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‘जवान’ के संदेश – राजनीतिक या व्यावसायिक?

पठान’ से भी लोगों को कुछ नहीं मिला था, फिर भी वह हिट रही थी। सेलीब्रेशनों के इस दौर में लोग ‘जवान’ को देखने इसलिए जा रहे हैं कि शाहरुख की फिल्म को सेलीब्रेट कर सकें। वे कोई इसके राजनीतिक संदेशों के कारण सिनेमाघरों में डांस नहीं कर रहे। उन्हें इन संदेशों की उम्मीद भी नहीं थी। ये तो उनके लिए अतिरिक्त मनोरंजन की तरह आए हैं। इन्हें वे कभी वास्तविक जीवन में नहीं उतारने वाले। यह बात शाहरुख भी जानते हैं। ….यह ज़रूर है कि जिस दीवानगी और तादाद में लोग ‘जवान’ को देखने उमड़े हैं वह शाहरुख को बॉलीवुड में सर्वोच्चता की ओर कुछ कदम और आगे ले जाएगा।

परदे से उलझती ज़िंदगी

एक तरफ़ शाहरुख खान के प्रति ज़बरदस्त दीवानगी का आलम है। सिनेमाघरों के भीतर लोग डांस कर रहे हैं और बाहर भीड़ पटाखे चला रही है। शाहरुख के कटआउट का दुग्धाभिषेक हो रहा है। उनके कुछ फ़ैन क्लब भी बन गए हैं जिनके सदस्य अपने बैनरों के साथ नारे लगाते हुए सुबह-सुबह सिनेमाघरों पर पहुंचे। यह नज़ारा दक्षिण जैसा है जहां हर बड़े स्टार के सैकड़ों फ़ैन क्लब हैं जो उसका झंडा उठाए रखते हैं। पता नहीं ये क्लब शाहरुख से पूछ कर बने हैं या नहीं, लेकिन दक्षिण में स्टार इन क्लबों के संपर्क में रहते हैं और अपना जलवा बनाए रखने के लिए उनके जरिये सोशल वर्क भी करते हैं। शाहरुख की कंपनी रेड चिलीज़ का निर्माण होने के बावजूद इस फिल्म पर दक्षिण का प्रभाव ज़्यादा है। दीपिका पादुकोन, संजय दत्त, सान्या मल्होत्रा, सुनील ग्रोवर आदि की उपस्थिति के बावजूद नयनतारा, विजय सेतुपति और प्रियामणि की प्रमुख भूभिकाएं और लेखन-निर्देशन की एटली कुमार की शैली ‘जवान’ को दक्षिण की ओर खींचती लगती हैं।

दूसरी ओर, इस फ़िल्म के राजनीतिक कलेवर वाले संदेश हैं। ‘जवान’ अपने देश के सिस्टम की अनेक कमज़ोरियां गिनाती है, जिनमें छोटे से क़र्ज़ के लिए किसानों को परेशान किए जाने और उनकी आत्महत्याओं के साथ उद्योगपतियों के कर्ज़ माफ़ कर दिए जाने का भी ज़िक्र है। यह भी कि नेता और कारोबारी कैसे देश को लूट रहे हैं। नेता अपना इलाज प्राइवेट अस्पतालों में कराते हैं जबकि गरीबों के लिए दयनीय सरकारी अस्पताल हैं। यह फिल्म अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी, ईवीएम भी चोरी और बेरोज़गारी जैसे कई मुद्दे उठाती है। एक संवाद कहता है कि हालात बदलते हैं क्योंकि कुछ लोग मैदान छोड़ कर भागने से इन्कार करते हैं। ख़त्म होने से कुछ मिनट पहले फ़िल्म अपने शिखर बिंदु पर पहुंचती है जहां शाहरुख बाकायदा जनता को संबोधित करते हुए अपील करते हैं कि धर्म और जाति के नाम पर वोट नहीं दें। अपने वोट की कीमत समझें। वोट मांगने वालों से पूछें कि वह हमारे बच्चों की शिक्षा, हमारे इलाज और बेरोज़गारी के लिए क्या करेगा। देश के लिए क्या करेगा। इस भाषण में शाहरुख कहते हैं कि जिस उंगली से आप वोट देते हैं उसी उंगली को उठा कर वोट मांगने वालों से ये सवाल पूछिए।

सोशल मीडिया पर बहुत से लोग इन संदेशों से आह्लादित हैं। वे मान रहे हैं जैसे शाहरुख ने अपने साथ बीती घटनाओं का बदला लेने के लिए सरकार पर कटाक्ष किया है। लेकिन ध्यान रखें, फिल्मों में नेताओं, मंत्रियों या सरकार को भ्रष्ट दिखाने से कभी और कहीं कुछ नहीं बदलता। ऐसा संभव होता तो फ़िल्में बदलाव का सबसे बड़ा औज़ार बन जातीं। दक्षिण में वैसे भी राजनीति और फिल्मों के बीच भारी घालमेल है। वहां की हर दूसरी फिल्म भ्रष्ट सिस्टम और नेताओं के विरुद्ध कोई कहानी लेकर आती है। वैसा ही ‘जवान’ में है। और यह केवल फ़िल्म को चलाने के लिए है। जिन्हें लगता है कि शाहरुख सरकार को निशाना बना रहे हैं उन्हें नए संसद भवन के उद्घाटन के समय उसका महिमा मंडन करने वाले उस वीडियो को याद करना चाहिए जिसमें शाहरुख का वॉयस ओवर था। इसलिए इस फ़िल्म को शाहरुख का एक्टिविज़्म समझना एक भूल होगी।

तीसरी तरफ़ ऐसे लोग हैं जिन्हें ‘पठान’ और ‘गदर 2’ की तरह ‘जवान’ भी नितांत साधारण फ़िल्म लगी जो दर्शकों को कुछ नहीं देती। मगर यह कोई पोस्टरबाज़ी वाली फ़िल्म नहीं है जो यह सोच कर बनाई गई हो कि फ़िल्म पिट भी जाए तो कोई बात नहीं, हमने तो अपनी बात कह दी। यह पूरी तरह एक कमर्शियल फ़िल्म है जिसकी तमाम मुद्राएं, तरकीबें और तिकड़में केवल कमाई के लिए हैं। इसलिए इसमें नाटकीय तरीके से जो राजनीतिक संदेश दिए गए हैं उन्हीं को शाहरुख और एटली की बहादुरी समझिए। दूसरी फिल्मों में तो इतना भी नहीं होता। ध्यान रहे, ‘पठान’ से भी लोगों को कुछ नहीं मिला था, फिर भी वह हिट रही थी। सेलीब्रेशनों के इस दौर में लोग ‘जवान’ को देखने इसलिए जा रहे हैं कि शाहरुख की फिल्म को सेलीब्रेट कर सकें। वे कोई इसके राजनीतिक संदेशों के कारण सिनेमाघरों में डांस नहीं कर रहे। उन्हें इन संदेशों की उम्मीद भी नहीं थी। ये तो उनके लिए अतिरिक्त मनोरंजन की तरह आए हैं। इन्हें वे कभी वास्तविक जीवन में नहीं उतारने वाले। यह बात शाहरुख भी जानते हैं। कोई भी अगली हिट फ़िल्म इन संदेशों को विस्मृति में धकेल देगी।

यह ज़रूर है कि जिस दीवानगी और तादाद में लोग ‘जवान’ को देखने उमड़े हैं वह शाहरुख को बॉलीवुड में सर्वोच्चता की ओर कुछ कदम और आगे ले जाएगा। उन्होंने इसमें दोहरी भूमिकाएं की हैं जिनमें से एक पात्र पूर्व सैनिक का है जबकि दूसरा लड़कियों का एक गैंग बना कर देश भर में अमीरों को लूटता फिरता है ताकि गरीबों की मदद की जा सके। यानी अपने-अपने तरीके से देश को ठीक करने की लड़ाई चल रही है जिसे शाहरुख सात अलहदा रूपों और अपने रूढ़ हो चुके मैनेरिज़्म के साथ लड़ते हैं। कहानी में ऐसे कई हिस्से हैं जिन्हें हम दूसरी फ़िल्मों में भी देख चुके हैं। पुलिस अफ़सर बनीं नयनतारा के लिए यह फ़िल्म बॉलीवुड के रास्ते खोल सकती है। हथियारों के एक बड़े सौदागर की भूमिका में विजय़ सेतुपति को पर्याप्त समय नहीं दिया गया। फ़िल्म पूरी तरह शाहरुख खान पर निर्भर है। दो-तीन महीनों में उनकी इस साल की तीसरी फ़िल्म ‘डंकी’ रिलीज़ होने वाली है जिसके निर्देशक राजकुमार हीरानी हैं। और ‘पठान’ की तरह अगर ‘जवान’ ने भी कमाई का कोई बड़ा रिकॉर्ड बनाया तो निश्चित रूप से हीरानी दबाव में आ जाएंगे।

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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