इनकी आठ भुजाएँ हैं। इसलिए यह अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन शेर है। वासन्तीय व शारदीय नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है।
18 अक्टूबर-शारदीय नवरात्र, चौथा दिन
नवरात्रि के चौथे दिन नवदुर्गाओं में चतुर्थ स्वरूप कूष्माण्डा (कूष्मांडा) देवी की आराधना -उपासना की परिपाटी है। इस वर्ष 2023 में शारदीय नवरात्र का चौथा दिन 18 अक्टूबर दिन बुधवार को पड़ रहा है। इस दिन देवी भगवती के चतुर्थ स्वरूप भयंकर और उग्र रूप वाली देवी कूष्मांडा की पूजा- उपासना की जाएगी। अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। कुम्हड़ा, लौकी अर्थात कद्दू को संस्कृत में कूष्माण्डा कहते हैं। कुम्हड़ा गोलाकार है। कूम्हड़े की बलि इन्हें प्रिय है। इसीलिए इन्हें कूष्माण्डा नाम से संबोधित किया गया है। यहाँ इसका अर्थ प्राणशक्ति से है – वह प्राणशक्ति जो पूर्ण, एक गोलाकार, वृत्त की भांति है। प्राचीन काल में कुम्हड़ा, लौकी का सेवन सिर्फ विद्वान, महाज्ञानी ही किया करते थे। अन्य कोई भी वर्ग इसका सेवन नहीं करता था। कुम्हड़ा, लौकी प्राणशक्ति, बुद्धिमत्ता और शक्ति को वृद्धि करने वाले हैं। कुम्हड़ा व लौकी का यह गुण है कि यह प्राणों को अपने अंदर सोखती है, और साथ ही प्राणों का प्रसार भी करती है। यह इस पृथ्वी पर सबसे अधिक प्राणवान और ऊर्जा प्रदान करने वाली शाक, सब्ज़ी है।
अश्वथ अर्थात पीपल के वृक्ष के चौबीस घंटे ऑक्सीजन देने की भांति ही कुम्हड़ा, लौकी ऊर्जा को ग्रहण या अवशोषित कर उसका प्रसार करते है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष, अभिव्यक्त व अनभिव्यक्त एक बड़ी गेंद, गोलाकार कुम्हड़ा के समान है। इसमें छोटे से बड़े तक हर प्रकार की विविधता पाई जाती है। कू का अर्थ है -छोटा, ष् का अर्थ है- ऊर्जा और अंडा का अर्थ है -ब्रह्मांडीय गोला। सृष्टि अथवा ऊर्जा का छोटा सा वृहद ब्रह्मांडीय गोला। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऊर्जा का संचार छोटे से बड़े में होता है। यह बड़े से छोटा होता है, और छोटे से बड़ा। यह बीज से बढ़ कर फल बनता है, और फिर फल से दोबारा बीज हो जाता है।
इसी प्रकार ऊर्जा या चेतना में सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होने की और विशाल से विशालतम होने का विशेष गुण है, जिसकी व्याख्या कूष्माण्डा करती हैं। देवी को कूष्माण्डा के नाम से संज्ञायित करने का अर्थ यह भी है कि माता हमारे अंदर प्राणशक्ति के रूप में प्रकट रहती हैं। इसलिए मनुष्य को अपने आप को उन्नत करने, और माता के सर्वोच्च बुद्धिमता के रूप अपनी प्रज्ञा, बुद्धि को उसमें समाकर एक कुम्हड़े के समान अपने जीवन में प्रचुरता, बहुतायत और पूर्णता अनुभव करने की कोशिश निरंतर करनी चाहिए। सम्पूर्ण जगत के हर कण में ऊर्जा और प्राणशक्ति का अनुभव करना चाहिए। क्योंकि इस सर्वव्यापी, जागृत, प्रत्यक्ष बुद्धिमत्ता का सृष्टि में अनुभव करना ही कूष्माण्डा की उपासना है।
एक अन्य मान्यतानुसार कूष्माण्डा अर्थात अण्डे को धारण करने वाली। स्त्री और पुरुष की गर्भधारण, गर्भाधान शक्ति है। मनुष्य योनि में स्त्री और पुरुष के मध्य इक्षण के समय मंद हंसी अर्थात कूष्माण्डा देवी के स्वभाव के परिणामस्वरूप उठने वाली आकर्षण और प्रेम का भाव भगवती की ही शक्ति है। इनके प्रभाव को समस्त प्राणीमात्र में देखा जा सकता है। ब्रह्मा के दुर्गा कवच में नवदुर्गा नाम से वर्णित नौ विशिष्ट औषधियों में कूष्माण्डा भी शामिल है। कूष्माण्डा नामक औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं, जो रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत समान है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब सृष्टि नहीं थी, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था, तब देवी कूष्माण्डा ने ही ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवास सूर्य मंडल के भीतर के लोक में है। सूर्य लोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। इनकी आठ भुजाएँ हैं। इसलिए यह अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन शेर है। वासन्तीय व शारदीय नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। इसलिए इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए।
नवरात्र के चौथे दिन भगवती के चतुर्थ स्वरूप माता कूष्माण्डा की विधिवत पूजा -अर्चना करने के बाद बड़े माथे वाली तेजस्वी महिला का पूजन करना उत्तम माना गया है। उन्हें भोजन में दही, हलवा खिलाना श्रेयस्कर व मनोवांछित फल देने वाला माना गया है। उन्हें फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट कर विदाई करना चाहिए। मान्यता है कि इससे माता कूष्माण्डा प्रसन्न होती हैं। और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। नवरात्रि की चतुर्थी को पीला रंग के कपड़े पहनना भी शुभ माना गया है। पीला रंग प्रसन्नता, चमक और जयकार का प्रतीक रंग है, जो कि देवी के लक्षण हैं। कूष्माण्डा देवी का बीज मंत्र है- ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै नम: । इनका ध्यान मंत्र निम्न है-
सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ।।
पौराणिक व लौकिक मान्यतानुसार माता कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों को समस्त रोग, शोक से मुक्ति, आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली देवी है। इसलिए सच्चे हृदय से शरणागत होने वाले मनुष्यों को अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है। विधि-विधान से कूष्माण्डा की उपासना करने पर भक्तों को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव शीघ्र ही होने लगता है। यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है।
मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए कूष्माण्डा की उपासना सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। मनुष्य को आधि -व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली माता कूष्माण्डा ही है। इसलिए अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति की इच्छा रखने वाले भक्त इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहकर सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध माता अम्बे से बारम्बार प्रणाम करते हुए समस्त पापों से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते नहीं थकते।