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आध्यात्मिक ज्ञान का चेतन स्वरूप गुरु

गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत्य होता है। पन्थ अथवा मजहब के परे संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखने वाले गुरु संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते, और आध्यात्मिक उन्नति की लगन वाले शिष्य की प्रतीक्षा में रहते हैं। वे किसी पर धर्मांतरण करने के लिए दबाव नहीं डालते। सर्वज्ञानी होने के कारण शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है।

3 जुलाई- गुरु पूर्णिमा

बुद्धि की समझ से परे सूक्ष्म स्तरीय विषय अध्यात्म सहित किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु मार्गदर्शक का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मानव जाति के अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु कहलाते हैं। उन्नत मार्गदर्शक अथवा गुरु आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ समान होते हैं।

सभी धर्म तथा संस्कृतियों के गुरु मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त सिखाते हैं। गुरु शब्द में गु का अर्थ अन्धकार है, और रु का अर्थ है प्रकाश। अर्थात गुरु का शाब्दिक अर्थ है- अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक। अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करने और सत्य दिशा अर्थात जो उचित हो, उस ओर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला ही सच्चे अर्थों में गुरु है। वेद-शास्त्रों का गृणन अर्थात उपदेश करने वाला गुरु होता है।

गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत्य होता है। पन्थ अथवा मजहब के परे संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखने वाले गुरु संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते, और आध्यात्मिक उन्नति की लगन वाले शिष्य की प्रतीक्षा में रहते हैं। वे किसी पर धर्मांतरण करने के लिए दबाव नहीं डालते। सर्वज्ञानी होने के कारण शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है। गुरु शिष्य को साधना के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं। वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते। गुरु सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं।

यही कारण है कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा  तिथि को हृदय के अज्ञान तिमिर को मिटाकर सत्य ज्ञान का दीपक प्रज्वलित कर भगवद्भक्ति, सन्मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा देने वाले गुरु का पूजन, नमन, स्तवन किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। गुरु पूजन दिवस होने के कारण ही आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा की संज्ञा प्राप्त है।

अनुशासन, समर्पण व आध्यात्मिक महोत्सव का संस्कार-सौरभ प्रदान करने वाला पुनीत पर्व गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा अर्थात गुरु पूर्णिमा का दिन मन्वंतर का प्रथम दिवस है, वेदव्यास द्वारा संकलित विश्व के मानवकृत प्रथम आर्षग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का आरंभिक दिवस है, और महाभारत की पूर्णाहुति एवं देवताओं की वरदान वृष्टि का दिवस भी  है। यह दिन चातुर्मास का प्रारम्भ, आध्यात्मिक पाठशालाओं के आरम्भ का दिन भी होता है। इस वर्ष 2023 में 3 जुलाई दिन सोमवार को आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा होने के कारण गुरु पूर्णिमा मनाई जाएगी।

पौराणिक मान्यतानुसार मनुष्य गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। इसलिए आरम्भिक काल से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। संत कबीर के विचार से तो गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है।

रामचरित मानस में तुलसीदास ने गुरू को मनुष्य रूप में नारायण मानकर उनके चरण कमलों की वन्दना करते हुए कहा है कि जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है। गुरु की महिमा का बखान करते हुए पौराणिक ग्रन्थों में कहा गया है कि सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं, जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरु का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है।

गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। लेकिन मनुष्य की यह अज्ञानता है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है, और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है, जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं। किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है।

शिष्य को अपना सर्वस्व गुरु के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। गुरु ज्ञान, गुरोपदेश गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन अधिकांश शिष्य गुरु को मानते हैं, परन्तु उनके संदेशों को नहीं मानते। यही कारण ही कि शिष्य के जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है। गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को गुरु मानना शुरू किया, उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है। और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर कर उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है। आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं, किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरु का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरु का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरु नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को श्रीमद्भागवत गीता18/66 में यही संदेश देते हुए कहा है कि सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति 2/142 में गुरु की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि जो विधि अनुसार गर्भाधान आदि संस्कारों को करता है, तथा अन्न आदि भोज्य पदार्थों द्वारा बालक का पालन- पोषण करता है, वह विद्वान द्विज गुरू कहलाता है । अर्थात जो वीर्यदान से ले के भोजनादि कराके पालन करता है, इससे पिता को गुरू कहते हैं। वैदिक विद्वानों के अनुसार निषेक अर्थात् ऋतु  प्रदान यह प्रथम संस्कार है। पिता निषेक करता है, इसलिए पिता ही मुख्य गुरू है। इस प्रकार स्पष्ट है कि निषक आदि संस्कारों को यथा विधि करने और अन्न से पोषण करने वाला गुरु है। पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं।

कूर्म पुराण में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची अंकित प्राप्य है। उसमें उपाध्याय, पिता, ज्येष्ठभ्राता, महीपति, मातुल, श्वसुर, मातामह अर्थात दादी, पितामह अर्थात दादा आदि पितृकुल व मातृकुल के अनेकों सम्बन्धियों को गुरु कहा गया है और इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान बताया गया है। युत्किकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण अंकित हैं। मंत्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं। सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है। उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थत: गुरु है। गुरुत्व के लिए वर्जित पुरुषों की सूची श्रीकालिका पुराण में दी हुई है।

भारत में आध्यात्मिक, धार्मिक गुरुओं के प्रति भक्ति की भावना अतिप्राचीन काल से प्रचलित है । प्राचीन काल से ही  गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का परम धर्म माना जाता रहा है। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में वेदों का ज्ञान व्यक्तिगत रूप से गुरुओं द्वारा श्रुति परम्परा अर्थात मौखिक शिक्षा के माध्यम से शिष्यों को दिए जाने की परम्परा थी। गुरु शिष्य का दूसरा पिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। पौराणिक ग्रन्थों में गुरु का स्थान सर्वोच्च बताते हुए कहा गया है कि भगवान समान गुरु की सेवा से ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य स्वरुप और सद्गुरु की शरण में निवास आदि लाभ एक साथ मिलते हैं।

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Published by अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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