परदे से उलझती ज़िंदगी
आखिरकार शाहरुख खान की ‘जवान’ दुनिया भर में बॉक्स ऑफ़िस पर ग्यारह सौ करोड़ से ऊपर जुटा कर ‘पठान’ से आगे निकल गई। वह देश में छह सौ करोड़ को पार करने वाली पहली हिंदी फिल्म बन गई है और अमेरिका व मध्य-पूर्व में भी उसने हिंदी फिल्मों के पिछले तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। कोरोना के बाद ‘ब्रह्मास्त्र’ से दर्शकों के थिएटरों पर लौटने की जो शुरूआत हुई थी वह अब आगे बढ़ कर बॉलीवुड के हौसलों और उसकी आशावादिता को सहलाती लग रही है। यह खास कर तीन फ़िल्मों की बदौलत हुआ। किसी ने सिनेमाघर में मोबाइल से उनकी कॉपी करके यूट्यूब पर डाल दी, तब भी दर्शकों की आमद पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वे न केवल फ़िल्म देखने आए, बल्कि संवादों पर सीटों से उछले, शोर मचाया, तालियां बजाईं और गीतों पर डांस किया। वे यशराज फ़िल्म्स के स्पाई यूनिवर्स की ‘पठान’ के एक्शन पर भी हंगामा मचा रहे थे, अनिल शर्मा की ‘गदर 2’ में पाकिस्तानियों के खिलाफ सनी देओल की दहाड़ पर भी आसमान सिर पर उठा रहे थे और ‘जवान’ में अत्याचारों के प्रतिशोध और व्यवस्था व सत्ता विरोधी संदेशों पर भी हर्षित हो रहे थे।
किसी फ़िल्मकार के पास अपनी फ़िल्म को हिट कराने का कोई अचूक फॉर्मूला नहीं है। किसी को नहीं मालूम कि दर्शकों को कौन सी फ़िल्म पसंद आएगी और क्यों। लेकिन एक बार पसंद आ गई तो फिर उस फ़िल्म को चलाने के लिए किसी राजनीतिक अभियान या किसी प्रधानमंत्री की अपील की ज़रूरत नहीं पड़ती। यहां तक कि उस फ़िल्म के विरुद्ध चलाए गए अभियान भी निकम्मे साबित होते हैं। लेकिन कोई पूछ सकता है कि क्या इन तीनों फ़िल्मों के दर्शक समान हैं? नहीं, कुछ अलग भी हैं, पर दर्शकों का ज्यादातर हिस्सा वही है जो हर बड़ी फिल्म की रिलीज़ के साथ थिएटरों पर धावा बोलता है। तो क्या वे केवल मज़े या टाइमपास या मस्ती के लिए फ़िल्म देखने आ रहे हैं? क्या उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई फ़िल्म उनसे क्या कहना चाहती है?
आम तौर पर फ़िल्मों का अनुभव यह रहा है कि उनमें जो कुछ मूर्त है यानी जो कुछ दिख रहा है उसका असर लोगों पर तुरंत पड़ता है। मसलन, उनमें दिखाए जाने वाले कपड़ों, फ़ैशन और स्टाइल की लोग तत्काल नकल करने लगते हैं। कई बार तो अपराध भी फ़िल्मों को देख कर किए जाते हैं। मगर फ़िल्म के वास्तविक कथ्य को लोग अनछुआ, अनसुना और भविष्य के लिए विचाराधीन छोड़ देते हैं। तब न तो उन्हें ‘सत्यप्रेम की कथा’ में बताए गए शारीरिक संबंधों में लड़की के इन्कार के महत्व से कुछ लेना-देना रहता है और न ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ के पितृसत्तात्मक मानसिकता और लैंगिक भेदभाव के प्रति विरोध से। लोग इन मुद्दों की तारीफ़ करते तो मिलते हैं, लेकिन निजी ज़िंदगी में इस बाबत खुद अपनी राह नहीं बदलते। ऐसे दर्शकों से क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि वे ‘जवान’ के संदेशों को याद रखेंगे?
‘जवान’ में जो कुछ कहा गया है उन्हें बहुत से लोग उन घटनाओं से जोड़ते हैं जो पिछले कुछ समय में शाहरुख के जीवन में घटी हैं। इससे नतीजा निकाला गया कि शाहरुख ने फ़िल्म के बहाने जान-बूझ कर ये संदेश दिए हैं। मगर निर्देशक एटली का दावा है कि ‘जवान’ के हीरो ने जो राजनीतिक संदेश दिए हैं वे शाहरुख का नहीं बल्कि उनका योगदान हैं। हाल में एक कार्यक्रम में एटली ने कहा कि मैं बिना किसी संदेश के भी दर्शकों का मनोरंजन कर सकता हूं, लेकिन तब शायद मुझे लगेगा कि मैं अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहा हूं।
एटली ने पिछले दस साल में कुल सात फ़िल्में निर्देशित की हैं जो कि सभी हिट रही हैं। ‘जवान’ से पहले उनकी बनाई छह तमिल फ़िल्मों में भी राजनीतिक पहलुओं को छुआ गया था। वैसे भी हिंदी फ़िल्मों के मुकाबले दक्षिण की फ़िल्में सामाजिक और राजनीतिक तौर पर ज़्यादा सचेत, सक्रिय और ज़िम्मेदार रही हैं। शायद इसलिए भी कि वहां अक्सर लोग वास्तविक जीवन में नेता और परदे पर हीरो, दोनों स्वरूपों में एकसाथ प्रतिष्ठित होते रहे हैं। एटली का कहना था कि मैं जानता हूं कि आज के मुद्दे क्या हैं और एक लेखक व निर्देशक के तौर पर हमेशा सोचता हूं कि इनके बारे में क्या किया जा सकता है। फिर भी वे स्वयं को व्यवस्था विरोधी निर्देशक मानने से इन्कार करते हैं। इसकी बजाय वे खुद को आम आदमी मानते हैं। उन्होंने कहा कि ये संदेश असल में मेरी आवाज़ हैं, एक सामान्य व्यक्ति अथवा एक आम आदमी की आवाज़।
जवान के ‘संदेश’ वास्तव में देश के आम लोगों से जुड़ा मामला हैं। किसानों को कर्ज़ में सख़्ती और उद्योगपतियों को राहत, किसी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौतें आदि। ये हमारे यथार्थ के हिस्से हैं। फ़िल्म कहना चाहती है कि हमारी व्यवस्था में गरीब के लिए कोई जगह नहीं। मगर फ़िल्म में इन समस्याओं का जैसा समाधान दिखाया गया है वह निहायत अवास्तविक, फ़िल्मी और घोर हिंसा से भरा हुआ है। देश के आम लोगों की समस्याओं का निवारण इस तरह करना किसी छलावे से ज़्यादा कुछ नहीं है।
अगर शाहरुख इन मुद्दों पर सचमुच गंभीर थे तो उन्हें विलेन, उससे बदला लेने, सब कुछ ठीक कर देने वाले हीरो और नाच-गाने में लपेट कर क्यों दिखाया गया? उन्होंने केवल उन्हीं मुद्दों पर कोई कहानी क्यों नहीं तय की? ऐसा करने पर इन मुद्दों को पूरे विस्तार से दिखाया जा सकता था। उस स्थिति में उन्हें फ़िल्म में भाषण देने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। लेकिन तब उन्हें अपना स्टारडम त्यागना पड़ता। और ख़तरा यह भी था कि शायद फ़िल्म पास ही नहीं होती। हो भी जाती तो इतनी बड़ी संख्या में लोग इसे देखने नहीं आते। रेड चिलीज़ का सारा प्रयास ही धरा रह जाता। इस सबसे वोट देते समय अपनी उंगली का इस्तेमाल सोच-समझ कर करने और वोट मांगने वाले से सवाल पूछने की नसीहत महज़ फ़िल्मी लगने लगती है। कितनी दिलचस्प बात है कि वोट देने में सावधानी बरतने की बातें हमारे वे नेता भी करते हैं जो खुद उन सवालों पर खरे नहीं उतरते।
इसीलिए इस फ़िल्म में उठाए गए सवालों का थिएटर के बाहर उतना भी असर दिखाई नहीं पड़ता जितना 2010 में ‘पीपली लाइव’ के रघुवीर यादव के गाए ‘महंगाई डायन खाए जात है’ वाले गीत का हुआ था। आमिर खान की बनाई वह फ़िल्म एक डार्क कॉमेडी थी जिसकी कहानी ग्रामीण गरीबी और किसानों की आत्महत्या से प्रेरित थी। फिर भी, एक वर्ग है जो मानता है कि देश के ज़रूरी मुद्दों पर हमेशा चुप रह जाने वाले हमारे फ़िल्म उद्योग ने ‘जवान’ के ज़रिये कुछ तो कहा है। लोग वोट देते समय चाहे इसके संदेश को याद नहीं रखें, लेकिन यह अपने आप में बड़ी बात है कि कोई बड़ा स्टार ऐसा संदेश दे रहा है। कोई माने या नहीं, हमें अपनी बात कहनी चाहिए।
यह भी दिलचस्प है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के नेताओं ने ‘जवान’ के संदेशों को अपने-अपने पक्ष में और दूसरे के खिलाफ़ बताया है। इस पर एटली ने कहा कि मैं किसी का नाम नहीं ले रहा, लेकिन आपको एक नागरिक के तौर पर जिम्मेदार होना होगा। आपको अपने वोट की कीमत पता होनी चाहिए। यह भी पता होना चाहिए कि किसे और किस आधार पर वोट देना है। यह बेहद सामान्य सी चीज़ है। हमने तो बस इसकी याद दिलाई है। उन्होंने कहा कि फ़िल्म के अंत में शाहरुख का भाषण आज से सौ बरस बाद भी प्रासंगिक रहना चाहिए। वे स्पष्ट करते हैं कि कोई कोच जब किसी खिलाड़ी को समझाता है कि बॉलिंग कैसे करनी है तो वह केवल अगले मैच के लिए नहीं है, वह तो पूरी ज़िंदगी के लिए है।
‘जवान’ से एटली को लोग देश भर में जानने लगे हैं जबकि शाहरुख खान की लोकप्रियता को उसने और पुष्ट किया है। इस फ़िल्म के संदेशों में ऐसा कुछ ज़रूर है कि एटली को यह कहना पड़ा कि ये उनके विचार हैं, शाहरुख के नहीं। मानों वे किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले रहे हैं। मान लीजिए कि एटली सही कह रहे हैं तो फिर शाहरुख से फ़िल्म में यह कहलवाने की क्या ज़रूरत थी कि बेटे को हाथ लगाने से पहले बाप से बात कर। क्या एटली नहीं जानते थे कि इस वाक्य पर क्या सोचा जाएगा? और शाहरुख भी इसलिए यह सब बोलने को तैयार हो गए कि स्क्रिप्ट में लिखा है और निर्देशक कह रहा है? क्या वे भी नहीं जानते थे कि इस संवाद का क्या अर्थ निकलेगा, जबकि वे फ़िल्म के निर्माता भी हैं। जाहिर है कि दोनों ने विचार करके आपसी सहमति से ये संदेश फ़िल्म में रखने का निर्णय लिया होगा।