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स्त्री वेदना को व्यक्त करने वाली गायिका

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गिरिजा देवी के बाद वह दूसरी गयिका थीं, जिन्हें हिंदी प्रदेश की जनता ने प्यार और सम्मान दिया था। फर्क दोनों की गायिकी में था पर व्यक्तित्व एक जैसा। दोनों अपनी संस्कृति में रची बसी। दोनों गायिकी के लिए समर्पित। बिहार में सुपौल जिले के हुलास में 1952 में जन्मीं शारदा सिन्हा से पहले भी भोजपुरी लोक गीतों की गायिकी की लंबी परंपरा रही थी पर उन्होंने उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया।

विमल कुमार

कोई भी कला बिना लोक के न तो लोकप्रिय हो सकती है न अमर। आम जन ही कला को दूर दूर तक पहुंचाता है। तुलसी और कबीर इसके उदाहरण हैं। भिखारी ठाकुर, राहुल सांकृत्यायन, बनारसी दास चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, देवेंद्र सत्यार्थी का जोर भी इन्हीं लोक गीतों और लोक संस्कृति को बचाने और संरक्षित करने पर रहा। भूमंडलीकरण और बाजार के इस युग में इस लोक को बचाने की ही कोशिश शारदा सिन्हा ने अपनी गायिका से की थी। शायद यह कारण रहा हो कि मंगलवार की देर रात जब उनक़ा निधन हुआ तो केवल बिहार ही नहीं, बल्कि पूरी हिंदी पट्टी शोकाकुल हो गई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साथ राजनीति, कला और फिल्म जगत के अनेक लोगों शोक व्यक्त किया।

इससे पहले प्रधानमंत्री ने शारदा सिन्हा के पुत्र से टेलीफोन पर बात भी की थी। पिछले एक सप्ताह से जब वे एम्स में भर्ती थीं तो मानो पूरा देश उन्हें बचाने की प्रार्थना ईश्वर से कर रहा था। उनके पुत्र ने भी सोशल मीडिया पर हृदय विदारक अपील की थी लोग उनकी मां के लिए दुआ करें लेकिन होनी को कौन टाल सकता है और वही हुआ जो नियति को मंजूर था। एक लोकगयिका की आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई।

गिरिजा देवी के बाद वह दूसरी गयिका थीं, जिन्हें हिंदी प्रदेश की जनता ने प्यार और सम्मान दिया था। फर्क दोनों की गायिकी में था पर व्यक्तित्व एक जैसा। दोनों अपनी संस्कृति में रची बसी। दोनों गायिकी के लिए समर्पित। बिहार में सुपौल जिले के हुलास में 1952 में जन्मीं शारदा सिन्हा से पहले भी भोजपुरी लोक गीतों की गायिकी की लंबी परंपरा रही थी पर उन्होंने उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया। उनके गीत मॉरीशस और फिजी तक लोकप्रिय थे। प्रवासी बिहारी उन्हें ब्रिटेन और अमेरिका में भी सुनते थे।

90 के दशक में उनके गीतों ने गली गली में धूम मचा दी थी। वह जमाना टी सिरीज़ के कैसेटों का था। अब रील का जमाना है। शारदा जी फेसबुक पर थीं। उनके 70 लाख फॉलोवर थे। शारदा जी विदुषी गायिका थीं। संगीत में पीएचडी थीं। पटना के मगध महिला कॉलेज से पढ़ीं लिखी। शारदा जी को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी मिला था।

उनके गीत घर घर मे लोकप्रिय हो गए थे। उनके गीत महापर्व छठ के पार्श्व संगीत की तरह थे। उनके गीतों से छठ की पवित्रता और बढ़ती थी। लेकिन सिर्फ छठ नहीं, उनके गीतों के बगैर भोजपुरी, मैथिली और मगही क्षेत्र में कोई भी शुभ कार्य संपन्न नहीं होता था। प्रेम और विरह के उनके गाए गीत भाषिक और संगीत की शुचिता की मिसाल हैं। बॉलीवुड के लिए उन्होंने चुनिंदा गाने ही गाए लेकिन वे गाने अमर हैं। उन्हें 1991 में पद्म श्री और 2018 में पद्म भूषण भी मिला। अगर लोक संगीत से लोकप्रियता की बात करें तो उनसे पहले तीजन बाई भी अपने छत्तीसगढ़ राज्य में इसी तरह लोकप्रिय हुई थीं। शारदा जी का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था ‘बतावअ चांद केकरा से कहां मिले जालअ’। अन्ततः शारदा जी भी अपने चांद से मिलने चली गईं। कुछ माह पूर्व ही उनके पति का निधन हो गया था।

बिहार में भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिसिर और विंध्यवासिनी देवी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली शारदा जी स्त्री सशक्तिकरण की एक प्रतीक थी। लोक गायक अपनी जनता में किस तरह अमर हो जाता है, इसका एक ताजा उदाहरण थी। उनके गीतों से एक बार सिद्ध हुआ कि भारतीय स्त्रियों ने ही लोकगीतों को बचाए रखा है। भोजपुर अंचल में स्त्री की वेदना, विरह, प्रेम, वात्सल्य, विवाह गीत, छठ गीत की आवाज शारदा जी के गीतों में गहरी पीड़ा व्यक्त होती थी। भोजपुर अंचल से बाहर की स्त्रियों ने भी उनकी आवाज़ में अपनी अभिव्यक्ति पाई थी।

भोजपुरी फिल्मों की फूहड़ता को नकार कर उन्होंने विशुद्ध पवित्र और सात्विक गीत गाए और बताया कि यही सच्चाई है, यही संस्कृति है। वे ऐसे समय में विदा हुई जब कई गायकों ने भोजपुरी संस्कृति को फूहड़ बना दिया है। शारदा सिन्हा ने अपने गीतों में भोजपुरी की आत्मा को बचाए रखा। उन्होंने बाजार से कोई समझौता नहीं किया। अपने गीतों की गुणवत्ता और पवित्रता बचाए रखी। साठ के दशक में कुमकुम पर फिल्माए गए भोजपुरी गीतों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए शारदा जी ने गीत गाए थे। नकी वजह से भोजपुरी संस्कृति और गीतों का नया दौर उभरा था। वे विशुद्ध रूप से अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ीं। शारदा जी ने अपने गीतों से सिद्ध किया कि लोक की शक्ति ही कला को लोकप्रिय बनाती है। उन्होंने बताया कि लोकप्रियता में गुणवत्ता भी होती है। उन्होंने भोजपुरी गीतों की लोकप्रियता और गुणवत्ता दोनों को बचाए रखा। महेंदर मिसिर को भी उन्होंने अपने गीतों से अमर कर दिया।

अपनी वेशभूषा रहन सहन और बोलचाल में अपनी संस्कृति की गंध लिए शारदा जी एक आम स्त्री बनी रहीं। उन्होंने बताया कि किस तरह एक स्त्री अपनी सफलता की सीढ़ियां अपनी संस्कृति के साथ चढ़ सकती हैं। उन्होंने अपने गीतों में एक स्त्री के साथ हुए अन्याय, भेदभाव और उपेक्षा और सामंती पितृसत्ता पर भी चोट की है। उनके गीतों में संयुक्त परिवार को बचाने की गुहार भी है। जीवन की व्यथा और विडंबना को भी व्यक्त किया है। उनकी आवाज में एक गहरा दर्द है। एक ऐसी स्त्री की पीड़ा जो आपके दिल को चीर देती है। उनकी गायिकी में एक पूरा परिवार है। पति, देवर, ननद, सास, ससुर सभी हैं। तभी शारदा सिन्हा हमेशा उसी तरह याद की जाएंगी, जिस तरह हम आज भिखारी ठाकुर को याद करते हैं।

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