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वेदों में पृथ्वी की कल्याण कामना

ऋग्वेद 1/85/2 के अनुसार पृथ्वी को माता मानने वाले देशभक्त सम्मान को अपने अधिकार में रखते हैं। अथर्ववेद 12/1/62 मे कहा गया है कि हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों। ऋग्वेद 5/66/6 मे कहा है की हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें।- यतेमहि स्वराज्ये। अथर्ववेद 10/7/31 के अनुसार स्वराज्य से बढ़कर और कुछ उत्तम नहीं है।- यस्मान्नानयत् परमस्ति भुतम् ।

धर्म हमारे राष्ट्र के कण-कण में संव्याप्त होने के कारण ही भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के रूप में जाना जाता रहा है। यही कारण रहा है कि हमारे आदि पूर्वजों ने भारत भूमि को माता कहा है। माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्याः अर्थात भूमि मेरे माता, मैं भूमिपुत्र की भावना रखने वाले इस राष्ट्र के आदि पूर्वजों ने ब्रह्मज्ञान पाया व ब्रह्मसाक्षात्कार किया। विश्व को परिवार मानने की उच्चतम भावना भी इसी भारत भूमि से उपजी है। राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है- रातियों का संगम स्थल। राति शब्द देने का पर्यायवाची है। राष्ट्रजनों के द्वारा अपनी-अपनी देन राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित कर दिए जाने के कारण ही  राष्ट्रभूमि और राष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र कही जाती है। आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के उद्घोषक श्री अरविंद कहते हैं -राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है। भारत की सांस्कृतिक यात्रा का विवरण प्रस्तुत करने वाली संसार की प्रथम स्मृति ग्रंथ मनुस्मृति 1/136, 137,139 के अनुसार सदाचार, नैतिकता देवत्व के संवर्द्धन व प्रचार -प्रसार में विश्वास रखने वाली सनातन संस्कृति धर्मी भारतवर्ष रूपी यह पावन अभियान सरस्वती और दृषद्वती नामक दो देवनदियों के मध्य देव विनिर्मित देश ब्रह्मावर्त से आरंभ हुआ। सनातन वैदिक परम्परा में ईश्वर प्रणीत ज्ञान माने जाने वाले ऋग्वेद आदि चारों वेद संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ हैं। इन वेदों में मातृभूमि और राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्तव्यों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है।

अथर्ववेद 19/41/1 में कहा गया है कि आत्मज्ञानी ऋषियों के द्वारा जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के आरंभ में दीक्षा लेकर किए गए तप से राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विबुध अर्थात विद्वान होकर इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें। क्योंकि राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे विद्वानों पर ही हैं । राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाने का भार इन पर ही है। ऋग्वेद 1/23/10 के अनुसार देशभक्त सचमुच उग्रा अर्थात तेजस्वी होते है। ऋग्वेद 1/85/2 के अनुसार पृथ्वी को माता मानने वाले देशभक्त सम्मान को अपने अधिकार में रखते हैं। अथर्ववेद 12/1/62 मे कहा गया है कि हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों। ऋग्वेद 5/66/6 मे कहा है की हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें।- यतेमहि स्वराज्ये। अथर्ववेद 10/7/31 के अनुसार स्वराज्य से बढ़कर और कुछ उत्तम नहीं है।- यस्मान्नानयत् परमस्ति भुतम् ।

वेदों में राष्ट्रभक्ति के मंत्रगान भी किए गए हैं। अथर्ववेद 12/1/62 के अनुसार हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों।- वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम । इस प्रकार वेद वैदिक धर्मियों को सदैव राष्ट्रभक्त बनने की आज्ञा देता है। इस राष्ट्र का सीमांकन करते हुए उसे हविष्य अर्पित करने की आज्ञा परमेश्वर ने ऋग्वेद में दिया है-

यस्य इमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रंरसया सह आहुः।

यस्येंमे प्रदिशो यस्य तस्मै देवा हविषा विधेम।। -ऋग्वेद 1/121/4

अर्थात- हिमवान हिमालय जिसका गुण गा रहा है, नदियों समेत समुद्र जिसके यशोगान में निरत है, बाहु सदृश दिशाएं जिसकी वन्दना कर रही है, उस राष्ट्र-देव को हम अपना हविष्य अर्पित करें।

ऋग्वेद के परिशिष्ट श्रीसूक्त के सातवें मंत्र में राष्ट्र की कल्याण कामना की गई है-

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।

प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।। -श्रीसूक्त 7

अर्थात- हे देव, हमें देवों के सखा कुबेर, और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति (यश) उपलब्ध करायें, जिससे हमें और राष्ट्र को कीर्ति-समृद्धि प्राप्त हो।

महाभारत के भीष्म पर्व में भारत की यशोगान करते हुए कहा गया है कि  भारतवर्ष इन्द्र को प्यारा था। भारत को वैवस्वत मनु ने अपना प्रियपात्र बनाया था । विष्णुपुराण 2/3/1 में भी भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या अंकित है-

अत्रतेकीर्तयिष्यामिवर्षभारतभारतम्।

प्रिययमिंद्रस्यदेवस्यमनोवैंवस्वतस्यच ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे देश का प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त और भारतवर्ष है ।

वेदों में राष्ट्रवाद के व्याख्या के क्रम में राष्ट्र के शासन- प्रशासन, विधि- विधान का भी विस्तृत अंकन हुआ है। यजुर्वेद 1/1में कहा गया है कि भ्रष्ट व चोर लोग हम पर शासन न करें। – मा नः स्तेन ईशतः। यजुर्वेद 29/39 के अनुसार हम धनुष अर्थात् युद्ध-सामग्री से सब दिशाओं पर विजय प्राप्त करें। ऋग्वेद 1/8/4 के अनुसार हमला करने वाले शत्रु को हम पीछे हटा देवें। ऋग्वेद 10/18/10 मे मनुष्यों को इस मातृभूमि की सेवा करने की आज्ञा दी गई है। यजुर्वेद 9/22 में मातृभूमि को बारम्बार नमस्कार किया गया है-

नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै ।

-यजुर्वेद 9/22

अर्थात- मातृभूमि को हमारा नमस्कार हो, हमारा बार-बार नमस्कार हो ।

अथर्ववेद का 12 वां कांड पूर्णतः राष्ट्रीय कर्तव्यों के लिए समर्पित है। अथर्ववेद 12/1/56 में मातृभूमि के लिए सदा उटं विचार आने की प्रार्थना करते हुए कहा गया है-

ये ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधि भूम्याम् ।

ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते ।।

-अथर्ववेद 12/1/56

हे मातृभूमि ! जो तेरे ग्राम, जंगल, सभा- समिति अर्थात कौन्सिल, पार्लियामेन्ट आदि अथवा संग्राम स्थल हैं, हम उन में से किसी भी स्थान पर क्यों न हो सदा तेरे विषय में उत्तम ही विचार तथा भाषण आदि करें । तेरे हित का विचार हमारे मन में सदा बना रहे।

अथर्ववेद 12/1/62 में कहा गया है कि हे मातृभूमि ! हम सर्व रोग-रहित और स्वस्थ होकर तेरी सेवा में सदा उपस्थित रहें । तेरे अन्दर उत्पन्न और तैयार किए हुए स्वदेशी पदार्थ ही हमारे उपयोग में सदा आते रहें । हमारी आयु दीर्घ हो। हम ज्ञान-सम्पन्न होकर आवश्यकता पड़ने पर तेरे लिए प्राणों तक की बलि को लाने वाले हों।

वेद में उत्तम राष्ट्रीय धर्म का वर्णन करते हुए राष्ट्र के ऐश्वर्य में भी वृद्धि करने हेतु यत्न करने के लिए उपदेश दिया गया है। ईश्वर से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक कल्याण के साथ ही राष्ट्र कल्याण के लिए भी प्रार्थना करने का उपदेश दिया गया है। अथर्ववेद 6/39/2 में ईश्वर से हमें परम ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र को प्रदान करने की प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हम आपके शुभ-दान में सदा यशस्वी होकर रहें। अथर्ववेद 12/1/1 में राष्ट्र की उन्नति के लिए सत्य, विस्तृत अथवा विशाल ज्ञान, क्षात्र-बल, ब्रह्मचर्य आदि व्रत, सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहन करना, धन और अन्न, स्वार्थ-त्याग, सेवा और परोपकार की भावना आदि गुणों को धारण करने वाले हैं । इन सब भावनाओं को एक शब्द धर्म के द्वारा धारित की जाती हैं।

वेद में राष्ट्र को हमारे अस्तित्व का आधार कहा गया है। वेद में नागरिकों के अधिकार के साथ मौलिक राष्ट्रीय कर्तव्य का भी वर्णन हुआ है। यजुर्वेद : 9.23 मे कहा गया है कि हम राष्ट्र के बुद्धिमान् नागरिक अपने राष्ट्र में सर्वहितकारी होकर अपनी सद्प्रवृत्तियों के द्वारा निरन्तर आलस्य छोड़कर जागरूक रहें। उत्तम भाषा, संस्कृति और भूमि, इन तीनों को इड़ा, सरस्वती और मही नाम की संज्ञा प्रदान करते हुए वेद में इनको हृदय में सदा स्थान देने का उपदेश दिया गया है। ऋग्वेद 1/13/9 में उन्हें कल्याणकारिणी देवी बताते हुए यह प्रार्थना की गई है कि वे हमारे हृदय में सदा विराजमान रहें। परमेश्वरोक्त ग्रंथ  वेद में अंकित राष्ट्र की सर्वतोमुखी उन्नति में सहायक सभी कर्तव्यों का पालन करने से राष्ट्र निश्चित ही उन्नति के शिखर पर पहुँच वैश्विक नेतृत्व को पुनः प्राप्त कर सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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