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इसका अर्थ तो अमित शाह विलन?

गजब रिपोर्ट है। प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में प्रतिष्ठित वैश्विक अखबार ‘द गार्डियन’ में छपी है। इसका एक लबोलुआब है कि नरेंद्र मोदी लोकतंत्र के वैश्विक इंडेक्सों में भारत की घटती रैंकिग से चिंतित है।दुनिया के‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ वाले भारतके सन् 2021 में वैश्विक डेमोक्रेसी इंडेक्स में खामियों भरेलोकतंत्र’ (flawed democracy) की केटेगरी में चले जाने से प्रधानमंत्री चिंता में आए थे। उन्होने अफसरों को कहा कि ऐसा कैसे हो रहा है। इसे ठिक करना है। पुरानी प्रतिष्ठा बहाली के लिए् सही के लोकतंत्र की कसौटियों, मापदंडों व उनके उपमापदंडों की जानकारी व डेटा को इकठ्ठा करके, उस अएनुसार लोकतंत्र सूचकांक में भारत के प्रदर्शन की निगरानी करते हुए जैसे भी हो वैश्विक रैंकिंग को बेहतर बनवानी है। इसलिए अफसरों की कमेटी बनी और उन्हें डेमोक्रेसी सुधारने का जिम्मा दिया गया।

प्रधानमंत्री को जरूरत इसलिए महसूस हुई क्योंकि यदि डेमोक्रेसी में रैंकिंग इस तरह गिरती गई, तो न विदेशी निवेश आएगा और न पश्चिमी देशों के साथ भरोसे के रिश्ते बनेंगे। इसलिए सचिवों के ग्रुप को चुपचाप जिम्मा दिया गया। कहने को भले सार्वजनिक तौर पर सरकार ने इन इंडेक्स को झुठा बतला किया है मगर भारत सरकार मिशन मोड में चुपचाप “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र” के रूप में भारत की पुरानी प्रतिष्ठा को लौटाने पर काम कर रही है।

‘दगार्डियन’के अनुसार रैंकिंग की चिंता के लिए बनी अफसरों की टीम की बैठको के हिस्सेदार एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि “प्रधानमंत्री लोकतंत्र सूचकांक को अधिक महत्व दे रहे थे…इस बाबत अधिकारियों की सन् 2021के बाद सूंचकांकों को ले कर चार बैठके हुई है। इनमें इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के वैश्विक लोकतंत्र सूचकांक (जिसने flawed Democracy की केटेगरी मेंभारत को रखा है।), अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउंस के इंडेक्स (जिसके अनुसार भारत अब ‘free democracy’  की जगह  “partially free democracy है), स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट (इसने भारत को “चुनावीनिरंकुशता”electoral autocracy” करार दिया हुआ है।) की सूचंकाकों को ध्यान में रख कर काम शुरू हुआ।

हाल में फरवरी में और अभी अमेरिकी यात्रा से ठिक पहले राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ बातचीत व अमेरिकी संसद में भाषण की तैयारी में भी लोकतंत्र के पहलू पर विचार हुआ। मजेदार बात यह कि मोदी की अमेरिकी यात्रा से ठिक पहले इस तरह की बैठकों की खबरें आई। ‘दगार्डियन’ की रिपोर्ट में एक सहभागी अफसर के बात व बैठक मिनिट्स का हवाला है। जिसकी ठोस अंदाज में खबर है कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार लोकतंत्र में भारत की गिरती प्रतिष्ठा को ले कर चिंता में है। वह गुप्त रूप से भारत की लोकतांत्रिक साख ठिक करने की कोशिश में है और गंभीर है।

सो दो बात है। या तो सरकार खुद अमेरिका, पश्चिमी देशों में माहौल ठिक कराने व सितंबर की जी-20 की शिखर बैठक के लिए पोजिटिव, अच्छा-अच्छा माहौल बनाने का यह प्रायोजित हल्ला बना रही है या ईमानदारी से कोशिश भी हो रही हो। तब नरेंद्र मोदी (और उनके कूटनीतिज्ञ) खुद पश्चिमी नेताओं को ऐसा भरोसा देते हुए होंगें कि मैं तो बहुत उदार और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की प्रतिष्ठा के लिए काम करता हुआ हू। मतलब पश्चिमी नेताओं और मीडिया में फील गुड बनवाना।

लेकिन असलियत है जो मोदी सरकार का गंदा लोकतांत्रिक आचरण वैश्विक सूंचकाकों-मीडिया में बोलता हुआ है। तब विश्व राजधानियों में फील गुड कैसे बने? इसके समाधान में बतौर रणनीति में फिर एक तरीका यह है कि दुनिया के आगे अपने सरकार के किसी एक को बलि का बकरा बनाए। नरेंद्र मोदी की साख पोजिटिव बने और उनकी सरकार का कोई दूसरा कोई विलन व खलनायक समझा जाए। जिसे  डेमोक्रेसी खत्म करने-करवाने कास्वभाविक कसूरवार समझा जाने लगे!

उस नाते ‘दगार्डियन’ रिपोर्ट की इन लाईनों पर गौर करें- डेमोक्रेसी के इंडेक्स में मुस्लिम बहुल कश्मीर, 2020 के मुस्लिम विरोधी दंगे, गैर-मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता जैसे मसले है। ये मुद्दे प्रशासनिक तौर पर गृह मंत्रालय संबंधी है जिसने आज तक इन मुद्दों को ले कर कोई सूचना या डेटा मुहैया नहीं कराया जो लोकतंत्र इंडेक्स के पैरामीटर व सब-पैरामीटर में आते है। और गृह मंत्रलाय के इस असहयोग को अफसरों की फरवरी में हुई बैठक में विधायी विभाग के एक अफसर ने बताया। अफसर ने बताया कि संबंधी विभाग या मंत्रालय से सूचना आए बिना कैसे विधायी विभाग लोकतंत्र इंडेक्स के परफोरमेंस की मॉनिटरिंग करते हुए वैश्विक रैंकिग को बेहतर बनवा सकता है। …इसके जवाब में गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि लोकतंत्रसूचकांककेमामलेपरचर्चाचलरहीहै और सुधारों की जो बाते है वे थ्योरिटिल प्रकृति की है।

मोटा मोटी सार है कि मोदी सरकार का एक हिस्सा लोकतंत्र व इमेज की चिंता में नहीं है। बैठक में खासकर अमित शाह के नेतृत्व वाले (जो मोदी के करीबी है और हार्डलाईन हिंदू राष्ट्रवादी) गृह मंत्रालय का रूख सहयोगात्मक नहीं है हालांकि मसले के केंद्र में वही है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों के मामले में!

जाहिर है पश्चिमी देशों, अमेरिका व योरोप और विश्व मीडिया में चुपचाप होशियारी के साथ अमित शाह पर लोकतंत्र की बरबादी का ठिकरा फूट रहा है। विदेश मंत्री जयशंकर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आदि की विश्व कूटनीति में लोकतंत्र, मानवाधिकारों, अल्पसंख्यकों व धार्मिक मामलों सबमें देश और नरेंद्र मोदी की जहा वैश्विक इमेज निखारने की कोशिश है वही अमेरिका, लंदन जैसी विश्व राजधानियों में अमित शाह व संघ परिवार के कट्टरपंथियों की रीति-नीति, पुराने एजेंडा का रोनाधोना बनता हुआ है कि हम तो चाहते है सुधार, इंडेक्सों में बेहतरी, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की साख लौटवाना लेकिन अमित शाह और उनका गृह मंत्रालय सुनने को ही तैयार नहीं। वह कोई परवाह नहीं कर रहा। हमारी भी मजबूरी है।

मतलबप्राब्लम अमित शाह। उनका गृह मंत्रालय और कट्टरपंथी संघ का एजेंडा। सोचे कैसा त्रासद मामला जो जैसे गुजरात के मुख्यमंत्री कार्यकाल में नरेंद्र मोदी की इमेज में पर्दे के पीछे के विलेन अमित शाह कहलाए वैसी ही अब वैश्विक लेवल पर वांशिगटन, लंदन के नेताओं व मीडिया में अमित शाह लोकतंत्र की बरबादी के लिए जिम्मेवार।

क्या में गलत हूं? … या यह माने कि साहब (नरेंद्र मोदी) ने अमित शाह को समझा रखा है कि क्या फर्क पड़ता है मैं डेमोक्रेसी का विश्व गुरू बन रहा हूं तो चिंता नहीं करों अपनी इमेज की। विश्व कूटनीति और वैश्विक मीडिया में अपनी इमेज की चिंता नहीं करना।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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