मनुष्य कार्य करने में स्वतंत्र है और कार्य पर नियन्त्रण बुद्धि द्वारा ही हो सकता है। पुनर्जन्म के कर्मफल से सबकी बुद्धि समान नहीं होती। इसलिए आदि काल से ही दो प्रकार की प्रवृत्तियों के मनुष्य चले आते हैं- दैवी और आसुरी। इसका वैदिक काल के होने अथवा न होने से सम्बन्ध नहीं है। धर्म का सम्बन्ध पूर्वजन्म के संस्कारों एवं शिक्षा-दीक्षा से होता है। वेदों की भाषा को जानने और वेदार्थ को ठीक समझने से आचरण के ठीक होने का सम्बन्ध नहीं है। आचरण तो संस्कारों के अधीन चलता है।
वैदिक मतानुसार मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, परन्तु मनुष्य से इतर जीव-जन्तु कर्म करने में स्वतंत्र नहीं हैं। उनको जैसे-तैसे जीवन यापन करना पड़ता है। उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन का वे विचार नहीं कर सकते। इस कारण वे यम अर्थात परमात्मा की नियन्त्रण शक्ति के अधीन समझे जाते हैं। मनुष्य के पथ प्रदर्शन के लिए उसे वेद ज्ञान ईश्वरीय नियम से प्राप्त होता है। यह ज्ञान ऐसा नहीं जैसा कि गाय के गले में रस्सा डालकर ग्वाला उसे कहीं ले जाए। यह प्रेरणारूप ही है। इसे मानना अथवा न मानना मनुष्य के अपने अधिकार में है, परन्तु अपने स्वतन्त्रता से किए कर्म का फल वह भोगता है।
श्रीमद्भगवद्गीता 3/5 के अनुसार मनुष्य एक क्षण के लिए भी कर्म के बिना नहीं रह सकता। वह प्रकृति (जिसमें उसका संयोग हुआ है) के गुणों से विवश हो कर्म करता है। वैदिक मीमांसा भी यही है। इसके साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता 2/49 के अनुसार बुद्धि के योग (सहाय) से किया कर्म अत्यन्त दूर है (सामान्य) कर्म से। अतः बुद्धि की शरण को ग्रहण करो क्योंकि फल से प्रेरित हो किया कर्म अत्यन्त हीन है। अभिप्राय यह है कि कर्म किए बिना कोई नहीं रह सकता। इस कारण सोच-विचार कर कर्म करना चाहिए। फल अर्थात विषयों की प्रेरणा से किया कर्म बहुत ही हीन फल वाला होता है।
प्रह्लाद को पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन जन्म-मरण, कर्म फल की मीमांसा का ज्ञान हो गया। हिरण्यकशिपु की मृत्यु के बाद वह राजा भी बना, परन्तु प्रेरणा का स्रोत अर्थात वेद के विद्वानों को वह अपने देश में ला नहीं सका। दैत्यों का पुरोहित शुक्राचार्य कहलाता था। शुक्राचार्य एक पद का नाम है, यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। जो कर्म की महिमा को तो जानता है, परन्तु कर्म-अकर्म में भेद करने के लिए बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकता अथवा परमात्मा और उसके ज्ञान की प्रेरणा की अवहेलना करता है, ऐसा आचार्य मिथ्या पथ-प्रदर्शन ही करता है। ऐसे ही थे दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्य। परमात्मा ने मनुष्य के पथ-प्रदर्शन के लिए उसे बुद्धि दी है। इसलिए कर्म अथवा कर्म बतलाने वाले किसी भी ग्रन्थ की परख सदा बुद्धि से होती रहे तो मनुष्य भटक भी जाए, परन्तु अन्त में सत्य मार्ग पा ही जाता है।
इसी कारण वैदिक विद्वानों ने कहा है कि वेदार्थ भी तर्क से सिद्ध होने चाहिए। सदा अर्थों को तर्क की कसौटी पर कसते रहने वाला कभी भूल भी करता है, तो अपनी भूल को सुधारने का मार्ग सदैव खुला रखता है। प्रह्लाद ने पिता के विरूद्ध विद्रोह तो किया, परन्तु पिता को मिथ्या प्ररेणा देने वाले शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाए रखा। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रह्लाद का पुत्र विरोचन पुनः अनीश्वरवादी हो गया। विरोचन का पुत्र बलि हुआ। बलि का पुत्र बाण हुआ। बाण महान असुर था। महाभारत आदि पर्व 65-20 के अनुसार बाण महान असुर था।- बलेश्च प्रथितः पुत्रो बानो नाम महासुरः।
इसका कारण उनके संस्कार ही थे। कश्यप-दिति वंश को शुक्राचार्य गुरु मिल गये। शुक्राचार्य भौतिकवादी था, वह सब कुछ प्रकृति से ही, स्वभाववश उत्पन्न हुआ मानता था। हिरण्यकशिपु शुक्राचार्य का शिष्य था, जो नास्तिक और साथ ही दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हुआ। अनीश्वरवादी अथवा वे ईश्वरवादी, जो दिखावे के लिए ही परमात्मा को मानते हैं, वे ही प्रकृति से दुष्ट हो सकते हैं। फिर भी यह आवश्यक नहीं कि अनीश्वरवादी अधर्माचरण करने वाला ही हो। यद्यपि परमात्मा को स्वीकार न करने वाले जब वैभव सम्पन्न होते हैं, तो कर्तव्याकर्तव्य में भेद भूल जाते हैं, कारण यह है कि कर्तव्य का पालन करने में कुछ उद्देश्य नहीं रह जाता। जब तक मनुष्य हीन और दीन रहता है, तब तक वह अपने से बलशाली सांसारिक जीवों से भयभीत दूसरों के साथ धर्मयुक्त व्यवहार रखता है, परन्तु जब वह सांसारिक वैभव से युक्त हो स्वयं बलवान बन जाता है तब उसका अनीश्वरवादी होना उसे उलटे मार्ग पर ले जाने में सफल हो जाता है।
ठीक यही बात हिरण्यकशिपु के साथ हुई थी। वह शक्ति से युक्त होकर जब प्रचण्ड बल का स्वामी हुआ, तो फिर उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराने वाला कोई नहीं था। परमात्मा नहीं, तो वेद भी नहीं, वेद नहीं तो उसमें वर्णित श्रेष्ठ व्यवहार भी नहीं। बलशाली होने पर परमात्मा तथा कर्मफल और पुनर्जन्म के ही विचार हैं, जो मनुष्य को सन्मार्ग पर आरूढ़ रख सकते हैं अर्थात आस्तिक्य (आस्तिकता) शक्तिशाली मनुष्यों को धर्मयुक्त मार्ग पर आरूढ़ रहने में सहायक होता है। यही बात प्रह्लाद के सन्तान के साथ हुई थी। प्रहलाद अपने पूर्वजन्म के कर्मफलों से तथा गर्भावस्था में माँ से सुने नारद मुनि के उपदेशों से, परमात्मा पर अगाध विश्वास रखने वाला हो गया था। प्रह्लाद की सन्तान विरोचन और बलि तो कुछ ठीक मार्गों पर चलते रहे, परन्तु बाण पुनः नास्तिक हो गया। विरोचन ने आदित्यों के राजा इन्द्र पर आक्रमण कर दिया था। इन्द्र ने विरोचन को अपने प्रासाद में घुसने तक नहीं दिया।
विरोचन के आक्रमण का कारण यही था कि दैत्यों की कन्या लक्ष्मी दैत्यों का देश छोड़कर आदित्यों के पास चली गई थी। वहाँ उसका विवाह विष्णु से हो गया। इससे चिढकर विरोचन ने आदित्यों पर आक्रमण कर दिया। विरोचन के पराजित हो जाने पर शुक्राचार्य ने विरोचन और उसके पुत्र बलि को शक्ति-संचय करने की सलाह दी। बलि ने शक्ति-संचय कर देवलोक पर आक्रमण कर दिया। तब तक आदित्य आलस्य एवं प्रमादवश दुर्बल हो चुके थे। इस कारण बलि के देवलोक पर आक्रमण करने के कारण इन्द्रादि आदित्यों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा। कहा जाता है कि बलि ने तीनों लोकों में राज्य स्थापित कर उन लोगों का दोहन आरम्भ कर दिया था। इसका अभिप्राय यह हुआ कि समाज में ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य ही उपजाऊ कार्य करते हैं और बलि ने समाज के इन तीनों अंगों पर अपना आधिपत्य कर लिया था।
इनका अर्जित पूर्ण धन लेकर वह यज्ञों में दान कर देता था। आदित्यों में एक अति ओजस्वी और चतुर कुमार था- वामन। उसने आदित्यों का राज्य बलि से वापस लेने के लिए एक योजना बनायी और बलि के यज्ञ में जा पहुँचा। उसके ओजस्वी स्वरुप को देख बलि अत्यन्त प्रभावित हुआ। बलि यज्ञ में वामन को दक्षिणा देने लगा तो वामन ने कहा कि वह धन-दौलत, रजत, स्वर्ण इत्यादि नहीं लेना चाहता। ये वस्तुएँ उसके उपयोग की नहीं हैं। वह तो तीन पग भूमि माँगता है। यज्ञ में दान देने को वचनबद्ध जब बलि तैयार हुआ तो वामन ने तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की मुक्ति माँग ली। इसे ही पुराणों में तीन पग भूमि कहा है। जैसे भूमि सब सम्पति का उद्गम स्थान है, इसी प्रकार समाज का पूर्ण धन इन तीनों वर्णों की उपज ही है। बलि इस दान के देने में हिचकिचाहट करने लगा, परन्तु दिए वचन का उसने पालन किया और भूमण्डल के तीनों वर्ण स्वतंत्र हो अपने कर्मों का स्वयं भोग करने लगे।
यह भारतीय परम्परा में लिखा इतिहास है और आज के इतिहास की भाषा में यह आदि वैदिक काल की कथा है। कारण यह ही कि कश्यप इत्यादि अमैथुनीय सृष्टि के जीव थे और बलि कश्यप की चौथी पीढ़ी में ही हुआ था। उस समय तक लगभग दो सौ वर्ष ही सृष्टि को हुए व्यतीत हुए होंगे। इसलिए तब तक वैदिक काल ही चल रहा था। फिर भी सब के सब व्यक्ति वेद विचार को स्वीकार नहीं करते थे। वामन ने भी दान माँगने में चतुराई का प्रयोग किया था। सामान्य भाषा में इसे छलना कहा जा सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी मनुष्य वैदिक शिक्षा को अस्वीकार करने वाले हुए थे। यह इस कारण कि मनुष्य कार्य करने में स्वतंत्र है और कार्य पर नियन्त्रण बुद्धि द्वारा ही हो सकता है। पुनर्जन्म के कर्मफल से सबकी बुद्धि समान नहीं होती। इसलिए आदि काल से ही दो प्रकार की प्रवृत्तियों के मनुष्य चले आते हैं- दैवी और आसुरी। इसका वैदिक काल के होने अथवा न होने से सम्बन्ध नहीं है। धर्म का सम्बन्ध पूर्वजन्म के संस्कारों एवं शिक्षा-दीक्षा से होता है। वेदों की भाषा को जानने और वेदार्थ को ठीक समझने से आचरण के ठीक होने का सम्बन्ध नहीं है। आचरण तो संस्कारों के अधीन चलता है।