पिछले साल हिंदी के प्रख्यात लेखक एवम संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने इसलिए इस समारोह का बहिष्कार किया था कि उनसे आयोजकों ने पूछा था कि वे पहले सूचित करें कि वे मंच पर क्या बोलेंगे। लेकिन इस बार आइटम गर्ल को बुलाए जाने से विवाद अधिक है।… साहित्य के नाम पर मनोरंजन का मंच सजाने पर उस मंच की शोभा बढ़ाने की बजाय अगर लेखक जन आंदोलनों में शामिल हों और लेखन, पठन का अपना मंच सजाएं तो क्या वह ज्यादा बेहतर नहीं होगा?
पिछले कुछ दिनों से हिंदी साहित्य की दुनिया में हंगामा बरपा हुआ है। एक टीवी चैनल के साहित्यिक कार्यक्रम में लेखकों के साथ-साथ बॉलीवुड के सितारों को बुलाए जाने के कारण सोशल मीडिया पर यह हंगामा मचा हुआ है। इस बीच पिछले दिनों दो लेखक संगठनों के दो पदाधिकारियों ने इस्तीफा भी दे दिया, जिससे इस मामले ने अधिक तूल पकड़ लिया। एक लेखक के बारे में कहा जा रहा है कि उसने टीवी चैनल के साहित्योत्सव में जाने पर अपने मित्र लेखक द्वारा तंज किए जाने के कारण इस्तीफा दिया है।
जो लोग इस तरह के समारोहों में जा रहे हैं उनका तर्क है कि लेखकों को हर मंच पर जाना चाहिए और इस तरह जनता से जुड़ना चाहिए क्योंकि हमारे लेखक संगठन जनता से नहीं जुड़े हैं। इन लेखकों का कहना है कि हम किसी भी मंच पर जाएं लेकिन हमें अपनी बात खरी-खरी कहनी चाहिए। लेकिन जो लोग इस टीवी चैनल के साहित्योत्सव के विरोधी हैं उनका तर्क है कि अगर बॉलीवुड के लोगों को बुलाना है तो साहित्य की आड़ में यह क्यों किया जा रहा, इसे ‘साहित्य आज तक’ की बजाय ‘मनोरंजन आज तक’ के नाम से किया जाए।
आखिर साहित्य के जलसे में आइटम गर्ल को क्यों बुलाया जा रहा। उनका तर्क यह भी है कि इस तरह के टीवी चैनलों के मंच सांप्रदायिक लोगों द्वारा संचालित हैं और वह साहित्य को बाजार बनाने में लगे हुए हैं। इसलिए उनके मंच से उनके खिलाफ बात नहीं कहीं जा सकती और अगर किसी ने कहा भी तो उसका व्यापक असर नहीं होने वाला है क्योंकि ज्यादातर वक्ता बाजार के समर्थक ही हैं।
पिछले साल हिंदी के प्रख्यात लेखक एवम संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने इसलिए इस समारोह का बहिष्कार किया था कि उनसे आयोजकों ने पूछा था कि वे पहले सूचित करें कि वे मंच पर क्या बोलेंगे। लेकिन इस बार आइटम गर्ल को बुलाए जाने से विवाद अधिक है। अब हिंदी के लेखकों में ध्रुवीकरण भी हो गया है। लेखिकाओं में भी विभाजन हो गया है। एक वर्ग आइटम गर्ल को बुलाए जाने का समर्थक है तो एक वर्ग विरोधी। इस तरह साहित्य की दुनिया में इन दिनों उथल-पुथल अधिक है। हिंदी के लेखकों का एक धड़ा, जिनमें कुछ प्रगतिशील और कलावादी भी हैं, वह इस समारोह में भाग ले रहा है, जबकि एक धड़ा उसका लगातार विरोध कर रहा है।
भाग लेने वालों में पुरुषोत्तम अग्रवाल, अरुण कमल और गौहर राजा जैसे लोग हैं तथा बाबुषा कोहली, अनुराधा सिंह और लवली गोस्वामी एवम जोशना बनर्जी जैसी कवयित्रियां भी। कुछ साल पहले इसी टीवी चैनल के साहित्यिक कार्यक्रम में हिंदी के प्रगतिशील जनवादी कवि राजेश जोशी के भाग लेने पर काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। लेकिन इसके बावजूद जनवादी लेखक इस समारोह में जाते रहे। अब प्रगतिशील लेखक संगठन ने पिछले दिनों चंडीगढ़ में एक प्रस्ताव पारित कर कॉरपोरेट के समारोहों में भाग लेने से लेखकों को मना किया है। पर दो अन्य वाम लेखक संगठनों ने इस तरह का प्रस्ताव नहीं पारित किया है।
आखिर क्या कारण है कि इस तरह के आयोजन को लेकर हिंदी में तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है? पिछले 10-15 वर्षों से हिंदी में लिट् फेस्ट की संख्या काफी बढ़ी है और उनमें हिंदी के लेखक बुलाए जा रहे हैं। कहा यह जा रहा है कि जिन लोगों को लिट् फेस्ट में नहीं बुलाया जा रहा है वह अपनी कुंठा के कारण उसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन हिंदी जगत में कुछ ऐसे लेखक हैं, जो ऐसे मंचों पर कभी जाते ही नहीं। वह इन मंचों को तमाशाई, अगम्भीर, उत्सव धर्मी अधिक मानते हैं। इन मंचों से कायदे की कोई बात नहीं कहीं जा सकती है और न सुनी जा सकती है। लेकिन लेखकों का एक तबका यह कहता है कि हमें बाजार से परहेज नहीं करना चाहिए। आखिर हमारी किताबों को बाजार में ही बिकना है इसलिए अगर हम अधिक से अधिक बाजार तलाशेंगे तो अधिक पाठकों तक पहुंचेंगे।
शायद यही कारण है कि सोशल मीडिया पर आज का लेखक अपनी किताब का खुद प्रचार-प्रसार करता हुआ दिख रहा है। हिंदी में ऐसे भी लेखक हैं जो यह काम नहीं करते हैं और यह मानते हैं कि किताब का प्रचार-प्रसार करना प्रकाशक की जिम्मेदारी है ना कि लेखक की। इससे पहले हिंदी के लेखक अपनी किताबों का इस तरह प्रमोशन नहीं करते थे और प्रचार नहीं करते थे। यह सारी जिम्मेदारी पहले प्रकाशक की थी। ऐसे में लेखक प्रकाशक का यह काम क्यों कर रहे हैं?
दरअसल बाजार और पूंजी ने सब कुछ उलट-पुलट दिया है। पहले उसने राजनीति को अपने चंगुल में लिया, फिर मीडिया को लिया और अब साहित्य को अपने चंगुल में ले रहा है। पर यह भी सच है कि हिंदी के लेखक भी जनता से कट गए हैं और लेखक संगठन संकीर्ण और कट्टर होने के कारण दूसरी विचारधारा के लेखकों को अपने मंच पर नहीं बुलाते, अपनी पत्रिकाओं में नहीं छापते। इसलिए हिंदी में लेखकों का एक वर्ग इस बात की शिकायत करता रहा है कि आखिर वह किस मंच पर जाए और अपनी बात कहे। लेकिन इस पूरी बहस में एक बात उभर कर आ रही है कि लेखक भी पूंजी के इस खेल में फंस गया है। ऐसे में हिंदी के साहित्यकार क्या करें उनके पास कोई ऐसा बड़ा मंच नहीं है जहां से वे जनता से जुड़ सकें।
इस बहस में यह सवाल भी उठ रहा है कि अगर हिंदी के लेखकों को जनता से जुड़ना ही है तो वे किसान आंदोलन में क्यों नहीं जाते? वे मजदूर आंदोलन में क्यों नहीं भाग लेते? वे अपने मोहल्ले कॉलेज और स्कूलों में रचना पाठ की परंपरा को शुरू क्यों नहीं करते? किसी मीडिया समूह के साहित्य के नाम पर मनोरंजन का मंच सजाने पर उस मंच की शोभा बढ़ाने की बजाय अगर लेखक जन आंदोलनों में शामिल हों और लेखन, पठन का अपना मंच सजाएं तो क्या वह ज्यादा बेहतर नहीं होगा?