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लोकतंत्र का सच झूठ

कुछ लोग विदेशी नेताओं के जमावड़े में भारत के लोकतंत्र का गौरव बखानने की तैयारी कर रहे हैं। इस दावे से कि भारत में ही लोकतंत्र पैदा हुआ, आदि। यह दिखाता है कि अंग्रेजों के जाने के 75 वर्ष बाद भी हम गुलाम और हीन मानसिकता से ग्रस्त हैं। हमारे नेता और बौद्धिक पश्चिम की नकल, और ठकुरसुहाती से निकल स्वतंत्र चिंतन और व्यवहार नहीं अपना सके हैं। जब जिस पश्चिमी विचार का वर्चस्व हो, वे अपने को ‘हम भी वही’ की भंगिमा ओढ़ मैसी साहब की तरह इतराने लगते हैं।पार्टियों और नेताओं की सारी लड़ाई में ‘जन-सेवा’ है ही नहीं। वह केवल राजकीय लूट पर मुख्य अधिकार के लिए है। अतः लोकतंत्र का झूठा गीत गाने के बदले इस की भयंकर गड़बड़ियाँ सुधारने की चिन्ता ही सम्मान की बात होगी।

हमारे कुछ लोग विदेशी नेताओं के जमावड़े में भारत के लोकतंत्र का गौरव बखानने की तैयारी कर रहे हैं। इस दावे से कि भारत में ही लोकतंत्र पैदा हुआ, आदि। यह दिखाता है कि अंग्रेजों के जाने के 75 वर्ष बाद भी हम गुलाम और हीन मानसिकता से ग्रस्त हैं। हमारे नेता और बौद्धिक पश्चिम की नकल, और ठकुरसुहाती से निकल स्वतंत्र चिंतन और व्यवहार नहीं अपना सके हैं। जब जिस पश्चिमी विचार का वर्चस्व हो, वे अपने को ‘हम भी वही’ की भंगिमा ओढ़ मैसी साहब की तरह इतराने लगते हैं। कुछ दशक पहले तक वे अपने को ‘समाजवादी’ कहते थकते न थे, क्योंकि तब समाजवाद का जोर था। भाजपा ने तो अपना उद्देश्य ही ‘(गाँधीवादी) समाजवाद’ घोषित कर रखा है, परन्तु कैसा विचित्र कि उन के नेता इस का नाम कभी नहीं लेते!

चूँकि अब समाजवाद का पतन हो चुका और पश्चिमी लोकतंत्र ही प्रभावशाली है, तो अब हमारे नेता अपने को लोकतंत्र के महान प्रेमी के रूप में पेश कर अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं। जबकि यह दोहरी फूहड़ता है। एक तो भारतीय इतिहास के गौरव में राम राज्य, अशोक, गुप्त काल, शिवाजी, आदि ही आते हैं। यह सभी लोकतंत्र नहीं, अपितु मर्यादित राजतंत्र थे। फिर, आज लोकतंत्र पश्चिम में व्यापक है, इस से यह सर्वोत्तम नहीं हो जाता। आरंभ से ही लोकतंत्र को मूर्खों का, खर्चीला, धूर्त आडंबरी शासन, योग्यता-विरोधी, आदि कहकर आलोचनाएं होती रही हैं। पूरी की पूरी पुस्तकें लिख कर पश्चिमी विद्वानों ने ही इसे व्यवस्थित रूप से बताया है। उस की सचाई तमाम लोकतंत्री नेता बखूबी जानते हैं।

इसीलिए, हमारे द्वारा अपने को लोकतंत्री कहकर इतराने से पश्चिमी नेताओं को मन ही मन हँसी ही आएगी। मानो एक चोर अन्य चोरों के सामने यह दावा कर कि उस के पूर्वजों ने धर्म-कथा लिखी थी, उन से शाबासी चाहे। क्योंकि चोर तो अपनी और सामने वाले की असलियत जानता है। जो यही है कि लोकतंत्र भी एक अल्पतंत्रीय शासन है जो लोगों को चार/पाँच साल में एक बार, केवल यह तय करने की छूट देता है कि वह किस के हाथों लुटना और बेवकूफ बनना चाहता है? इस के अलावा सारी बातें, गितनी के लोग तय करते हैं, जो स्वयं तरह-तरह की लफ्फाजी कर सकने के अलावा शायद ही कभी कोई अन्य योग्यता रखते मिलते हैं। यह अमेरिका यूरोप के देशों के अनुभवों से ही महान विद्वानों ने लिखा है। हेनरी एडम की ‘डेमोक्रेसी’ (1880), एमिल फगे की ‘द कल्ट ऑफ इनकॉम्पीटेंस्’ (1911), रॉबर्ट मिचेल्स की ‘पोलिटिकल पार्टीज’ (1911), हेनरी मेन्केन की ‘नोट्स ऑन डेमोक्रेसी’ (1927), या विल ड्यूराँ की ‘प्लेजर्स ऑफ फिलॉसोफी’ (1929) से लोकतंत्रों की असलियत समझी जा सकती है।

तब पश्चिम की ऊपरी नकल से भारतीय लोकतंत्र की स्थिति उन से बदतर ही है। गत सत्तर सालों के अखबारों में तमाम बड़े कार्टूनिस्टों, जैसे शंकर, लक्ष्मण, अबू, मूर्ति, मारियो, रंगा, काक, आदि के अंतहीन अवलोकनों से ही हमारे लोकतंत्र की तस्वीर स्वतः सामने आ जाती है। जो उक्त सभी निष्कर्षों – मूढ़ता, धूर्तता, लूट, और अयोग्यता – की बढ़-चढ़ कर पुष्टि करती है। अतः लोकतंत्र की डींग हाँकने से अधिक उस की खामियाँ सुधारने का प्रयास ही सार्थक होता। परन्तु हमारे बौद्धिक और नेता केवल अपनी संकीर्ण, सुखद दुनिया में रहना पसंद करते हैं।

जबकि हमारे चालू तंत्र में विविध दलों, नेताओं द्वारा लोगों को तरह-तरह से बाँट कर अपना उल्लू सीधा करना, सार्वजनिक धन की लूट और बर्बादी, और घोर उत्तरदायित्वहीनता ही नित्य समाचारों में सब से सामान्य है। सांसद, विधायक ही नहीं, एक मुखिया तक के चुनाव में उम्मीदवार पचास-पचास लाख रूपये तक खर्चते हैं। फिर उस की सूद समेत वसूली उन की मुख्य चिन्ता होती है, यह सारा देश जानता है। किन्तु भावना यह बनाई गई है कि इस का कुछ नहीं हो सकता, जो सच नहीं। संसाधनों की अकूत बर्बादियाँ रोकी जा सकती हैं, राजकीय पदधारियों को जबावदेह बनाया जा सकता है, और महत्वपूर्ण पदों पर योग्य निष्ठावान लाये जा सकते हैं। जैसा निजी क्षेत्र के संस्थानों, क्रियाकलाप में सहज ही होता है। किन्तु राजकीय क्षेत्र में नहीं होता तो इसलिए क्योंकि हमारे दलों, नेताओं की चिन्ता में यह शामिल ही नहीं है। बहुतेरे तो यह सब समझने में भी असमर्थ हैं। इसलिए अधिकांश व्यवस्था जैसे-तैसे चलती है। इसी पर कुछ मुलम्मा चढ़ा, लीपापोती कर, एवं बेतहाशा प्रचार से लोगों को भ्रमित कर ‘सब ठीक है’ के अंदाज में लूटतंत्र, मूर्खतंत्र, धूर्ततंत्र के रूप में लोकतंत्र चल रहा है।

चूँकि यह सर्वव्यापी है और बिलकुल खुले रूप में हो रहा है, इसलिए लूटतंत्र नहीं लगता। अमेरिकी लेखक एडगर अलेन पो की कहानी ‘द परलोइन्ड लेटर’ (१८४४) से इसे समझ सकते हैं। किसी रानी का एक पत्र किसी मंत्री ने चुरा लिया। वही चोर है, यह मालूम है। पर चोरी की वह मूल्यवान चीज ऐसी धृष्टता से अपने घर में सामने ही रखे हुए है कि पुलिस टीम कल्पना ही नहीं कर पाती कि वह वहीं है! फलतः वह पकड़ा नहीं जाता। लोकतंत्र के सर्वोच्च कर्णधारों, चौकीदारों की लूट वैसी ही है। हर तरह की कुव्यवस्था, बर्बादी, और मनमानी। वह भी ‘उत्तरदायित्व’, ‘न्याय’, ‘जाँच-पड़ताल’, ‘दंड’ आदि की विस्तृत खर्चीली व्यवस्था, भारी नौकरशाही सरंजाम के साथ! इसीलिए लोकतंत्र की नियमित लूट-व्यवस्था उस कहानी से तुलनीय है। कि यह इतनी साधिकार खुलेआम होती है कि लगता ही नहीं कि इस में कोई गड़बड़ी है।

एक उदाहरण लीजिए – हमारे बैंकों द्वारा समय-समय पर बड़े-बड़े कारपोरेट के हजारों करोड़ के कर्ज को ‘बैड लोन्स’ कह कर रफा-दफा कर देना। फिर उन्हीं के साथ नये-नये अनुबंध का रास्ता खुला रखना। यह दशकों से चल रहा है। प्रायः सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में यह होता है। क्या कंपनियाँ, सामान्य दुकानदार, या ऐसे निर्णय करने वाले अधिकारी, नेता, बैंक बोर्ड के सदस्य स्वयं अपने कारोबार में ऐसा करते हैं? तब वे सार्वजनिक धन के हजारों हजार करोड़ रूपये जब-तब कैसे जाने देते हैं? यह अयोग्यता को प्रश्रय से अधिक बड़ी बात लगती है। यह संगठित मनमानी जैसी है। कोई कारण नहीं कि व्यक्तियों, कंपनियों के लेन-देन, समझौतों के पूरा न करने पर कोई कार्रवाई न की जाए। फिर कंपनियों द्वारा बैंक के कर्ज ‘न चुकाना’, या ‘न चुका पाना’ की जाँच-परख की कोई व्यवस्था है, या दिखावटी है, या नहीं है – यह सूचना कभी साफ साफ नहीं मिलती।

दूसरा उदाहरण लीजिए। कुछ वर्ष पहले बिहार के एक मुख्यमंत्री ने कहा था कि एक चलन यह भी है कि बड़े-बड़े ठेके में कंपनियों को पहले ही बता दिया जाता है, कि यदि किसी निर्माण में कुल खर्च 500 करोड़ होने वाला है, तो वह औपचारिक आवेदन में एक हजार करोड़ खर्च का अनुमान दिखाए, और वह अतिरिक्त रकम सत्ताधारी दल/नेता को दे दे। हाल में वहाँ 1700 करोड़ की लागत से बना नया पुल गिर गया, और खबर आई कि ‘किसी को कुछ नहीं होगा’। याद रहे, ऐसी बातें ब्रिटिश राज में अकल्पनीय थी, जिस के बनाए कानून और नियम ही आज तक यहाँ चल रहे हैं। मगर इस तरह मानो शासकों के लिए को नियम, जबावदेही, आदि हैं ही नहीं!

ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। जिस से वही निष्कर्ष मिलता है जो एडम, मेन्केन, फगे, आदि ने सौ वर्ष पहले दिया था। कि लोकतंत्र में अयोग्यता की पूजा होती है। पार्टियों और नेताओं की सारी लड़ाई में ‘जन-सेवा’ है ही नहीं। वह केवल राजकीय लूट पर मुख्य अधिकार के लिए है। अतः लोकतंत्र का झूठा गीत गाने के बदले इस की भयंकर गड़बड़ियाँ  सुधारने की चिन्ता ही सम्मान की बात होगी।

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By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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