वैदिक ग्रंथों व वैदिक समाज के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में लोकतंत्र और गणतंत्रवाद के आद्य रूपों के अस्तित्व का प्रमाण उपस्थित है। इंद्र की अमरावती से लिच्छवियों की वैशाली तक हर काल में गणतंत्र और राजतंत्र, दोनों ही प्रकार के राज्य विद्यमान रहे हैं।
गणतंत्र की अवधारणा यूनान, यूरोपादि पश्चिमी देशस्थ पाश्चात्य ज्ञान की नहीं, अपितु भारत, भारतीय और भारतीयता के प्राण वेदों की देन है। पश्चिमी देशों के उदय के पूर्व ही लोकतंत्र भारत भूमि पर और सनातन वैदिक संस्कृति में अतिप्राचीन काल से ही मौजूद था। वेद, पुराणादि प्राचीन ग्रंथों में प्राप्य लोकतंत्र के संबंध में अंकित सूत्रों के अध्ययन करने से इस सत्य की पुष्टि ही होती है कि भारत भूमि ही गण, गणराज्य, गणतंत्र, व लोकतंत्र की जननी है। प्राचीन भारत में ही गण और गणतंत्र का जन्म अर्थात उदय और विकास हुआ है। यही कारण है कि अनेक विखंडन के बाद वर्तमान में भी भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना हुआ है। और वर्तमान में भी यहाँ प्रतिवर्ष 26 जनवरी को बड़े ही धूमधाम व हर्षोल्लास के साथ गणतंत्र दिवस का उत्सव मनाया जाता है।
संसार के आदिग्रंथ ऋग्वेद के कई सूक्तों में सभा और समिति का वर्णन अंकित है, जिसमें राजा के द्वारा मंत्री और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई निर्णय लिए जाने की बात कही गई है। अतिप्राचीन काल में देवताओं की राजधानी देवनगरी सुषा अर्थात अमरावती के राजा देवराज इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। वर्तमान के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति की भांति इंद्र नाम का एक पद होता था, जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था। वैदिक ग्रंथों में गण और गणतंत्र का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। कालांतर में राजतंत्रों का उदय हुआ और भारतीय लंबे समय तक राजतंत्र से शासित रहे। इस प्रकार, प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य का उल्लेख हुआ है -राजाधीन और गणधीन।
वैदिक ग्रंथों व वैदिक समाज के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में लोकतंत्र और गणतंत्रवाद के आद्य रूपों के अस्तित्व का प्रमाण उपस्थित है। इंद्र की अमरावती से लिच्छवियों की वैशाली तक हर काल में गणतंत्र और राजतंत्र, दोनों ही प्रकार के राज्य विद्यमान रहे हैं। राजशाही में भी राजा निर्वाचित होता था। इसे लोकतंत्र का प्रारंभ माना जाता है। इसमें राजा या सम्राट के बजाय शक्ति संकेंद्रण एक परिषद या सभा में निहित होती थी। इस सभा की सदस्यता जन्म के स्थान पर कर्म सिद्धांत पर आधारित थी, और इसमें अपने कार्यों से स्वयं को समाज में प्रतिष्ठापित, सम्मानित लोग शामिल होते थे। वर्तमान में प्रचलित विधायिकाओं की आधुनिक द्विसदनीय प्रणाली का भी स्पष्ट संकेत प्राचीन संस्था सभा के रूप में प्रतिष्ठित थी, जिसमें सामान्य लोगों का प्रतिनिधित्व होता था। नीति, सैन्य मामलों और सभी को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विचार- विमर्श करने के लिए विदथ का उल्लेख ऋग्वेद में शताधिक बार किया गया है। इन विचार परामर्श दात्री संस्थाओं में महिलाएँ और पुरुष दोनों भाग लेते थे।
त्रेतायुग के अंतकाल तक देव, असुर, राक्षस, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, मानव आदि के अलग-अलग राज्य बन गए थे। त्रेतायुग के अंतिम अवस्थता काल के लगभग हुए दशरथ पुत्र अयोध्याधिपति श्रीराम से संबंधित वर्णनों के लिए सर्वप्रसिद्ध व सर्वप्रचलित ग्रंथ वाल्मीकि रामायण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उस काल में वैदिक व्यवस्था अपने उतुंग शिखरावस्था में थी। लोग चार आश्रमों का पालन करते थे। कुटुम्ब की भावना और प्रजा की रक्षा का दायित्व उस काल के राजाओं पर होता था। श्रम विभाजन की दृष्टि से समाज चार भागों में विभाजित था। इसमें हर वर्ण की बातों को सम्मान मिलता था। प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को आश्रम में अध्ययन करने, जीवन यापन करने और वर्ण चयन करने की स्वतंत्रता थी।
रामायण में नौ महाजनपद का उल्लेख मिलता है- मगध, अंग (बिहार), अवन्ति (उज्जैन), अनूप (नर्मदा तट पर महिष्मती), सूरसेन (मथुरा), धनीप (राजस्थान), पांडय (तमिल), विन्ध्य (मध्यप्रदेश) और मलय (मलावार)। इन महाजनपद के अंतर्गत उप जनपद होते थे। महाभारत के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय न केवल हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ जैसे राज्य थे, बल्कि ऐसे क्षेत्र भी थे, जहाँ कोई राजा नहीं था, बल्कि एक गणतंत्र था। जरासंध और उसके सहयोगियों के राज्य को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में गणतंत्र को महत्व दिया जाता था। महाभारत काल में बड़े और छोटे सैकड़ों राज्य और उनके राजा थे। कुछ तो सम्राट होने का दावा करते थे, तो कुछ तानाशाह और अत्याचारी थे।
कुछ राक्षस सदृश्य असभ्य लोगों का झुंड भी था। लेकिन महर्षि पराशर, महर्षि वेद व्यास जैसे विद्वानों की धार्मिक देशनाओं से चलने वाले राज्यों में गणतांत्रिक व्यवस्था थी। महाभारत काल में अंधकवृष्णियों का संघ गणतंत्रात्मक था। उस काल में प्रमुखरूप से सोलह महाजनपद – कुरु, पंचाल, शूरसेन, वत्स, कोशल, मल्ल, काशी, अंग, मगध, वृज्जि, चेदि, मत्स्य, अश्मक, अवंति, गांधार और कंबोज थे। महाजनपदों के अंतर्गतलगभग दो सौ जनपद थे। छोटे जनपद भी थे। ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। यहां का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था।
विष्णु पुराण के अनुसार यहां पर लगभग 34 राजाओं ने राज किया था। पहले नभग और अंतिम सुमति थे। राजा सुमति मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे। बौद्धों के हीनयान और महायान दोनों ही साहित्यों में पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी के साथ ही अटल, अराट, मालव और मिसोई, बृजक, मल्लक, मदक, सोमबस्ती, कम्बोज आदि भारत के अनेक प्राचीन गणराज्यों की व्यवस्था के संबंध में व्यापक वर्णन प्राप्य हैं। वैशाली के पहले राजा विशाल को चुनाव द्वारा चुना गया था। बौद्ध और जैन ग्रंथों में तात्कालिक 16 शक्तिशाली राज्यों या महाजनपदों का वर्णन अंकित है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, महावस्तु के अनुसार बौद्ध काल में ये जनपद थे- अंग, अश्मक, अवंती, चेदि, गांधार, काशी, काम्बोज, कोशल, कुरु, मगध, मल्ल, मत्स्य, पांचाल, सुरसेन, वज्जि और वत्स। इसमें अवंतिका के राजा विक्रमादित्य का राज्य सबसे बड़ा गणतांत्रिक राज्य था। इसके बाद राजा हर्षवर्धन तक गणतंत्र का महत्व रहा।
कालांतर में भारत में अरब, तुर्क और फारसियों के आक्रमण के पश्चात परिस्थितियां बदलती गई। ग्रीक इतिहासकार डियोडोरस सिकुलस के लेख, पाणिनि की अष्टाध्यायी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र में भी प्राचीन भारतीय लोकतंत्रात्मक स्वरुप के संबंध में विस्तृत वर्णन अंकित हैं। पाणिनि ने अपनी व्याकरण अष्टाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया है, जिनकी शासन व्यवस्था जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी। और गण को महत्व दिया जाता था। लेकिन अत्यंत दुखद है कि वर्तमान काल में गण गौण हो गया है और तंत्र प्रधान। यद्यपि यह स्थिति हर काल में विद्यमान रहे हैं, परंतु वर्तमान में कुछ ज्यादा ही दृष्टिगोचर होते हैं। किसी को न्याय मिलता है और किसी को न्याय नहीं मिलता है। किसी को न्याय मिलता भी है तो वह तब तक उम्मीद खो चुका होता है अथवा स्वर्ग सिधार चुका होता है।
स्पष्ट है कि गण पर तंत्र हावी है। जिसके कारण चतुर्दिक अंधेरगर्दी मची है। भारतीयता भीड़तंत्र में परिवर्तित हो चुकी है। प्रांतवाद, जातिवाद, आरक्षण, मुफ़्त की लोकलुभावनी खैराती योजनाओं का लालच, देश से अलग होने की इच्छा रखने वाली भीड़तंत्र में परिवर्तित हो चुकी भारतीयता को राष्ट्रीय सोच में बदलने की आवश्यकता है, क्योंकि भीड़तंत्र और राजनीतिज्ञों के मनमानीतंत्र के कारण कानून विफल हो रहे हैं। लोग, नेता, पुलिस और सूचना, संचार तंत्र अपनी-अपनी मनमानी करने लगे हैं।
यह सारी गड़बड़ी गणतंत्र को वोट का आधार मान लिए जाने के कारण हो रही है। इसे बदले जाने की आवश्यकता है। निश्चत ही गणतंत्र को बनाए रखने की हम सभी की जिम्मेदारी है, क्योंकि गणतंत्र ही लोगों को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 107/108 में भारत में गण कहे जाने वाले गणराज्यों की विशेषताओं के बारे में विस्तृत वर्णन करते हुए कहा गया है कि एक गणतंत्र के लोगों में एकता होने पर ही गणतंत्र शक्तिशाली होता है, और उसके लोग समृद्ध होते हैं तथा आंतरिक संघर्षों की स्थिति में वे नष्ट हो जाते हैं।