रता के साथ ही लंबे-लंबे समय सार्वजनिक जीवन में रहे। किन का फूहड़ भाषण या व्यवहार आप याद कर सकते हैं?”

“उतना पता नहीं।”

….

“आप के बड़े लोग उन हिन्दू नेताओं के नाम ले-लेकर, सोत्साह और अकारण अपशब्द कहते रहे हैं जिन से उन्हें हिंसक प्रतिकार का दूर-दूर तक भय नहीं। पर जो गैर-हिन्दू उन्हें खुलेआम चुनौती, धमकाते रहते हैं – उन पर आप के नेता चुप रहते हैं। इस प्रवृत्ति पर आप को ग्लानि नहीं होती? हिंसक गिरोहों पर चुप्पी, और अहिंसक लोगों पर चोट क्या राष्ट्रीय हित में है? ”

“पता नहीं। संयम से तो बोलना चाहिए।”

“जबकि वही बड़बोले नेता दिल्ली से श्रीनगर, बंगाल, मणिपुर, राजस्थान से केरल तक – जगह-जगह निरीह हिन्दुओं पर हिंसा, उत्पीड़न पर चुप रहते हैं?”

“वे मामला बिगाड़ना नहीं चाहते।”

“लेकिन आक्रामक समूह उस चुप्पी को डर समझते हैं, फलत: आगे भी हमले करते रहते हैं। क्या यह क्लासिक व्यवहार-पद्धति देश में दशकों से नहीं है?”

“(मौन)”

….

 

“संघ-भाजपा नेताओं की जिन बातों, कामों को आप भी गलत मानते हैं, यानी आप जैसे हजारों स्वयंसेवक, उन पर विरोध क्यों नहीं करते?”

“सब अनुशासन से बँधे हैं।”

“लेकिन बस चुनावी टिकट न मिलने, उच्च पद से हटाने पर संघ-भाजपा के अनगिन नेताओं ने समय-समय पर खुला विद्रोह किया। अलग पार्टी तक बनाई। तब अनुशासन कहाँ रहता है?”

“(मौन)”

….

“यदि यही संघ-भाजपा का चरित्र है‌ कि वे धर्म समाज की हानि वाले कामों पर चुप रहें, तब विचारहीनता और भीरुता क्या है? अपने स्वयंसेवक के भी गलत काम को गलत कहने का बल न हो – तब वैसा संगठन समाज या धर्म के भयंकर शत्रुओं के सामने क्या करेगा? आप यह तो समझ सकते हैं?”

“(मौन)”

….

“आप के नेता एक दिन किसी का मजाक उड़ाते हैं, कि वे तो संसद की दर्शक-दीर्घा में जाने वाले हैं; तो दूसरे ही दिन लोगों को डराते हैं कि वे सत्ता में आएंगे तो मंगलसूत्र उतरवा लेंगे। ऐसी अंतर्विरोधी बातें क्या है?”

“शायद जनता को सिखाना चाहते हैं कि दूसरों से सावधान रहें।”

“मगर सारे दूसरों‌ वाले ही काम संघ-भाजपा नेता भी कर रहे हैं। इस्लाम-परस्ती को चादर चढ़ाना, तृप्तिकरण, एजेंसियो का दुरुपयोग, पार्टी चंदे के नाम पर भारी व गोपनीय वसूली, कहीं किसी को हिसाब न देना, सार्वजनिक स्थानों, संस्थानों, आदि पर अपने नेताओं के नाम थोपना, विपक्षी दलों को विदेशी एजेंट कहना, संदिग्ध तरीकों से दल-बदल कराना, आदि में आप बढ़े-चढ़े दिखते हैं। तो वर्षों, दशकों पहले इन्हीं कामों के लिए दूसरों पर तंज करना अनर्गल नहीं था?”

“पता नहीं, कोई मजबूरी होगी!”

“यही मजबूरी पिछले सत्ताधारियों की भी रही हो सकती है! एक ही कर्म पर दो पैमाने कैसे चलेंगे?”

“पता नहीं।”

“वे अफगानिस्तान, बंगलादेश में जिहादी सत्ताओं को बिना शर्त सहायता क्यों दे रहे हैं? जबकि उन देशों में हिन्दुओं, सिखों को क्रमशः मिटाया जा रहा है।”

“पता नहीं।”

“बंगलादेश में हिन्दुओं के नवीनतम उत्पीड़न पर अमेरिकी नेताओं ने आवाज उठाई, पर आप के नेता चुप रहे। संघ ने तो पलटी मार कर भाषा ही बदल ली! तब वे किस अखंड भारत का दंभ भरते हैं? क्या अखंड इस्लामी भारत बनाने के लिए?”

“(मौन)”

…..

“आप को दूसरों पर अविश्वास है, तो संघ में भी योग्य, नि:स्वार्थ व्यक्तियों को सार्वजनिक दायित्व क्यों नहीं देते ताकि इन समस्याओं का सही समाधान हो सके? उलटे जिन का नीति विचार, प्रशासनिक या सांस्कृतिक अनुभव से दूर का ही संबंध है, उन्हें क्यों भार देते हैं? जो सुन्ना या सीरा का अर्थ तक नहीं जानते, वैसे‌ लोग इस्लाम संबंधी नीति या संस्कृति-शिक्षा के जंगम प्रवाचक या कमिसार बनें – यह कैसी बुद्धि है!”

“कह नहीं सकते। हमें आशा थी कि ‘क’ भाईसाब को दायित्व मिलेगा। वे संघ के अच्छे वक्ता और शालीन हैं। पर पता नहीं क्यों उन्हें, या ‘ख’ को भी न दिया।”

“आप के वरिष्ठ ‘ग’ जी पहले संयमित थे। अब वे हर तरह के विषय पर, और विचित्र बोलते हैं! क्या उन को सच मालूम नहीं या वे जान-बूझ कर बोगस बयान देते हैं?”

“पता नहीं। हम तो जानते थे कि वे सब जानते है। अब ऐसे क्यों बोल रहे, हमें भी समझ नहीं आता। पूछने पर कोई कहता है, ‘गहरी रणनीति हो सकती है’। पता नहीं, क्या है।”

“ऐसी अटकल तो फिजूल है।”

“पर बड़े स्वयंसेवक झूठ क्यों बोलेंगे?”

“ताकि छोटे स्वयंसेवकों का मोहभंग न हो।”

“फिर तो लाचारी है।”

“जब संघ-भाजपा के बड़े नेता आँकड़ों, उदाहरणों से बताते हैं कि कांग्रेस ने मुसलमानों को ठगा, जबकि हम ने इतना ठोस माल, जमीन, विशेष सुविधा, सेंटर, पद, आदि दिए – तो हिन्दूपक्षी पार्टी कांग्रेस ही ठहरी?”

“तो क्या करोड़ों मुसलमानों को आप समुद्र में फेंक देंगे?”

“यह किस ने कहा? आप आलोचक के मुँह में मनगढ़ंत बात रखकर अपना बचाव क्यों करते हैं, जबकि जो कहा गया उस पर चुप हो जाते हैं।”

“(मौन)”

“यदि उन के करोड़ों होने के कारण उन के समक्ष आप सरेंडर हैं, तब तो संघ बनाना ही गलत था! उस समय अविभक्त भारत में मुसलमान उतने प्रतिशत ही थे जितने आज बचे-खुचे भारत में हैं। तब आप डॉ. हेडगेवार को क्या कहेंगे, जिन्होंने मुस्लिम दंगाइयों के मुकाबले से ही आरंभ किया था?”

“(मौन)”

….

“यदि आप के नेता स्वयं अधिक मुस्लिमपरस्त होने की जिद रखते हैं, तब तो हिन्दू-हित में कांग्रेस सत्ता ही अच्छी हुई?”

“आप कांग्रेस को कैसे बेहतर कह सकते हैं?’

“बेहतर या बदतर तो किसी पैमाने से होगा। आप बताइए कि किस तराजू पर कांग्रेस और भाजपा के रिकॉर्ड तौलें – ताकि प्रमाणिक रूप से बेहतर-बदतर तय हो? हम आप के दिए पैमाने पर ही दोनों की तुलना के लिए तैयार हैं।”

“(मौन)”

…..

“तब तो कांग्रेस के ‘तुष्टिकरण’ पर संघ-भाजपा ने दशकों नाराजगी जताकर हिन्दुओं को धोखा दिया? जब सत्ता में आकर भाजपा और संघ, दोनों ही कांग्रेस से बढ़कर, अपने ही शब्दों में उसी समूह के ‘तृप्तिकरण’ में लग पड़े?”

“यह तो हमें भी बुरा लगा है।”

“तो आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?”

“हम क्या करें! हमारे ही नेता जब कर रहे हैं तो कुछ सोच कर ही करते होंगे।”

“यही तर्क कांग्रेसियों पर भी लागू था। फिर तो संघ-भाजपा द्वारा दशकों से कांग्रेस की नाहक बदनामी की गई। क्या वह पूरे राष्ट्र को बरगलाना न हुआ? यही राष्ट्रवाद है?”

“वह समय और था। आज … देखिए, हमारे नेताओं को सब मालूम है। फिर भी यदि कर रहे हैं तो कुछ सोच कर ही करते होंगे।”

“क्या आप संतुष्ट हैं?”

“कांग्रेसियों से तो अच्छा है।”

“संघ के लिए, या देश के लिए?”

“कांग्रेस ने ही सब को खराब किया। भाजपा तुरंत सब कुछ कैसे ठीक कर सकती है?”

“किस बिन्दु पर और कब भाजपा ने ठीक करने का यत्न भी किया? तीसियों वर्षों से जहाँ-तहाँ, निचले, बिचले, और ऊपर तक उन के हाथों में संसाधन सत्ता रही। वह कौन सा विषय है जिस में बिगड़ी को बनाने का प्रयास आप ने किया? कृपया नीतियों में बताइए।”

“(मौन)”

…..

“नयी लोक-लुभावन योजना घोषित करना, या पुरानी को नया नाम दे देना, नये जुमले गढ़ना, विरोधियों को कोसना, लोगों को डराना, हर चुनाव जीतते रहने का दंभ भरना, जगह-जगह फिजूल मूर्तियाँ, स्मारक, आदि बनवाना – पर उन नीतियों को न छूना जिन की निन्दा कर-कर के आप दूसरों को कोसते थे। साधन पाकर आप नित नये तमाशे में लगे रहते हैं जो केवल अगला चुनाव जीतने हेतु होता है। यदि नीतियाँ वही रहें, तो केवल कुर्सी पर चेहरा बदल देने से राष्ट्रीय जीवन में क्या अंतर आया?”

“(मौन)”

….

“यदि संघ सत्ता में हिन्दुओं के विरुद्ध नीतिगत भेदभाव, असहायता बढ़े, और उस पर सब मौन रहें – तो यह किस के अच्छे दिन हुए? हिन्दू-शत्रुओं के ही! फिर संघ भाजपा का सत्ता से बाहर रहना ही हिन्दुओं के लिए श्रेयस्कर है?”

“यह तो आप अजीब कह रहे हैं! आप को ‘घ’ भाई साहब से बात करना चाहिए। वे आप को जानते भी हैं।”

“यदि ये प्रश्न आप उचित समझते हैं, तो उत्तर पाने की इच्छा आप को नहीं होती?”

“देखिए, हम तो अनुशासन से लाचार हैं। आप ही कहें।”

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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