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दुनिया में कृष्णभावनामृत प्रर्णेता श्रील प्रभुपाद

भारतीय परंपराओं, वैदिक अनुष्ठानों का भी अंतिम मंत्र यही होता है- इदम् न ममम् अर्थात- ये मेरा नहीं है। यह अखिल ब्रह्मांड के लिए है, सम्पूर्ण सृष्टि के हित के लिए है। इसीलिए श्रील प्रभुपाद के गुरु भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ने उनके अंदर की क्षमता को देखकर उन्हें भारतीय दर्शन व चिंतन को सम्पूर्ण संसार तक ले जाने का निर्देश दिया। अपने गुरु के इस आदेश को श्रील प्रभुपाद ने अपना मिशन बना लिया, और उनकी तपस्या का परिणाम आज दुनिया के कोने-कोने में नजर आता है।

8 सितबंर– श्रील प्रभुपाद जयंती

सनातन वैदिक धर्म के प्रसिद्ध गौड़ीय वैष्णव गुरु तथा धर्म प्रचारक अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) न केवल वेदान्त, कृष्ण भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने के महनीय कार्य के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि भगवान श्रीकृष्ण व श्रीमद्भगवद्गीता के प्रति लोगों में आस्था व विश्वास बनाए रखने और करोड़ों लोगों के सनातन धर्म के अनुयायी बनने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए भी जाने जाते हैं। इन्हें अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है। कोलकाता के बंगाली कायस्थ परिवार में भाद्रपद कृष्ण नवमी विक्रम संवत 1953 को जन्मे श्रील प्रभुपाद के बाल्यकाल का नाम अभयचरण डे था। पिता का नाम गौर मोहन डे और माता का नाम रजनी था। इनके पिता एक वस्त्र व्यवसायी थे। गौर मोहन डे ने अपने बेटे अभयचरण का पालन -पोषण एक श्रीकृष्ण भक्त के रूप में किया। जिसके कारण उनकी श्रद्धा श्रीकृष्णभक्ति में बलवती होती चली गई। अभयचरण के गुरु भक्ति सिद्धांत ठाकुर सरस्वती गोस्वामी थे।

अभयचरण ने 26 वर्ष की उम्र में सन 1922 में कोलकाता में अपने गुरु भक्ति सिद्धांत ठाकुर सरस्वती से मुलाक़ात की और 37 की उम्र में 1933 में उनसे विधिवत दीक्षा प्राप्त कर शिष्य बन पूरी तरह श्रीकृष्ण भक्ति में लीन हो गए। प्रभुपाद अलग -अलग गुरुओं से मिलते रहे, परंतु इनके गुरु भक्ति सिद्धांत ठाकुर सरस्वती ने अपने शिष्य श्रील प्रभुपाद को अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इसके बाद प्रभुपाद ने श्रीमद्भगवद्गीता पर एक टिप्पणी लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा 1944 में श्री प्रभुपाद ने बिना किसी सहायता के एक अंग्रेजी पत्रिका आरंभ की जिसका संपादन, पाण्डुलिपि का टंकन और मुद्रित सामग्री के प्रूफ शोधन का सारा कार्य वह स्वयं किया करते थे।

इस पत्रिका की निःशुल्क प्रतियाँ बेचकर भी इन्होंने इसके प्रकाशन के क्रम को जारी रखा। वर्तमान में बैक टू गॉडहैड नामक यह पत्रिका पश्चिमी देशों में भी चलाई जा रही है, और तीस से अधिक भाषाओं में अभी भी प्रकाशित रही है। प्रभुपाद के दार्शनिक ज्ञान एवं भक्ति की महत्ता को पहचान कर सन 1947 में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें तब तक विस्मृत हो चुके सहज भक्ति के द्वारा वेदान्त को सरलता से हृदयंगम करने के एक परंपरागत मार्ग को पुनः प्रतिस्थापित करने के लिए भक्ति वेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया। इसके बाद ये अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के नाम से विख्यात हो गए।

1959 में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण भक्ति के लिए प्रसिद्ध वृंदावन में रहकर श्रीमदभागवत पुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सत्तर वर्ष की आयु में सन 1965 में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने के लिए बिना धन या किसी सहायता के सिर्फ श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत पुराण की पूंजी लेकर खाली हाथ समुद्री जहाज से अमेरिका जाने के लिए निकल पड़े। यात्रा के दौरान रास्ते में उन्हें दो-दो बार हृदयाघात हुआ। न्यूयॉर्क पहुंचने पर उनके पास खाने तक की व्यवस्था नहीं थी। रहने का भी ठौर- ठिकाना नहीं था। परंतु विभिन्न बाधाओं के मध्य वहाँ उन्होंने 1966 में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ अर्थात इस्कॉन की स्थापना की।

1968 में प्रयोग के तौर पर अमेरिका के वर्जीनिया की पहाड़ियों में नव वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य स्थानों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। 1972 में टेक्सास के डैलस में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया। सन 1966 से 1977 तक उन्होंने सम्पूर्ण विश्व का चौदह बार भ्रमण किया तथा संसार के अनेक विद्वानों से मुलाकात कर कृष्णभक्ति के विषय में वार्तालाप करके उन्हें यह समझाया कि कैसे कृष्णभावना ही जीव की वास्तविक भावना है? श्रील प्रभुपाद स्वामी संसार के देशों में भ्रमण करने का कारण लोगों को बताते हुए कहते थे कि वे भारत की सबसे अमूल्य निधि दुनिया को देना चाहते हैं। भारत के ज्ञान-विज्ञान, जीवन संस्कृति और परम्पराओं की मूल भावना -भूत दयाम् प्रति अर्थात जीव मात्र के लिए, जीव मात्र के कल्याण के लिए रही है।

भारतीय परंपराओं, वैदिक अनुष्ठानों का भी अंतिम मंत्र यही होता है- इदम् न ममम् अर्थात- ये मेरा नहीं है। यह अखिल ब्रह्मांड के लिए है, सम्पूर्ण सृष्टि के हित के लिए है। इसीलिए श्रील प्रभुपाद के गुरु भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ने उनके अंदर की क्षमता को देखकर उन्हें भारतीय दर्शन व चिंतन को सम्पूर्ण संसार तक ले जाने का निर्देश दिया। अपने गुरु के इस आदेश को श्रील प्रभुपाद ने अपना मिशन बना लिया, और उनकी तपस्या का परिणाम आज दुनिया के कोने-कोने में नजर आता है। अलौकिक कृष्ण भक्त प्रभुपाद स्वामी एक महान भारत भक्त भी थे। उन्होंने देश के स्वतन्त्रता संग्राम में भी संघर्ष किया था। उन्होंने असहयोग आंदोलन के समर्थन में स्कॉटिश कॉलेज से अपना डिप्लोमा तक लेने से मना कर दिया था। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पुस्तकों की प्रकाशन संस्था- भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना 1972 में की।

कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्ति वेदांत इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की। भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से वर्तमान में कृष्ण भक्ति परंपरा को पुष्ट करने में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया है। स्वामी प्रभुपाद ने भारतीय ज्ञान से संबंधित 60 से अधिक संस्करणों का अनुवाद किया। श्रीमद्भगवद्गीता, चैतन्य चरितामृत और श्रीमद्भागवत पुराण आदि ग्रंथों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। इन पुस्तकों का अनुवाद अस्सी से अधिक भाषाओं में अब तक हो चुका है, और सपूर्ण संसार में इन पुस्तकों का वितरण हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार अब तक 55 करोड़ से अधिक वैदिक साहित्यों का वितरण हो चुका है।

उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ कृष्ण भक्ति और कृष्ण भक्ति को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने के कार्य में लगी हुई है। 57 वर्ष पुरानी इस संस्था के आज दुनिया भर में कृष्ण भक्ति पर आधारित 850 से अधिक मंदिर, 150 से अधिक विद्यालय, होटल व रेस्टोरेंट हैं। ये सिर्फ श्रीकृष्ण का प्रचार- प्रसार करते हैं। इसमें शक नहीं कि विश्व को भक्तियोग देने का महान कार्य श्रील प्रभुपाद और उनके द्वारा स्थापित इस्कॉन ने किया है। उन्होंने भक्ति वेदान्त को संसार की चेतना से जोड़ने का असाधारण कार्य किया। श्रीकृष्ण को सृष्टि के सर्वेसर्वा के रूप में स्थापित करना और अनुयायियों के मुख पर हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे- का उच्चारण सदैव करते रहने की प्रथा श्रील प्रभुपाद और इनके द्वारा स्थापित इस्कॉन के द्वारा ही स्थापित हुई। इस्कॉन ने संसार को बतलाया है कि भारतीय आस्था का अर्थ उमंग, उत्साह, उल्लास और मानवता पर विश्वास है।

यही कारण है कि आज संसार के अलग-अलग देशों में लोग भारतीय वेश-भूषा में हरे राम हरे कृष्ण का कीर्तन करते दिख जाते हैं। श्वेत धवल वस्त्र धारण कर हाथ में  ढोलक- मंजीरा जैसे वाद्ययंत्र लेकर हरे राम हरे कृष्ण के संगीतमय कीर्तन के मध्य आत्मिक शांति से झूमते भक्तों के आस्था का यह उल्लासमय स्वरूप निरंतर संसार में लोगों को आकर्षित कर रहा है। जीवन का हिस्सा बन चुका कीर्तन का यह आनंद आज तनाव से ग्रस्त सम्पूर्ण विश्व को नई आशा दे रहा है। यही कारण है कि भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने के बाद भाद्रपद कृष्ण नवमी को श्रीकृष्ण भक्त श्रील प्रभुपाद की जन्म जयंती मनाई जाती है। इस अवसर पर श्रील प्रभुपाद स्वामी के लाखों -करोड़ों अनुयायी और कृष्ण भक्त साधना का सुख और संतोष दोनों एक साथ प्राप्त होते अनुभव करते हैं। कृष्ण भक्त श्रील प्रभुपाद का निधन 14 नवम्बर 1977 में प्रसिद्ध कृष्ण नगरी मथुरा के वृन्दावन धाम में हुआ। एक सितम्बर 2021 को स्वामी प्रभुपाद जिनकी जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 125 रुपये का सिक्का जारी किया।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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