उपाकर्म का मुख्य उद्देश्य वेद के बारे में मानवजाति को ज्ञान देने वाले अर्थात मानव के लिए सामने लेकर आने वाले ऋषि- मुनियों को धन्यवाद करते हुए श्रद्धा सुमन अर्पित करना है। वर्तमान में ऋग्वेद मानने वाले ब्राह्मण सावन माह की पूर्णिमा के एक दिन पूर्व शुक्ल पक्ष चतुर्दशी के श्रवण नक्षत्र में इसे मनाते हैं। इसे ऋग्वेद उपाकर्म भी कहते है।
29 अगस्त -ऋग्वेद उपाकर्म अनुष्ठान
प्राचीन काल से शरीर, मन और इंद्रियों की पवित्रता का पुण्य पावन पर्व श्रावणी उपाकर्म श्रावण मास के श्रवण नक्षत्र व चंद्र के मिलन अर्थात पूर्णिमा की तिथि अथवा हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को मनाए जाने की वैदिक परिपाटी है। श्रावणी उपाकर्म में श्रावणी और उपाकर्म दो शब्द हैं। श्रावणी शब्द श्रु श्रवणे धातु से ल्युट् प्रत्यय पूर्वक छन्दसि (वेदार्थ) में स्त्री लिंग में श्रावणी शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ होता है- सुनाये (सुनाई) जाने वाली। अर्थात जिसमें आहृति अर्थात वेदों की वाणी को सुना जाये, वह श्रावणी कहलाती है। अर्थात जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण-श्रावण और स्वाध्याय व प्रवचन होता रहे, वह श्रावणी है। उपाकर्म शब्द उप+ आ+कर्म से बना है। उप अर्थात सामीप्यात्, आ अर्थात समन्ताद, कर्म अर्थात यज्ञीय कर्माणि। अर्थात जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें, वह उपाकर्म कहाता है। पारस्कर गृह्यसूत्र 2/10/1-2 में उपाकर्म शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है-
अध्ययनस्य उपाकर्म उपाकरणं वा। -पारस्कर गृह्य सूत्र 2/10/1-2
अर्थात- यह समय स्वाध्याय का उपकरण था। उप अर्थात समीप +आकरण अर्थात ले आना। अर्थात जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना।
उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल से ही भारत में ऋषि- मुनि, वेद के विद्वान आचार्य, पुरोहित के समीप आकर उनके सत्य वचनों को सुनकर उनका सम्मान करने, उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को आत्मसात कर जीवन में उतारने की परंपरा रही है। वैदिक मत में विद्वानों के समीप बैठ उनके वचनों को सुनना, उन्हें आत्मसात करते हुए उनका सम्मान कर उन्हें यथेष्ट दान देना ही ऋषि तर्पण की संज्ञा से संज्ञायित है। उपाकर्म एक वैदिक अनुष्ठान है। उपाकर्म का अर्थ है- प्रारम्भ, शुरुआत, किसी चीज का आरम्भ। यह दिन वेदाध्ययन अर्थात वेद पढ़ने- सीखने के कर्मकांडों के प्रारम्भ का दिन होता है। उपाकर्म वर्ष में एक बार श्रावण के महीने में श्रवण नक्षत्र व चंद्र के मिलन के अवसर पर आता है। तमिल और कुछ अन्य कैलेंडरों के अनुसार यह धनिष्ठा नक्षत्र के दिन आता है।
परमेश्वरोक्त ग्रंथ वेदों को मानने वाले विद्वान विशेषकर वर्तमान के ब्राह्मण समुदाय अलग -अलग तरीके से इसे मानते हैं, फिर भी इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव विगत समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना ही है। उपाकर्म का मुख्य उद्देश्य वेद के बारे में मानवजाति को ज्ञान देने वाले अर्थात मानव के लिए सामने लेकर आने वाले ऋषि- मुनियों को धन्यवाद करते हुए श्रद्धा सुमन अर्पित करना है। वर्तमान में ऋग्वेद मानने वाले ब्राह्मण सावन माह की पूर्णिमा के एक दिन पूर्व शुक्ल पक्ष चतुर्दशी के श्रवण नक्षत्र में इसे मनाते हैं। इसे ऋग्वेद उपाकर्म भी कहते है।
यजुर्वेद मानने वाले ब्राह्मण इसे श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाते है। इसे यजुर्वेद उपाकर्म कहते है। इसके अगले दिन गायत्री जप कर संकल्प लिया जाता है। सामवेद को मानने वाले ब्राह्मण सावन माह की अमावस्या के दूसरे दिन अर्थात भाद्रपद की हस्त नक्षत्र को इसे मनाते है। इसे सामवेद उपाकर्म कहते है। उपाकर्म को उपनयनं एवं उपनायाना भी कहते है। इस वर्ष 2023 में ऋग्वेद उपाकर्म 29 अगस्त दिन मंगलवार, यजुर्वेद उपाकर्म 30 अगस्त दिन बुधवार, गायत्री जापं 31 अगस्त दिन बृहस्पतिवार को मनाई जाएगी। सामवेद उपाकर्म 16 सितंबर शनिवार को मनाई जाएगी।
वैदिक परंपरा में भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक पथ का परिदर्शक श्रावणी उपाकर्म नामक यह पर्व वेद स्वाध्याय पर्व के रूप में मनाया जाता है। प्राचीन काल से ही स्वाध्याय भारतीय संस्कृति का प्रधान अंग रहा है। इसलिए ब्रह्मचारियों को आचार्य के अधीन रहकर वेदाध्ययन करते रहने का आदेश दिया गया है-आचार्याधीनो वेदमधीष्व। उनके स्नातक हो जाने पर उनको गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने पर भी स्वाध्याय करने के लिए आदेश दिया गया है – स्वाध्यायान्मा प्रमदः, स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । अर्थात- विद्याध्ययन कर चुकने के बाद भी स्वाध्याय करते रहना। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने वालों को भी स्वाध्याय का आदेश दिया गया है- स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्। अर्थात- सदा स्वाध्याय में युक्त रहे। संन्यासी को भी सब कुछ छोड़ देने, लेकिन वेद का स्वाध्याय नहीं छोड़ने का आदेश दिया गया है- संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत्। इस प्रकार श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी को स्वाध्याय में लगने का आदेश है।
श्रावण उपाकर्म के इस दिन नया यज्ञोपवीत धारण करने की परंपरा है। यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है। वे तीन ऋणों के प्रतीक हैं- ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। इसका उद्देश्य मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध कराना है। यज्ञोपवीत ज्ञान ग्रहण करने का बाह्य चिह्न है। इसीलिए इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण कर इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलने का हरसंभव प्रयास करेंगे और ज्ञानवान होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे। पूर्व से यज्ञोपवीत धारण कर चुके, कर रहे व्यक्तियों को पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। और इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे।
पौराणिक मान्यतानुसार भगवान बिष्णु ने श्रावण पूर्णिमा के दिन ही असुरों से वेदों के उद्धार के लिए हयग्रीव रूप में अवतार लिया था। हयग्रीव के इस अद्भुत अवतार में विष्णु का सिर घोड़े लेकिन धड़ अर्थात सम्पूर्ण शरीर मनुष्य का था। कथा के अनुसार असुरी शक्ति मधु और कैटभ ने वेद को भगवान ब्रह्मा से चुरा लिया था। इन असुरों से वेदों को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार लिया था। इसी दिन को ब्राह्मण उपाकर्म या अवनि अवित्तम के रूप में मनाते हैं। सावन महीने की पूर्णिमा के दिन कर्नाटक, आंध्रप्रदेश व उड़ीसा आदि दक्षिण के कुछ हिस्सों में उपाकर्म मनाया जाता है। कालांतर में आततायी मुगलों के आक्रमण से त्रस्त अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार इस दिन हुआ। इसमें कोई भी अबला किसी पुरुष के हाथ में राखी बांधकर उसे जीवन भर के लिए अपना भाई बना लेती है, और फिर वह भाई उस बहन को जीवन भर उसकी सहायता व रक्षा करने का आश्वासन देता है।
संसार की सर्वाधिक प्राचीनतम वैदिक संस्कृति समस्त विश्व को वरणीय है। आज भी समस्त विश्व के द्वारा गुणगान किया जाने वाला सभ्यता- संस्कृति भारतीय वैदिक संस्कृति ही है। यह भारतीय अर्थात वैदिक संस्कृति पूर्णतः संस्कृत पर अवलंबित है। भारतीयों के संस्कृत से नाता तोड़ दिए जाने के कारण भारत माता रूपी यह वसुंधरा हमसे रूठी हुई है। संस्कृत के छोड़ देने से हमारी वैदिक संस्कृति छूट गई, हमारी सनातन सभ्यता छूट गई, हमारा सत्य ज्ञान विज्ञान छूट गया। हमारा गौरवपूर्ण इतिहास छूट गया। भारतीय संस्कृति की प्राण संस्कृत भाषा ईश्वर वाणी, वेद वाणी, देव वाणी और समस्त भाषाओं की जननी है। संस्कृत ही वह भाषा है, जिसकी पूर्णतः वैज्ञानिक और ईश्वर द्वारा प्रदत्त अपनी ध्वनि व देवनागरी लिपि है। संस्कृत के बिना भारत की संस्कृति अधूरी है। संसार में सबसे अधिक साहित्य संस्कृत भाषा के हैं। सबसे अधिक शब्दों का भंडार संस्कृत भाषा का है।
परमेश्वर की वाणी वेद भी संस्कृत भाषा में ही है। बालक के पुष्ट होने और सम्पूर्ण विकास के लिए मातृ दुग्ध का स्तनपान अत्यावश्यक होने की भांति ही संस्कृत के बिना भारत, भारतीय व भारतीयता भी अपुष्ट व अधूरी है। इसीलिए वेद स्वाध्याय के इस महान पर्व पर संस्कृत के प्रचार प्रसार के लिए भारतीय मनीषियों के द्वारा श्रावण पूर्णिमा के दिन को विश्व संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। संस्कृत भाषा कठिन नहीं, अपितु अत्यंत सरल, मधुर, कर्णप्रिय बोलने में अति रुचिकर है। अत्यंत प्राचीन काल की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी इस देश में महाभारत काल के पश्चात आदि शंकराचार्य के काल तक तक सभी भारतीय आपस में संस्कृत में ही वार्तालाप किया करते थे।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अपने कार्य क्षेत्र में उतरने पर उनके व्याख्यान की भाषा भी संस्कृत हुआ करती थी। अर्थात भारत के लोग स्वामी दयानन्द के काल में भी अच्छी तरह से संस्कृत समझ लिया करते थे। लेकिन बाद में भारतीयों की वैदिक विद्या के कारण होती उन्नति से जलने वाले विदेशियों, विधर्मियों के शासनकाल में भारतीय संस्कृति के प्राण संस्कृत भाषा के पठन- पाठन, अध्यापन और प्रचार- प्रसार में भांति- भांति के अवरोध उत्पन्न किए गए। इनके पठन- पाठन के केंद्र गुरुकुल नष्ट कर शासकीय संरक्षण में प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को समाप्त कर दिया गया और नए ढंग के मदरसे, मकतब, कॉनवेंट स्कूल, कॉलेज स्थापित कर विदेशी शिक्षा का प्रचलन किया गया। जिसके कारण अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषा का देश में पदार्पण हुआ, और संस्कृत को भारतीय मानस के हृदय से मिटाने का, भुलाने का भरसक प्रयत्न किया गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वाधीन कही जाने वाली इस भारत में संस्कृत के प्राण बहुरने की उम्मीद थी, परंतु भारत विभाजन के बाद बने राष्ट्र के प्रभुओं ने भारतीय संस्कृति की प्राण वेदवाणी, देववाणी संस्कृत भाषा को मृतभाषा कहकर इसके प्रचार- प्रसार तो क्या इसके विधिवत शिक्षा को भी शासन- प्रसासन की मुख्यधारा से वंचित करने का हरसंभव प्रयास ही किया है। जिसके कारण संस्कृत भारतीयों के मानस पटल से दूर होती गई है। केंद्र की वर्तमान सरकार के द्वारा संस्कृत के पुनर्स्थापन के लिए संस्कृत के विश्वविद्यालय आदि खोलने की दिशा में अपनी उत्सुकता दिखलाये जाने जाने से कुछ उम्मीद बंधती है। इस प्रकार निःसंदेह ही श्रावणी उपाकर्म नामक यह पर्व भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक पथ का परिदर्शक है।