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यादों की बूंदों से झांकते सवाल

संविधान

तब सब अपने आप होता था। बिना किसी के कहे हम तिरंगा लहराते थे। बिना किसी के थोपे हम अपने फ़र्ज़ निभाते थे। सोचता हूं, आज हमारे स्वाभाविक-भावों के लिए भी आयोजन-प्रबंधन तकनीकों के इतने उत्प्रेरक क्यों इस्तेमाल किए जाते हैं? क्या हम वैसे नहीं रहे? या, क्या हमारे प्रेरणा-व्यक्तित्व वैसे नहीं रहे? जन-मन की नैसर्गिक तरंगों को बाज़ारू-आवरणों की ज़रूरत क्यों पड़ने लगी है?

मैं बचपन में अपने दादा-दादी और नाना-नानी के घर बहुत रहा। दादा-दादी के गांव में तब 50-60 कच्चे मकान हुआ करते थे और नाना-नानी के छोटे-से कस्बे की आबादी डेढ़-दो हज़ार हुआ करती होगी। मेरी मां बताती थीं कि जिस शाम महात्मा गांधी की हत्या हुई, पड़ोस में ही रहने वाली उन की एक सहेली की शादी थी। बैलगाड़ियों से बाराती दो दिन पहले ही आ गए थे। तब बारातें लड़की वालों के यहां तीन से पांच दिन तक ठहरा करती थीं। चूंकि सर्दियों के दिन थे, घुड़चढ़ी वाली शाम अंधेरा जल्दी हो गया था। उत्तरप्रदेश के अपने ननिहाल में जब मैं रहा करता था, तब भी हर शाम पूरे कस्बे में खंभों पर बने दीप-बक्सों में मिट्टी के तेल की चिमनी जला कर रखने के लिए सरकारी लोग आया करते थे तो आज़ादी मिलने के चार-पांच महीने के भीतर हालात क्या रहे होंगे, अंदाज़ लगा लीजिए।

शाम का झुटपुटा होते ही बारात चल पड़ी थी। रास्ते में थी कि गांधी जी को गोली मार देने की ख़बर आ गई। मां बताती थीं कि दूल्हा, बिना किसी के कहे, घोड़ी से नीचे उतर गया और पैदल विवाह-मंडप में पहुंचा। बैंड वालों ने, बिना किसी के कहे, संगीत बजाना बंद कर दिया। साथ चल रहे रोशनी के चार-छह हंडे वालों ने, बिना किसी के कहे, उन्हें बुझा दिया। आसपास के घरों में जल रही टिमटिमाती रोशनियों और दीप स्तंभों के चिमनियों की मद्धम लौ के बीच बारात ख़ामोशी से लड़की के घर पहुंची। बड़ी-बूढ़ियों ने, बिना किसी के कहे, बेहद धीमे सुरों में सोहर के गीत गाने की रस्म अदा की। पंडित जी ने, बिना किसी के कहे, दबी आवाज़ में श्लोक पढ़े और अग्नि के समक्ष सात फेरे कराए। बारातियों ने, बिना किसी के कहे, कह दिया कि भोजन में बनी मिठाई और दही-बूरा उन्हें न परोसा जाए। शुभ-कार्य में कच्चा खाना नहीं बनता है, सो, नहीं बना था, इसलिए एकाध पूड़ी-कचौड़ी खा कर बाराती जनवासे में लौट गए। पांच दिनों के लिए आई बारात, एक दिन पहले ही, अगले दिन दुल्हन की धूमधामविहीन विदाई करा कर लौट गई। उस दिन गांधी जी का अंतिम संस्कार था।

इस प्रतीक-प्रसंग की, बिना किसी फ़रमान के, अखिल भारतीय व्यापकता का अहसास हम आज भी कर सकते हैं। इस के 16 साल बाद, 1964 में मई महीने के आख़िरी बुधवार के अपराह्न मैं ने रेडियो पर समाचार सुनते अपने पिता का चेहरा एकदम फक्क होते देखा। वे फफक कर रोने लगे। मेरी मां से जैसे-तैसे बोले कि नेहरू जी नहीं रहे। मैं बहुत छोटा था, लेकिन इतना जानता था कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। यह भी कि वे चाचा नेहरू थे। चाचा नहीं रहे, यानी पिता के भाई नहीं रहे। मुझे अपने पिता के आंसुओं और नेहरू के निधन में तब बस यही नाता समझ में आया।

मेरे पिता मध्यप्रदेश के दूरवर्ती आदिवासी इलाके के एक छोटे-से ब्लॉक में पदस्थ थे। कवेलू की छत वाले एक अधपक्के घर में हम रहा करते थे। उस शाम मां ने, बिना किसी के कहे, चूल्हा नहीं जलाया। हम बच्चों को सुबह के बचे खाने में से थोड़ा-थोड़ा खिला कर सुला दिया। अगले दिन पिता दिन भर नम आंखें पोंछते रेडियो पर नेहरू जी के अंतिम संस्कार का आंखों देखा हाल सुनते रहे। घर में चूल्हा उस दिन भी नहीं जला। नेहरू की अंतिम विदाई के बाद पास के आदिवासी छात्रावास के बच्चे अपने बनाए भोजन में से आग्रहपूर्वक कुछ हमारे यहां दे गए। उन्होंने भी, बिना किसी के कहे, डेढ़ दिन बाद चूल्हा जलाया था।

तक़रीबन ऐसे ही दृश्य की छुअन मेरी टुकुर-टुकुर आंखों ने 19 महीने बाद लालबहादुर शास़्त्री के निधन पर महसूस की। मैं न बहुत छोटा था, न बड़ा, सो, तब समझ ही नहीं पाता था कि इस आदिवासी गांव के लोग, जो कभी दिल्ली तो क्या, अपने ज़िला मुख्यालय तक नहीं गए, जिन्होंने कभी नेहरू-शास्त्री को देखा तक नहीं, वे उन के निधन पर क्यों कर इतने शोकाकुल हैं, जैसे कोई नज़दीकी परिजन चला गया हो? बहुत बाद में समझ आया कि वे कैसे निस्पृह नैतिक-नातों का वक़्त था। मेरे माता-पिता धर्म-परायण थे। मां तो इतनी कि उन का सारा जीवन तीज-त्यौहारों, एकादशियों, सीतलामाता, शिवरात्रि, जन्माष्टमी, होली, दीवाली के व्रत करते ही बीता। माता-पिता सोमवार का व्रत भी करते थे। लेकिन यह एकमात्र ऐसा व्रत था, जिस के पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं था। 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय अन्न-संकट से निपटने के लिए शास्त्री जी ने देशवासियों से सप्ताह में एक दिन का व्रत रखने का आग्रह किया था। मेरे माता-पिता ने सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया। युद्ध समाप्त हो गया। भारत अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रांति हो गई। श्वेत क्रांति हो गई। उदारीकरण के बाद भारत बदल गया। मगर मां और पिता का सोमवार-व्रत, बिना किसी के कहे, ताज़िंदगी जारी रहा। उन का चूल्हा शास्त्री जी के निधन के दिन भी नहीं जला।

31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन मैं दिल्ली में था। तब तक मैं नवभारत टाइम्स में आ गया था। माता-पिता से दूर। नवभारत टाइम्स ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश का अलग संस्करण शुरू करने के लिए मेरठ में उस का क्षेत्रीय कार्यालय बनाया था। मैं पहला प्रभारी था। दिल्ली से मेरठ जा रहे मेरे कार्यालयीन वाहन का ड्राइवर एक नौजवान सिख था। मोदीनगर में हमारी गाड़ी को उग्र भीड़ ने रोक लिया। वे ड्राइवर को खांचे कर बाहर निकालने लगे। मैं ने भीड़ को समझाने की कोशिश की। जैसे-तैसे गाड़ी भगाई। रात को माता-पिता को फ़ोन किया तो मालूम हुआ कि, बिना किसी के कहे, घर में चूल्हा आज भी नहीं जला है। अगले कई दिन ड्राइवर को अपने घर में छिपा कर रखा। 3 नवंबर को इंदिरा जी का अंतिम संस्कार होने के अगले दिन उसे दिल्ली छोड़ने गया।

इस के पौने सात साल बाद जब राजीव गांधी ही हत्या हुई तो उस यात्रा में मैं जाते-जाते रह गया था। चुनावी दौरा कवर करते हुए एक दिन पहले ही उन के साथ दिल्ली लौटा था। अगले दिन राजीव जी दक्षिण भारत चले गए। उन का हैलीकॉप्टर कैप्टन विजय त्रेहन उड़ाते थे। उन से मैं ने कहा कि अगली यात्रा में फिर साथ चलूंगा। लेकिन राजीव जी की यात्रा पर तो पूर्ण विराम लग चुका था। मेरे पिता चार बरस पहले गुज़र चुके थे। वह 1991 के मई महीने का चौथा बुधवार था, जब मैं ने मां को फ़ोन किया। पिछली रात राजीव जी की हत्या हुई थी। मां की आवाज़ भारी थी। उन्होंने न कभी नेहरू जी को देखा था, न शास़्त्री जी को, न इंदिरा जी को, न राजीव जी को। उन के लिए इतना ही काफी था कि वे हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं। मैं ने पूछा, खाना खा लिया? बोलीं, नहीं आज शुक्ल पक्ष की नवमी है। व्रत है। मैं जानता था कि व्रत नहीं है। मैं जानता था, व्रत क्यों है?

तब सब अपने आप होता था। बिना किसी के कहे हम तिरंगा लहराते थे। बिना किसी के थोपे हम अपने फ़र्ज़ निभाते थे। सोचता हूं, आज हमारे स्वाभाविक-भावों के लिए भी आयोजन-प्रबंधन तकनीकों के इतने उत्प्रेरक क्यों इस्तेमाल किए जाते हैं? क्या हम वैसे नहीं रहे? या, क्या हमारे प्रेरणा-व्यक्तित्व वैसे नहीं रहे? जन-मन की नैसर्गिक तरंगों को बाज़ारू-आवरणों की ज़रूरत क्यों पड़ने लगी है? मनोभाव हाशिए पर कैसे चले गए? सब-कुछ मंचीय-प्रयोजन में तब्दील कैसे हो गया? मेरी यादों की बूंदों से झांकते सवालों का जवाब मिले तो मुझे भी बताइएगा।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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