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धर्म नीचे, मूर्ति ऊपर!

धर्म नीचे, मूर्ति ऊपर!

संघ-भाजपाई बच्चों से भी हल्का व्यवहार करते हैं। बच्चे तो शिक्षक की भावना समझ लेते हैं, किन्तु संघ-परिवार के नेतागण दशकों बाद भी संवेदनहीन हैं। पीढ़ियों, नेताओं के बदलने पर भी उन में कुछ नहीं बदलता। वे राजनीतिक तिकड़मों के बाद भावनाओं, लफ्फाजी, और तमाशों के सिवा किसी चीज को महत्व नहीं देते।….सच यह है कि आगे हिन्दू समाज बचेगा भी या नहीं, वे इस से बेपरवाह हैं। अपने कथित राष्ट्रवादके लिए उन की एक ही लालसा है, कि उन के दल, संगठन, और नेताओं का नाम जैसे भी ऊपर रहे। मानो किसी नीम-हकीम की लालसा हो कि मरीज जिए या मरे, मगर उसे छोड़ किसी के पास न जाए!

हिन्दू समाज मानो भोला बालक है, जिस का हाथ सस्ते झुनझने से भर जाता है। उसी से वह खुश हो जाता है। जिस का लाभ उठाकर उस के नेता उसे बेवकूफ बनाते रहते हैं। यह कहना है हिन्दुओं के अनन्य हितैषी डॉ. कूनराड एल्स्ट का। उन के विचार से, हिन्दुओं में असली छोड़ कर नकली, और मजमून के बदले लिफाफे पर मोहित होने की प्रवृत्ति है। हालिया वर्षों में हिन्दू नेताओं पर बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ खड़ी करने की धुन चढ़ गई है। उस में सुरुचि और सौंदर्यबोध का भी अभाव है।

अतः उन मूर्तियों का लाभ उन को बनाने में लगे मजदूरों, मैनेजरों, आदि को मिले रोजगार के सिवा शायद ही कुछ है। ऐसी मूर्तियाँ लगवाने वालों में शंकर, या रामानुज की शिक्षा का लेश भी नहीं झलकता। इस बीच उन्हीं ज्ञानियों की भक्ति करने वाला समाज सिकुड़, अपमानित और नष्ट हो रहा है। लेकिन यह उन नेताओं और दलों की चिन्ता नहीं। बल्कि, इस कटु तथ्य को देखने में भी उन्हें संकोच है!

इन बिन्दुओं पर ध्यान दिलाने के लिए संघ-भाजपाई समर्थक नाराज होते हैं। पर कूनराड अपने को उस स्कूली शिक्षक जैसे देखते हैं, जो बच्चों की कॉपी में गलतियों पर लाल चिन्ह लगाता है। क्योंकि उन का हितैषी है। किन्तु संघ-भाजपाई बच्चों से भी हल्का व्यवहार करते हैं। बच्चे तो शिक्षक की भावना समझ लेते हैं, किन्तु संघ-परिवार के नेतागण दशकों बाद भी संवेदनहीन हैं। पीढ़ियों, नेताओं के बदलने पर भी उन में कुछ नहीं बदलता। वे राजनीतिक तिकड़मों के बाद भावनाओं, लफ्फाजी, और तमाशों के सिवा किसी चीज को महत्व नहीं देते।

शंकर या रामानुज का ही उदाहरण लें, तो विशाल मूर्तियों के उत्सवों से वे जितने खुश होते हैं, उतने ही उन महान आचार्यों की सीख से बेपरवाह हैं। यदि उन सीखों या उन के विशिष्ट सामाजिक कार्यों की महत्ता से वे अवगत होते, तो गत चार दशकों में उन्हें अनगिनत राज्यों में, अनगिन बार, सत्ता, संसाधन, और अवसर मिले। पर उन्होंने कुछ ऐसा न किया जिस से हिन्दू शास्त्रों, ज्ञानियों, योद्धाओं की विरासत हिन्दू बच्चों, युवाओं तक पँहुचा दें।

सच यह है कि आगे हिन्दू समाज बचेगा भी या नहीं, वे इस से बेपरवाह हैं। अपने कथित ‘राष्ट्रवाद’ के लिए उन की एक ही लालसा है, कि उन के दल, संगठन, और नेताओं का नाम जैसे भी ऊपर रहे। मानो किसी नीम-हकीम की लालसा हो कि मरीज जिए या मरे, मगर उसे छोड़ किसी के पास न जाए! इस संकीर्ण चाह से अलग कोई चाह संघ-भाजपा नेताओं में नहीं दिखती।

सदैव नाटक-तमाशे, लफ्फाजी, उत्तेजना, उकसावे, आदि पर जोर उसी का संकेत है। यह उन के आई.टी. सेल और सोशल मीडिया पर उन के समर्पित प्रचारकों में दिखता है। वे हिन्दू समाज के हानि-लाभ का कभी कोई आकलन नहीं करते। उन का सारा समय दूसरे दलों, नेताओं, और ज्ञात-अज्ञात विदेशियों को कोसने, कीचड़ उछालने करने में जाता है। यदि कोई उन्हें गंभीर समस्याओं, या बिगड़ते हालातों पर ध्यान दिलाता है तो वे उखड़ जाते हैं। संघ के बड़े-बड़े नेता तक कह देते हैं कि, ‘‘हम ने हिन्दू समाज का ठीका थोड़े ले रखा है’’, ‘‘बाकी लोग क्या कर रहे हैं’’?

यह कैसी बचकानी बुद्धि है – मानो हिन्दू समाज के जीने-मरने से संघ-भाजपा के नेता स्वतंत्र हैं!  जिस हिन्दू समाज रूपी डाल पर बैठे वे रोज घमंड से मनमाने भाषण देते हैं, उसी में दीमक लगने की चिन्ता कोई और करे!

इसीलिए, कूनराड बार-बार कुछ बिन्दुओं पर विचार करने का आग्रह करते हैं। जैसे, बड़ी से बड़ी मूर्तियाँ लगाते जाने की झक से क्या हासिल होता है? महान दार्शनिकों और धर्मज्ञानियों की विशाल मूर्ति लगाना तो और भी बेकार है। क्योंकि आज विचार-विमर्श सड़क पर नहीं, वरन अधिकाधिक साइबर क्षेत्र में हो रहा है। जहाँ आप बिना खर्च के जितने प्रभावशाली चित्र, रेखांकन, आदि लगाओ, फैलाओ – अगर उन से मिलता हो तो।

दूसरे, हिन्दू परंपरा में मंदिर एक पवित्र स्थान हैं जहाँ श्रद्धालु अपनी आत्मचेतना जगाने, ध्यान, और पावनता हेतु जाते हैं। अपनी सुविधा से जाते हैं। क्रिश्चियनों, मुसलमानों की तरह रविवार, शुक्रवार को हाजिरी, या ताकत प्रदर्शन करने नहीं जाते। इसलिए, हिन्दुओं को भी उन जैसे झुंड, मतवादी अनुकरण में ढालना हानिकर है। यह हिन्दू ज्ञान, शिक्षा, औऱ मानस से विपरीत है। ऐसे विजातीय मार्ग में जबरन डालने से हिन्दू भटक कर, दुर्बल, दिशाहीन होकर मारे जाएंगे। क्योंकि उन के आगे या पीछे चर्च और उम्मा की तरह कोई नहीं है – खुद संघ-भाजपा के नेता ही नहीं हैं! वे हिन्दुओं को डराने, उकसाने, और प्रतिक्रिया को प्रेरित तो करते हैं, पर कभी सामने आकर नेतृत्व नहीं करते। न ही बाद में साथ खड़े होते या सहायता करते हैं। यहाँ तक कि मामूली बयान देने से भी कन्नी काटते हैं।

वस्तुतः हिन्दू मठ, मंदिर तीर्थ होते हैं। उन्हें उसी रूप में बचाना, बढ़ाना ही हिन्दू समाज के लिए सहायक है। वही हिन्दुओं के लिए शक्ति और चेतना का एक स्त्रोत है। इस के विपरीत, उन्हें मुसलमानों, क्रिश्चियनों की तरह ‘गले में पहचान-पट्टा लगाने’ (डॉ. अंबेदकर के शब्द) की दिशा में हिन्दुओं को हाँकना उन की हानि करना है। संघ-भाजपा अज्ञानवश और दलीय स्वार्थवश हिन्दुओं को मुसलमानों, क्रिश्चियनों जैसा व्यवहार के लिए उकसा रहे हैं। उन के छुटभैये नेता अपने आलाकमान की अकर्मण्यता छिपाने के लिए मौलवियों, पादरियों का उदाहरण देकर हिन्दू मठों को ही कोसते हैं! क्या विवेकानन्द, आदिशंकर, या रामानुजाचार्य की यही सीख थी, जिन की बढ़ी-बड़ी मूर्तियाँ लगाने में वे दशकों से लगे रहे हैं?

इस प्रकार, सच्ची हिन्दू परंपरा का निरादर करना, और हिन्दू समाज को इस्लाम/ क्रिश्चियनिटी का नकलची बनने को प्रेरित करना बहुत बड़ी भूल है। वह भी केवल दलीय स्वार्थ में। क्योंकि यदि यह सब मात्र दलीय लोभ से न होता, तो वे हिन्दुओं में भेद-भाव नहीं करते। तब कांग्रेस, शिव सेना, जनता, सपा, आदि के हिन्दू भी उन के लिए ‘अपने’ होते। किन्तु यह रोज दिखता है कि वे गैर-भाजपा हिन्दू नेताओं, दलों, संस्थाओं पर नियमित चोट करते रहते हैं। अर्थात्, उन्हें हिन्दू समाज को तोड़ने-फोड़ने, लड़ाने से परहेज नहीं है। बस, अपनी पार्टी का हित सध जाए!

इस बीच, वास्तविक दुर्गति यह है कि हिन्दुओं के मंदिर और हिन्दुओं द्वारा चलाए जा रहे स्कूल राजकीय कब्जे और हस्तक्षेप के शिकार हैं, जिस से मस्जिदें, चर्च, और उन के शिक्षा संस्थान नितांत मुक्त हैं। मंदिरों के संसाधनों का राजकीय तंत्र मनमाना उपयोग करता है। यहाँ तक कि राजकीय कब्जे वाले मंदिरों के धन से हिन्दुओं के घोषित शत्रुओं को अनुदान दिये जाते हैं! मंदिरों के प्रबंधन और समितियों में क्रिश्चियन, मुस्लिम रखे जाते हैं।

यही कारण है कि कई हिन्दू संप्रदाय चर्च के समान अधिकार, सुरक्षा, स्वतंत्रता पाने के लिए अपने को कानूनी रूप से अ-हिन्दू कहलाना चाहते हैं। पर संघ-भाजपाई इन संप्रदायों को ही कोसते हैं! जबकि हिन्दुओं को हीन बनाए रखने पर चुप रहते हैं जो उन के नेताओं ने भी जमाई है। क्या इन्हीं कड़वी सचाइयों को छिपाने के लिए बार-बार केवल मूर्तियाँ से हिन्दुओं को तमाशों से ठगने, सुलाने का उपक्रम होता है?

कारण जो भी हो, यह कहना सर्वथा उचित है कि जगह-जगह हिन्दू महापुरुषों, आचार्यों की मूर्तियाँ लगाने में उन्हें धर्म या समाज की कोई चिन्ता नहीं। उन का तमाशा बना कर वे केवल गद्दी, कुर्सी, कार्यालय पाने की जुगत कर रहे हैं। यह न शोभनीय है, न हितकारी है। राजकर्मियों का मुख्य काम समाज की सुरक्षा, तथा अच्छा, पारदर्शी न्याय कायम करना है। यदि ऐसा हो तो शेष कार्य समाज स्वयं बेहतर कर लेता है। क्या समय रहते नेताओं को सुबुद्धि आएगी?

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Published by शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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