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वे दिन थे अच्छे जब…

चुनाव

पूछ सकते हैं भारत में अच्छे दिन कब थे? तब जब वक्त बिना जलवायु परिवर्तन के था। मौसम की ऊंच-नीच ढर्रे में थी। संसद सत्र में अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण होते थे, बहस होती थी। लोकसभा में जाट स्पीकर बलराम जाखड़ भी वाजपेजी, आडवाणी, इंद्रजीत गुप्ता, मधु दंडवते सबको बोलने देते थे। सांसद के माइक  की आवाज तब गुल नहीं हुआ करती थी! 1983 में जब असम मध्य के 14 गांवों का नेल्ली (Nellie) नरसंहार हुआ था तो पूरे देश ने तत्काल खबर जानी थी। मीडिया ने फटाफट रिपोर्टिंग की थी। भारत की संसद के दोनों सदनों ने बाकी काम छोड़ कर उस त्रासदी पर बहस की। अपना क्षोभ प्रगट किया। दोनों सदनों के सदस्यों ने मृतकों के प्रति संवेदना प्रगट करते हुए मौन रखा। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आलोचना सुन घटनाक्रम पर अपना भी क्षोभ जाहिर किया।

ध्यान रहे असम की उस घटना के आगे मणिपुर की ताजा घटना प्रदेश-समाज विभाजन है। मणिपुर अब इतना विभाजित है कि खुद भारत सरकार को महिला के सामूहिक बलात्कार, नंगी महिलाओं के जुलूस के मुकदमें की सही सुनवाई के लिए असम में मुकदमें की सुप्रीम कोर्ट से अनुमति मांगनी पड़ रही है। प्रदेश में दोनों समुदाय एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गए हैं। उसकी वैश्विक चर्चा है। लेकिन संसद, सरकार और प्रधानमंत्री मृतकों के लिए दो मिनट का मौन तो दूर बहस तक से कन्नी काटे हुए हैं। उलटे इस पर चुनाव के वोट पकाने की राजनीति है।

‘अच्छा’ था तब जब भाजपा में भी वाजपेयी बनाम आडवाणी, डॉ. स्वामी बनाम वाजपेयी, उदारवादी बनाम हार्डकोर, विजय कुमार मल्होत्रा-सहानी-खुराना-सिकंदर बख्त बनाम अरूण जेटली, विजय गोयल की नई पीढी की खींचतान थी। झगड़े, प्रतिस्पर्धा की राजनीति थी। तब भाजपा में गुलामी नहीं थी। नेताओं को सांप सूंघा नहीं रहता था। मोदी व शाह जैसों की न भक्ति थी और न खौफ था। तब भाजपा, जिंदादिल मर्दों की, गांधीवादी समाजवाद बनाम हिंदू राजनीति जैसे दिखावे के ही सही ही, मतभेद लिए हुए होती थी।

पत्रकारिता, मीडिया, अदालतों, अफसरशाही के तब के अच्छे दिनों की याद कराऊंगा तो किताब लिख जाएगी। इसलिए नई दिल्ली की धड़कती जिंदगी की तब की तस्वीरों को ही कुछ याद करें। बोट क्लब पर तब रैलियां होती थी। रामलीला मैदान विरोध की आवाजों से गूंजा करता था। जिस प्रगति मैदान को प्रधानमंत्री मोदी ने नए पत्थरों से अभी सजाया है उसमें चित्रकलाओं का वैश्विक लेवल का त्रिनाले हुआ करता था। नाटक होते थे। फिल्मों के शो हुआ करते थे थीम विशेष पर। बंगाली मार्केट का पूरा चौराहा संगीत, नाटक, साहित्य-संस्कृति के इंद्रधनुषों-विविधतओं को देखने-सुनने और मजा लेने का सेंटर प्वांइट हुआ करता था।

तब कला थी। ज्ञान था। बुद्धि थी। साहित्य था। वह राजनीति थी, जिससे जनता का धड़कता जुड़ाव था। जनता से, उनके सरोकारों से और संवेदनाओं की राजनीति थी न कि भगवान और भक्ति का गंवारपना। संसद भवन के केंद्र से फैली सभी सड़कों पर स्थित सांसदों के घरों में तब लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। लोगों के काम होते थे। जन प्रतिनिधि अपने-अपने इलाके के लोगों के काम लेकर अफसरों, मंत्रियों के यहां जाया करते थे। वे काम करते थे, काम कराते थे और लोकतंत्र तब बाबूतंत्र नहीं था जैसा की आज है और जिसकी हकीकत में भाजपा का सांसद अपने इलाकों में जनता के बीच यह कहते हुए मुंह चुराए होता है कि मेरी तो कुछ चलती ही नहीं।

तभी सब ‘अच्छा’ खत्म है! पहले रेहड़ी वाले के लिए भी अधिकार के कानून बनते थे। बेरोजगारों के लिए मनरेगा कानून बना। नागरिक की सूचना के अधिकार का कानून बना। गरीब के नाम पर बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ तो नरसिंह राव ने तो पूरे मध्य वर्ग के लिए, देश के लिए सुधारों का पिटारा खोल दिया था। हर रेल बजट तब सफर किराए तथा भाड़े की जवाबदेही लिए होता था। आलू-प्याज के दाम बढ़ते थे या हवाई जहाज का किराया बढ़ता था तो संसद में हंगामा बरप पड़ता था। और अब?

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