शिव का हलाहल पान करना इस बात का प्रतीक है कि वह विष समान कटुतर बातों को अपने कंठ से नीचे नहीं जाने देता। उनका ह्रदय नितान्त निर्मल है। शिव का मुण्डमाला धारण करना इस बात का प्रतीक है कि उनके कई जन्म हो चुके हैं। शिव का अपने शरीर पर भस्म लपेटे होना यह सिद्ध करते हैं कि यह शरीर भस्म होने वाला है। -भस्मान्तं शरीरम्। -यजुर्वेद 40/15। अर्थात योगी शिव शरीरादि मोह से विरक्त हैं अर्थात विलासिता से दूर हैं।
शिव के संबंध में अनेक भ्रांतियों के फैले होने का एक प्रमुख कारण यह है कि भारतीय प्राचीन ग्रंथों में वर्णित शिव के तीन रूपों –निराकार ईश्वर का नाम शिव, महाराजा शिव और वर्तमान में प्रचलित चित्रों में गले में सर्प लपेटे शिव से संबंधित तीन पृथक- पृथक चित्रणों को, विवरणियों को एक मान लिया जाना है। जिसके कारण अनेक भ्रम, विसंगति व तर्क से परे बातों का शिव कथाओं में समावेश हो गया है। वैदिक मतानुसार परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव होने की भांति ही उसके अनन्त नाम भी हैं। ईश्वर का प्रत्येक गुण, कर्म और स्वभाव का एक-एक नाम है। वेदों में निराकार ईश्वर का ही एक नाम शिव कहा गया है। शिव का अर्थ है –जो कल्याणकारी हो। क्योंकि ईश्वर कल्याणकारी है, इसलिए उसका एक नाम शिव भी है। स्वामी दयानन्द सरस्वती अपनी प्रसिद्ध कृति सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम सम्मुलास में कहते हैं-
शिवु कल्याणे- इस धातु से शिव शब्द सिद्ध होता है।
बहुलमेतन्निदर्शनम् इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम शिव है। वेदों में ईश्वर के गुणों के अनुसार लगभग सौ नामों से परमेश्वर को संबोधित किया हैं, जिनमे से शिव भी एक नाम है।
वेदों में वर्णित यह शिव समस्त सौर मंडल में कण-कण में विद्यमान है, न कि सिर्फ किसी पर्वत पर। नित्यप्रति की सन्ध्या- उपासना के अन्तर्गत प्रयुक्त होने वाले वेद मंत्र में भी निराकार शिव की ही स्तुति की गई है-
नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। – यजुर्वेद 16/41
अर्थात- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मंगलकारी और अत्यन्त मंगलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।
इस एक ही मंत्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। तीनों लोकों के स्वामी ईश्वर को उसके गुणों व कर्मों के अनुसार त्रयंबकम कहा गया है-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।- –ऋग्वेद 7/59/12
वेद की भांति ही उपनिषदों में भी शिव की महिमागान की गई है-
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्सः शिवस्सोऽक्षरस्सः परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्सः कालाग्निस्स चन्द्रमाः।। –कैवल्योपनिषद 1/80
अर्थात- वह जगत का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।
माण्डूक्योपनिषद के अनुसार जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान शिव सर्वगत अर्थात सर्वत्र प्राप्त है। श्वेताश्वेतर उपनिषद 4/14 में इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थायी रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।
अब दूसरे रूप महाराजा शिव की बात करते हैं। पौराणिक ग्रंथों के गहन अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि गांधार क्षेत्रों में राज्य करने वाले एक महान राजा शिव थे। उनके पिताश्री का नाम अग्निश्वात था। अग्निश्वात के पिता का नाम विराट था और विराट के पिता का नाम महर्षि ब्रह्मा था। शिव की पत्नी का नाम उमा है। पर्वत क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करने के कारण उनको पार्वती की उपाधि प्राप्त है। शिव के दो पुत्र गणेश और कार्तिकेयन है। कैलाश उनकी राजधानी थी और तिब्बत का पठार और हिमालय के वे शासक थे। हरिद्वार से उनकी सीमा आरम्भ होती थी और काशी विश्वनाथ तक उनका साम्राज्य फैला हुआ था। वह शिव एक महान योगी भी थे।
शिव योग का अभिप्राय है- नाना प्रकार के यंत्रों का निर्माण करना अथवा करते रहना तथा विविध यंत्रो को क्रिया में लाना। इस प्रकार वह अपने जीवन का राष्ट्रीयकरण करते हुए अपनी आभा को विकसित करने में लगे रहते थे। उनके राज्य में सब कोई सुखी था। कैलाशपति शिव वीतरागी महान राजा थे, वे राजा होकर भी अत्यंत वैरागी थे तथा उनका राज्य इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें कालांतर में साक्षात ईश्वर के नाम शिव से उनकी तुलना की जाने लगी। वे महान विज्ञानवेत्ता अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण कर्त्ता थे। लंकेश रावण ने भी उनके पास रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। उनकी प्रजा कैलाश पर्वत के समान आचार- विचार में ऊंची होने के कारण उनको कैलाशपति भी कहते थे। उनके राष्ट्र में अनुष्ठान, अनुसंधान, अनुवृत्ति और नाना प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के प्रवर्द्धन में कार्य होते रहते थे। उनकी पत्नी का नाम पार्वती था जो राजा दक्ष की कन्या थी। उनकी पत्नी ने भी गौरीकुंड उत्तराखंड में रहकर तपस्या की थी।
महाराजा शिव से संबंधित यह कथा अधिक लोकप्रिय नहीं। इसलिए इस बात का लाभ लेकर वाममार्गियों ने भारतीय पौराणिक साहित्य में अनेक विसंगतिपूर्ण व तर्क से परे प्रसंगों, कथाओं का प्रक्षिप्त कर भारी गड़बड़ी कर दी और साकार पुरुष शिव और निराकार ईश्वर के एक अन्य नाम शिव को मिलाकर अनर्थ कर दिया। महाराजा शिव उनकी पत्नी पार्वती और गणेश की मूर्ति बनाकर किस्से कहानियां व किंबदन्तियां रच दीं। और शिव ईश्वर की मूर्ति बनाकर महाराजा शिव और ईश्वर शिव को एक ही मान लेने की भारी गलती कर दी।
आज वर्तमान में शिव के काल्पनिक चित्रणों की भरमार है। और शिव के नाम पर तस्वीरों व प्रतिमाओं का निर्माण कार्य जारी है। यह चित्र अथवा प्रतिमा शरीरधारी राजा शिव की नहीं है और न ही निराकार शिव ईश्वर की। यह काल्पनिक शिव के मानव रुपी शरीर का अलंकारिक चित्रण है। इसके दायें हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में डमरु है। सिर पर गंगा और माथे पर अर्द्ध चन्द्रमा है। उनके तीन नेत्र हैं। वृषभ या नादिया उनकी सवारी है। गले में मुण्ड माला है। वह बाघम्बर धारण किए हैं। गले में सर्प लिपटे रहते हैं। उन्होंने देवों के कष्ट हरण के लिए विषपान किया है।
इन सभी रूपों का मिश्रण ही वर्तमान में प्राप्य शिव चित्र प्रतीत होते हैं। परंतु इस चित्र का भी दार्शनिक पहलू है, वह यह है कि मृत्यु को जीत लेने वाले अवधूत ब्रह्मचारी को भी शिव कहा जाता है। ऐसा महान इन्द्रियजीत योगी ही संसाररूपी प्रकृति अथवा पार्वती का स्वामी कहलाने योग्य हो सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि सांसारिक विषय रूपी सर्प उससे लिपटे रहकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। शरीर पर लिपटे हुए सर्पों से तात्पर्य स्पष्ट है कि सांसारिक विषय और वासनाएं सर्प की भांति शरीर के ऊपर लिपटी होने का प्रभाव तो सांसारिक मनुष्य पर पड़ता है लेकिन योगी,तपस्वी पर उनका कोई प्रभाव नही होता है। स्वयं प्रकृति ही पार्वती माता के रूप में उनकी पत्नी होने के कारण भी सर्प का असर उन पर नहीं होता। दोनों एक- दूसरे के पूरक है, सहायक है, रक्षक हैं।
इसलिए प्रकृति के अभिन्न अंग सर्प शिव को क्षति पहुंचा ही नहीं सकते हैं। परम योगी साधक शिव ब्रह्म अथवा ब्रह्मजल में क्रीडा में निमग्न रहता है। परमानन्द की प्राप्ति होने से वह कैलाश में सदा स्थिर रहता है। यही उसका कैलाशवाश है। इसी प्रकार पर्वत दृढ़ता का प्रतीक है, साधक पर्वत की भांति अपने व्रत में अड़िग रहता है। तीन नेत्र वाले, त्रिनेत्र। उनके माथे में स्थित तीसरा नेत्र ज्ञान नेत्र का प्रतीक है। इसी ज्ञान नेत्र से वह काम वासना को भस्म कर देते हैं। इसलिए वे कभी कामासक्त होकर अनाचार नहीं करते। त्रिशूल- तीन शूल अर्थात कष्ट। तीन कष्ट हैं- आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। ये तीन कष्ट अर्थात शूल कांटों के समान कष्टदायक हैं। इसलिए त्रिशूल हैं।
परम योगी शिव इन तीनों कष्ट रुपी दुःखों को अपनी दायीं मुट्ठी में भरकर अपने वश में कर लेते हैं। शिव के बायें हाथ में डमरु है। डमरु शब्द संस्कृत के दमरु का अपभ्रंश है, जो दो शब्दों से बना है। दम अर्थात दमन करना और रु अर्थात ध्वनि। अर्थात दमन संयम रुपी ध्वनि व्यक्त होती रहती है अर्थात वह महान संयमी है। शिव के माथे पर गंगा हैं। मस्तकवर्ती यह गंगा ज्ञान गंगा है। इससे सिद्ध है कि शिव ज्ञानी है। शिव के सिर पर अर्द्ध चन्द्रमा है। यह चन्द्रमा आनन्द और आशा एवं सौहार्द्र की प्रतीक है। शिव के चारों ओर लिपटे हुए विषधर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईष्र्या, द्वेष, पक्षपात आदि के प्रतीक हैं। जिन्हें योगी शिव अपने अन्तःकरण से बाहर फेंककर अनासक्त भाव से विचरण करते हैं। हलाहल पान करने से नीलकंठ है। शिव का हलाहल पान करना इस बात का प्रतीक है कि वह विष समान कटुतर बातों को अपने कंठ से नीचे नहीं जाने देता। उनका ह्रदय नितान्त निर्मल है। शिव का मुण्डमाला धारण करना इस बात का प्रतीक है कि उनके कई जन्म हो चुके हैं। शिव का अपने शरीर पर भस्म लपेटे होना यह सिद्ध करते हैं कि यह शरीर भस्म होने वाला है। -भस्मान्तं शरीरम्। -यजुर्वेद 40/15। अर्थात योगी शिव शरीरादि मोह से विरक्त हैं अर्थात विलासिता से दूर हैं। शिव की सवारी नादिया या वृषभ है। नादिया नाद शब्द का अपभ्रंश है। नाद का अर्थ ध्वनि है। सर्वश्रेष्ठ ध्वनि ॐ अर्थात ओंकार की है।