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वहीदा- संवाद कम, अभिव्यक्ति ज़्यादा

वहीदा की लगभग नब्बे फ़िल्मों में ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ भी हैं जिनमें उन्होंने गुरुदत्त के साथ काम किया। ये हिंदी सिनेमा की बेहद अहम फ़िल्में हैं। ‘प्यासा’ और ‘कागज़ के फूल’ तो अपने यथार्थपरक कथ्य के कारण देश की अग्रणी फ़िल्मों में गिनी जाती हैं। लेकिन वहीदा को अपनी फिल्मों में सबसे ज्यादा ‘गाइड’ पसंद है।वहीदा रहमान को ‘रेशमा और शेरा’ के लिए 1971 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिर 1972 में उन्हें पद्मश्री और 2011 में पद्मभूषण दिया गया। दादा साहब फाल्के पुरस्कार जो 1969 में शुरू हुआ, अब तक 52 फ़िल्मी हस्तियों को दिया गया है जिनमें वहीदा को मिला कर केवल आठ महिलाएं हैं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

एक अस्पताल के साइकेट्री वार्ड की एक नर्स को प्रेम में नाकाम रहने के कारण मानसिक रोगी बने एक युवक से प्रेम का दिखावा करना पड़ता है ताकि वह ठीक हो सके। यह उसके इलाज का हिस्सा है। वह युवक ठीक होकर जब अस्पताल से घर लौट जाता है तो नर्स ठगी सी रह जाती है। मगर तभी, वैसा ही एक और मरीज़ अस्पताल में भर्ती होता है और उस नर्स को फिर वही प्रक्रिया दोहरानी पड़ती है। किसी ने इस बात की सुध नहीं रखी कि इस इलाज में वह अपनी वास्तविक भावनाएं पिरो रही थी। और जब दूसरे युवक के भी ठीक होकर घर जाने का समय आया तो यह नर्स खुद अपने मानसिक ब्रेकडाउन पर पहुंच गई। ‘ख़ामोशी’ फ़िल्म के क्लाइमैक्स में अस्पताल के तमाम लोग हतप्रभ खड़े देखते रहते हैं और इस नर्स को इलाज के लिए उसी कमरे में बंद किया जाता है जहां बारी-बारी उसके दोनों मरीज़ रहे थे। यह दर्शकों को स्तब्ध कर देने वाला अंत था।

सन 1970 में आई यह फ़िल्म बांग्ला लेखक आशुतोष मुखर्जी की ‘नर्स मित्र’ नामक कहानी पर बनी थी। इसके निर्देशक असित सेन इसी कहानी पर ग्यारह साल पहले सुचित्रा सेन को लेकर बांग्ला में ‘द्वीप जेले जाई’ बना चुके थे। फिर 1960 में इसी की तेलुगु रीमेक ‘चिवराकु मिगिलेडि’ में सावित्री ने इस नर्स की भूमिका निभाई थी। बांग्ला और तेलुगु संस्करण तो जबरदस्त हिट रहे थे, पर ‘ख़ामोशी’ ज़्यादा नहीं चली थी। वहीदा कहती थीं कि शायद वे सुचित्रा सेन और सावित्री के स्तर का अभिनय नहीं कर पायीं।

उन्हें इस भूमिका के लिए कोई पुरस्कार भी नहीं मिला। उन दिनों फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की खूब धाक थी और उनके लिए बहुत मारामारी रहा करती थी। 1971 के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में ‘ख़ामोशी’ के लिए वहीदा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री वाली श्रेणी में नामांकित तो हुईं, पर पुरस्कार मिला ‘खिलौना’ के लिए मुमताज़ को। लेकिन अब जब वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा हुई है तो कोई भी उनकी बेहतरीन फिल्मों में ‘प्यासा’, ‘गाइड’, ‘कागज़ के फूल’, ‘तीसरी कसम’ और ‘रेशमा और शेरा’ के साथ ‘ख़ामोशी’ को गिनाना नहीं भूलता।

कोई भी व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ता है तो दूसरे कुछ लोग उसका बहाना बनते हैं। वहीदा के मामले में सबसे पहले वह गुरु बहाना बना जिसने उन्हें मुस्लिम होने के बावजूद उनकी ज़िद पर छोटी सी उम्र में भरतनाट्यम सिखाया। पिता मोहम्मद अब्दुर्रहमान सरकारी अधिकारी होने के साथ उदार विचारों के व्यक्ति भी थे, सो उन्होंने वहीदा को नृत्य के कार्यक्रमों में जाने की अनुमति दे दी। विशाखापट्टनम के ऐसे ही एक कार्यक्रम में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी ने वहीदा के नृत्य और उनके पिता की तारीफ़ की थी। पिता दुनिया से जल्दी चले गए। तब पिता का वह दोस्त बहाना बना जो चाहता था कि वहीदा फिल्मों में काम करें। किसी तरह मां तैयार हुईं और तेलुगु की ‘रोजुलु मारायी’ में वहीदा ने एक गाने पर नृत्य किया। यह फिल्म एक बड़ी हिट साबित हुई। इसी के जुबली समारोह में हैदराबाद में गुरुदत्त ने वहीदा को देखा। और वहीदा के करियर का सबसे बड़ा बहाना गुरुदत्त बने। उन्होंने तीन साल के लिए ढाई हजार रुपए महीने पर वहीदा को अनुबंधित कर लिया।

देव आनंद और राज खोसला दोनों गुरुदत्त के गाढ़े दोस्त थे। ‘सीआईडी’ और ‘प्यासा’ की शूटिंग एक साथ चल रही थी। दोनों गुरुदत्त की फिल्में थीं। ‘प्यासा’ का निर्देशन वे खुद कर रहे थे जबकि ‘सीआईडी’ राज खोसला के हवाले थी। एक दिन वहीदा की बाबत अपनी एक उलझन राज खोसला ने गुरुदत्त के सामने रखी। उन्होंने कहा कि दक्षिण की होकर भी यह लड़की उर्दू-हिंदी ठीक बोल लेती है, लेकिन अटकती है यानी फ़ंबल करती है। गुरुदत्त ने उन्हें समझाया कि इस लड़की को लंबे डायलॉग मत दो, नहीं तो यह अटपटा जाएगी। शायद इसीलिए वहीदा की शुरूआती कई फिल्मों में हम उन्हें छोटे-छोटे वाक्य बोलते हुए ही देखते हैं। यह बात गुरुदत्त ने हैदराबाद में वहीदा से अपनी पहली मुलाकात में ही भांप ली थी कि कुछ कहने की बजाय इस लड़की की आंखें और चेहरा ज्यादा व्यक्त करते हैं। शायद यह भरतनाट्यम का प्रभाव था। और यह ऐसी ख़ूबी थी जिससे गुरुदत्त हमेशा प्रभावित रहे। अक्टूबर 1964 में खुदकुशी करने तक।

उसी साल वहीदा रहमान ने ‘शगुन’ नाम की एक फ़िल्म में काम किया था जिसमें कमलजीत उनके हीरो थे। इस फिल्म के गाने कमाल के थे जो लोगों को आज भी याद और पसंद हैं। खैयाम के संगीत में उनकी पत्नी जगजीत कौर का गाया ‘तुम अपना रंजो ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो‘ इसी फ़िल्म में निवेदिता पर फ़िल्माया गया था। तो ये जो कमलजीत साहब थे उनका असली नाम शशि रेखी था और उन्होंने कुल तेरह फ़िल्मों में काम किया था जिनमें ‘सन ऑफ इंडिया’ भी थी। उन्हीं से वहीदा ने शादी की थी। सन 2000 में रेखी साहब का निधन हो गया। अब वहीदा के परिवार में बेटा सुहैल और बेटी काशवी हैं। बेटे की शादी कुछ ही समय पहले 2016 में एक भूटानी लड़की से हुई जिसमें भूटान के राज परिवार के सदस्य और वहीदा की सहेलियां आशा पारिख व हेलन भी शामिल हुई थीं। यह शादी भूटान के उसी होटल में हुई जहां सन 2005 में अपर्णा सेन अपनी फ़िल्म ‘15 पार्क एवेन्यू’ की शूटिंग के लिए वहीदा को ले गई थीं।

वहीदा की लगभग नब्बे फ़िल्मों में ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ भी हैं जिनमें उन्होंने गुरुदत्त के साथ काम किया। ये हिंदी सिनेमा की बेहद अहम फ़िल्में हैं। ‘प्यासा’ और ‘कागज़ के फूल’ तो अपने यथार्थपरक कथ्य के कारण देश की अग्रणी फ़िल्मों में गिनी जाती हैं। लेकिन वहीदा को अपनी फिल्मों में सबसे ज्यादा ‘गाइड’ पसंद है। यह एक ऐसे टूरिस्ट गाइड की कहानी थी जिसे उसकी ज़िंदगी आध्यात्म का गाइड बना कर दम लेती है। इसमें कोई प्रेम कहानी नहीं थी, बल्कि वहीदा को ऐसी औरत की भूमिका मिली थी जिसे जीवन में जो चाहिए था उसके लिए उसने विद्रोह किया। यही बात वहीदा को सबसे ज़्यादा भाती थी। वे कहती हैं कि उस ज़माने में एक शादीशुदा औरत का अपने पति से तलाक लिए बग़ैर किसी दूसरे आदमी के साथ रहने लगना एक बड़ी बात थी। उनसे कई लोगों ने कहा कि यह रोल लेकर तुम ग़लती कर रही हो, पर वे नहीं मानीं। ‘गाइड’ पूरी हुई तो इसकी स्पेशल स्क्रीनिंग पर इसके मूल लेखक और उपन्यासकार आरके नारायण भी आए। फ़िल्म ख़त्म होने पर बाहर निकलते हुए उन्होंने वहीदा से कहा- ‘आज तुम में मैंने अपनी रोजी को देखा।‘ वहीदा यह सुन कर अभिभूत हो गईं। उन्हें पाया कि अपने मन की बात सुन कर उन्होंने कितना सही फ़ैसला किया था।

नृत्य को लेकर भी वहीदा में एक अलग तरह की ज़िद रही है। एकदम कच्ची उम्र में जब मुस्लिम होने के नाते उन्हें भरतनाट्यम सीखने से रोकने की कोशिश की गई तो उन्होंने जैसे ठान लिया कि वे इसमें पारंगत होकर दिखाएंगी। ‘गाइड’ की अपनी भूमिका उन्हें इसलिए भी सबसे ज़्यादा पसंद है कि रोजी नृत्य के लिए बगावत करती है। नृत्य के कारण उन्हें अपनी ‘तीसरी कसम’ वाली भूमिका भी अत्यधिक पसंद है। लेकिन ‘गाइड’ की भूमिका से उनके लगाव का हाल तो यह था कि शूटिंग पूरी हो जाने के बाद निर्देशक विजय आनंद से उन्होंने गुजारिश की कि ‘मेरा डांस वाला कोई हिस्सा मत काटना, चाहे दूसरे किसी सीन को काट देना।‘

कितनी अजीब बात है कि नृत्य के प्रति उनके इस जुनून के बावजूद उनकी छवि वैजयंती माला, हेमा मालिनी और श्रीदेवी जैसी नहीं है जिन्होंने हिंदी फिल्मों में अपनी पहचान नृत्य के बूते बनाई। ‘चौदहवीं का चांद’ जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो वहीदा की छवि कोई ग्लैमरस हीरोइन की भी नहीं है। बल्कि उन्होंने कई बार परदे पर हीरोइन की जगह इंसान को पेश करने का प्रयास किया। उनके अभिनय का यह ऐसा कोण है जो उन्हें नूतन और सुचित्रा सेन की दिशा में ले जाता है।

वहीदा बचपन से ही देव आनंद की फ़ैन रही हैं। जब गुरुदत्त ने मुंबई बुला कर उन्हें ‘सीआईडी’ में काम दिया तो नेगेटिव रोल होते हुए भी उन्हें इस बात की खुशी थी कि वे देव आनंद के साथ काम कर रही हैं। उनके साथ उन्होंने कई फिल्में कीं। और कमाल देखिए कि जिस दिन उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा हुई वह देव आनंद का सौवां जन्मदिन था। वहीदा ने इस पुरस्कार को यह कहते हुए पूरे फिल्म उद्योग को समर्पित कर दिया है कि उद्योग के तमाम सहयोगियों के बगैर वे कुछ नहीं बन सकती थीं।

वहीदा रहमान को ‘रेशमा और शेरा’ के लिए 1971 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिर 1972 में उन्हें पद्मश्री और 2011 में पद्मभूषण दिया गया। दादा साहब फाल्के पुरस्कार जो 1969 में शुरू हुआ, अब तक 52 फ़िल्मी हस्तियों को दिया गया है जिनमें वहीदा को मिला कर केवल आठ महिलाएं हैं। महिलाएं इतनी कम क्यों हैं, इसका जवाब किसी के पास नहीं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि वहीदा को यह पुरस्कार देने में देरी की गई है। मगर पुरस्कारों का अपना अलग ही राग होता है। उनके पात्र होते हुए भी बहुत से लोग उनसे वंचित रह जाते हैं। फ़िल्मों के बाहर, दूसरे और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों में भी ऐसा होता है। जैसे कोई पूछ सकता है कि डॉ. एमएस स्वामीनाथन, जिनका हाल में निधन हुआ है, उन्हें नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला? क्या वे इसके हकदार नहीं थे?

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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