हिन्दू समाज की अभूतपूर्व विडंबना है कि जिस संघ-परिवार के वर्चस्व में वह अपने ही देश में आठवें दर्जे का हीन नागरिक बन कर रह गया है (आनन्द रंगराजन की नई पुस्तक ‘हिन्दूज इन हिन्दू राष्ट्र: एट्थ-क्लास सिटिजन्स एंड विक्टिम्स ऑफ स्टेट-सैंक्सन्ड अपार्थेइड’ ने इसे प्रमाणिक रूप से दिखाया है)। उसी संघ परिवार के नेताओं के डींग-तमाशों से उलटे भारत में ‘हिन्दू फासिज्म’ का हल्ला दुनिया में बनाया गया है।
बंगलादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार पर आर.एस.एस. का बयान आया है, जिस में यह बातें हैं –
1- हिन्दू, बौद्ध तथा वहाँ के अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हो रही हिंसा की घटनाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गंभीर चिंता व्यक्त करता है। उन समुदाय के लोगों की लक्षित हत्या, लूटपाट, आगजनी, महिलाओं के साथ जघन्य अपराध तथा मंदिर जैसे श्रद्धा स्थानों पर हमले जैसी क्रूरता असहनीय है तथा रा.स्व.संघ इस की घोर निंदा करता है।
- 2. बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से अपेक्षा है कि वह सख्ती से ऐसी घटनाओं पर रोक लगाये और पीड़ितों के जान, माल व मान रक्षा की समुचित व्यवस्था करे।
- 3. विश्व समुदाय तथा भारत के सभी राजनीतिक दलों से भी अनुरोध है कि बांग्लादेश में प्रताड़ना के शिकार बने हिन्दू, बौद्ध इत्यादि समुदायों के साथ एकजुट हो कर खड़े हों।
संक्षिप्त बयान में मात्र यही तीन ठोस या हवाई बातें हैं। ठोस इस अर्थ में कि चुप्पी की तुलना में एक सर्वोच्च संघ नेता के नाम से जारी यह बातें रिकॉर्ड पर हैं। हवाई इस रूप में कि जबानी वक्तव्य के सिवा कोई गतिविधि नहीं हुई।
अब, इसी मुद्दे पर 2013 ई. में आर.एस.एस. का बयान देखें, जो उस की वेबसाइट पर है। अर्थात रिकॉर्ड पर है।
- 1. (आरएसएस की) अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा बंगलादेश (और पाकिस्तान) में हिन्दुओं के अंतहीन उत्पीड़न पर गहरी चिंता प्रकट करती है। जिससे बड़ी संख्या में शरणार्थी लगातार भारत आ रहे हैं। यह भारी लज्जा और दुख की बात है कि ये असहाय हिन्दू वहाँ और यहाँ भारत में भी दयनीय जीवन बिताने के लिए विवश हैं।
- 2. बंगलादेश में हिन्दुओं और उन के मंदिरों पर बंगलादेश के जमाते इस्लामी जैसे कुख्यात ग्रुपों द्वारा प्रहार दशकों से एक स्थाई परिघटना बन गया है। बिना किसी दोष के हिन्दू और अन्य अल्पसंख्यक बार-बार इस्लामी हमले झेलते रहे हैं।
- 3. यह सभा भारत की सरकार, तथा राजनीतिक बौद्धिक सामाजिक नेतृत्व को याद दिलाना चाहती है कि बंगलादेश के हिन्दू अपनी इच्छा से इस्लामी उत्पीड़न के शिकार नहीं हुए। यह 1947 में हुए देश विभाजन का एक परिणाम है। वे अभागे हिन्दू पिछले राजनीतिक नेताओं की भूलों की कीमत अपने जीवन से चुका रहे हैं।
- 4. यह सभा भारत सरकार से बंगलादेश के हिन्दू नागरिकों और शरणार्थियों के पूरे मामले पर विचार करने का आग्रह करती है। सरकार यह कहकर बच नहीं सकती कि यह तो उन देशों का आंतरिक मामला है।
- सभा इस पर जोर देती है कि यह भारत सरकार की जिम्मेदारी है कि वह बंगलादेश को (अल्पसंख्यकों के मामले में) चुनौती दे। उस की संप्रभुता के बहाने उधर लाखों लाख हिन्दुओं का लुप्त हो जाना टाला नहीं जा सकता।
- इस हृदयविदारक स्थिति को देखते हुए यह सभा भारत सरकार से बंगलादेश में रह रहे हिन्दुओं के सवाल पर नया संवाद आरंभ करने का आग्रह करती है। भारत सरकार अवश्यमेव – (क) बंगलादेश की सरकार पर हिन्दुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दबाव डाले; (ख) वहाँ से आ रहे सभी हिन्दू शरणार्थियों के लिए एक राष्ट्रीय शरणार्थी सहायता व पुनर्वास नीति बनाए; (ग) विस्थापित हिन्दुओं के लिए बंगलादेश से समुचित हर्जाने की माँग करे; (घ) संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं से बंगलादेश में हिन्दुओं की सुरक्षा व सम्मान सुनिश्चित करने हेतु एक भूमिका निभाने की माँग करें।
- 7. सभा यह कहने के लिए विवश हैं कि उन लोगों की दुर्दशा के प्रति हमारी सरकार इसीलिए उदासीन है क्योंकि वे हिन्दू हैं। इस संवेदनहीन और लापरवाह रूख के विरुद्ध देशवासियों को मजबूती से सामने आ खड़ा होना चाहिए।
अब उक्त दोनों बयानों की तुलना करें। साधारण पाठक भी सरलता से देख सकते हैं कि एक ही ऐतिहासिक मुद्दे पर आर.एस.एस. के दो बयानों में जमीन-आसमान का अंतर है। जबकि कुछ ही बरस बीते हैं। सब कुछ वैसा है, बल्कि बंगलादेश में हिन्दुओं की स्थिति बदतर हुई है।
पर चूँकि तब यहाँ दूसरे दल सत्ताधारी थे, इसलिए संघ-परिवार इस मुद्दे के बहाने हिन्दुओं को सरकार के विरुद्ध भड़काने में लगा था। तब वह सारी माँग भारत सरकार से कर रहा था। सारा दोष इस्लाम को, और भारत सरकार को दे रहा था। भारत सरकार से हिन्दू सुरक्षा का मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाने की माँग कर रहा था। वरना भारत के हिन्दुओं को अपनी सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने का भी आह्वान कर रहा था!
और आज? अब संघ नेताओं की सारी अपेक्षा बंगलादेश की सरकार और देश के सभी राजनीतिक दलों से है! जब कि उस के अपने ‘स्वयंसेवक’ नेताओं के हाथ में है कि वे बंगलादेश को चुनौती दें, उस से हिन्दुओं के लिए हर्जाना माँगें, हिन्दू सुरक्षा मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाएं, आदि। जब यह सब खुद संघ के प्रशिक्षित और महान नेताओं के हाथ में है – जिसे वे एक दिन में कर सकते हैं – तब संघ नेता बंगलादेश से ही ‘अपेक्षा’ कर रहे हैं कि ‘पीड़ितों के जान-माल की रक्षा की व्यवस्था करे’, और भारत के राजनीतिक दलो से ‘अनुरोध’ कर रहे हैं। बस। काम खत्म।
कहना पड़ेगा कि ऐसा दोहरापन और अपने समर्थक जनसमूह के प्रति ऐसा विश्वासघात भारत के किसी अन्य संगठन ने नहीं किया है। सत्ता में और विपक्ष में रहते हुए किसी राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे पर उन की बातों में बुनियादी अंतर नहीं होता। तेवर, भाषा में भी मामूली अंतर होता है। एक ही मुद्दे पर कांग्रेस, कम्युनिस्ट, द्रमुक, आरजेडी, आदि के पुराने या नये बयानों में कभी इतना बड़ा अंतर नहीं मिलता – जैसा संघ-परिवार का नियमित रूप से मिलता है।
यही कारण है कि संघ नेताओं ने अपने ही पुराने प्रकाशनों, बयानों, दस्तावेजों को व्यवस्थित रूप से गायब करने का तरीका अपनाया है। संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार तक का लगभग सभी लेखन और वक्तव्य लुप्त किया जा चुका है, जबकि वे स्वयं पत्रकार और प्रकाशक भी थे! उन के पत्रों का प्रकाशित संग्रह भी अप्राप्य हो गया है। देश के किसी अन्य संगठन के संस्थापक के लेखन, वक्तव्य, पत्र, आदि के साथ ऐसा नहीं हुआ। संघ के नेता इसे अपनी चतुराई और शक्ति समझते हैं। बेचारे इतना भी नहीं जानते कि आदतन मिथ्याचार उन्हें और उन पर भरोसा करने वाले लाखों हिंदुओं को कितना दुर्बल, असहाय, और चरित्रविहीन बना रहा है!
बहरहाल, बंगलादेश के हिन्दुओं की दुर्दशा या भारत में भी हिन्दुओं को हीन दर्जे के नागरिक जैसी स्थिति पर संघ-परिवार की मतलबी नीति एक अक्षम्य अपराध है। उक्त दो बयानों में जमीन-आसमान का अंतर उन के चरित्र का एक उदाहरण है। बंगलादेश के हिन्दू हों या कश्मीर, असम, केरल, गुजरात या पश्चिम बंगाल के – समय समय पर इन के उत्पीड़न के समाचार संघ-परिवार के लिए केवल उसे भुना कर अपना स्वार्थ साधने के काम आते रहे हैं। इस एक प्रयोजन के सिवा उन के नेताओं को उन मुद्दों पर कभी रंचमात्र भी कष्ट उठाते नहीं देखा गया है। इतिहास इस का गवाह है। पुस्तकालयों में अखबारों, पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें इस की पुष्टि करती हैं।
अतः यह हिन्दू समाज की अभूतपूर्व विडंबना है कि जिस संघ-परिवार के वर्चस्व में वह अपने ही देश में आठवें दर्जे का हीन नागरिक बन कर रह गया है (आनन्द रंगराजन की नई पुस्तक ‘हिन्दूज इन हिन्दू राष्ट्र: एट्थ-क्लास सिटिजन्स एंड विक्टिम्स ऑफ स्टेट-सैंक्सन्ड अपार्थेइड’ ने इसे प्रमाणिक रूप से दिखाया है)। उसी संघ परिवार के नेताओं के डींग-तमाशों से उलटे भारत में ‘हिन्दू फासिज्म’ का हल्ला दुनिया में बनाया गया है।
इस बीच, हिन्दू अपने मूल स्थान – भारतीय उपमहाद्वीप – में ही सिकुड़ते, पिटते, अपमानित और विश्वासघात के शिकार हो रहे हैं। जिन के लिए अपने देश में भी कोई खुल कर बोलने वाला भी नहीं बच रहा।
किसी अनुभवी इतिहासकार की आशंका ठीक ही साबित होती जा रही है: ‘आर.एस.एस. हिन्दू समाज को ऐसे गड्ढे की ओर ले जा रहा है जिस से उस का फिर निकल पाना शायद संभव न हो सके।’