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सोचें, अच्छा क्या बचा?

सचमुच ‘अच्छा’ कुछ भी नहीं! अधिकांश लोग या तो अपना रोना लिए मिलेंगे या भक्ति में बेसुध। आप कह सकते हैं कि ऐसा मैं पूर्वाग्रह में लिख रहा हूं। मैं खुद मानता हूं कि दिमाग-बुदधि की झनझनाहट में ‘अच्छा’ यदि खत्म हुआ लग रहा है तो ऐसा होना उम्र व अनुभव की वजह से है। हो सकता है नौजवान ऐसा न सोचें। आखिर उसने देखा ही क्या है। सो, गपशप मेरे परस्पेशन से है। मेरी दो टूक मान्यता है कि भारत का फैब्रिक बिगड़ गया है। भारत के मौजूदा वक्त, मौसम, परिवेश, ढांचे, बुनावट-बनावट और जिंदगी में पुराना ‘अच्छा’ सब खलास है। जलवायु, आबोहवा ऐसी बिगड़ी है कि मैं गर्मी, ह्यूमिडिटी से तौबा किए हुए हूं। सावन अब काटता है! झुलसाता है। घर से बाहर निकलने, सफर की इच्छा ही नहीं बनती है। पार्लियामेंट जा कर क्या करें? धरा क्या है वहां? मंत्रियों, नेताओं से क्या मिलें? इनकी दुकान में बचा क्या है? खबरों को क्या जानें जब झूठमेव सत्य है। संघ-भाजपा, कांग्रेस, आप या एक्सवाई पार्टी-संगठन की क्या खैर-खबर लें जब सभी वक्त काटते हुए हैं।

कभी नई दिल्ली में संसद, आईएनएस, सेंट्रल हॉल, पार्टी दफ्तर, मंडी हाउस एरिया में जानने-सुनने-देखने-समझने के दसियों चेहरे, तौर-तरीके हुआ करते थे। अफसरों-सचिवों-दलालों सबके बीच में बहुत कुछ होता रहता था। उनमें जानकारी थी, समझदार इंसानों जैसा व्यवहार था और अब? भगवान मालिक है। मानों ईश्वर का दिल्ली को, देश को कोई श्राप मिला है जो न गर्मजोशी, न मेल-मुलाकात, न बहस, न विचार और न निर्भयता याकि स्वतंत्रता, कलात्मकता, सृजनात्मकता, सत्य शोध कुछ भी नहीं बचा। पता नहीं जॉर्ज ऑरेवल यदि जिंदा होते और आज के भारत और उसके मुख्यालय नई दिल्ली को देखते तो वे अपने ‘एनिमल फार्म’ में कितनी तरह के ठूंठ, गंवार, मूर्खों के प्रतिनिधि पशुओं का उपन्यास रचते!

निश्चित ही जलवायु, मौसम ने पशुओं में भी घबराहट-बेचैनी बनाई होगी। आखिर मोदी के भारत में चीते भी जब मर रहे हैं तो ऐसा कुछ तो है, जिससे सबका जीना दूभर हुआ पड़ा है। बावजूद इसके जीना तो है, फिर भले भन्नाए रहते हुए जीयें। इस सप्ताह ‘ओपेनहाइमर’ फिल्म देखने की इच्छा हुई लेकिन सिनेमा टिकट की रेट सुन भन्नाहट बनी। फिल्म के बाद रेस्टोरेंट में पेट पूजा का तो बिल देख कर सोचना हुआ कि यदि एक छोटे मॉल में खाना इतना मंहगा है तो फाइव स्टार होटलों में क्या होता होगा? मेरा एक जानकार पुराना मकान व कार बेचकर नई खरीद की कोशिश में है तो उसकी अस्सी लाख रुपए में खरीदी कारों के पांच लाख रुपए नहीं मिल रहे हैं। ऐसे ही उसके पुराने मकान की सही रेट नहीं मिल रही,जबकि नए दो-दो कमरे का फ्लैट तीन-चार करोड़ रुपए की रेट में!

मुझे विश्वास नहीं हुआ एक नौजवान की इस बात पर कि उसने 2022-23 में क्रेडिट कार्ड के जरिए खरीदरी में ब्याज, लेट फीस व जीएसटी चार्ज में कोई साढ़े तीन लाख रुपए बैंक को दिए। सोचें, नई नौजवान पीढ़ी आंख मूंदकर डिजिटल पेमेंट, क्रेडिट कार्ड से जैसे खरीदारी करती है तो उन्हें अलग-अलग चार्ज, जीएसटी में कितना लूटा जा रहा है! लेकिन इन नौजवानों को न सुध है, न उनके बस में शोर कर, जवाब मांगना या गुस्सा जाहिर करना है।

निश्चित ही मैं दिल्ली की हकीकत पर बात कर रहा हूं लेकिन मेरा मानना है पूरा देश गर्म, चिपचिपी, लावारिस पर महंगी व खोखली जिंदगी भोगता हुआ है। गौर करें भारत की संसद, कार्यपालिका, सुप्रीम कोर्ट, नरेंद्र मोदी, अमित शाह या विपक्ष के तमाम चेहरों पर। क्या इन सबसे 140 करोड़ लोगों के लिए ऐसा कुछ भी है, जिससे ताजगी, हरियाली, जिंदादिली, स्फूर्ति, शारीरिक-मानसिक और खुशहाली की आर्थिक ऑक्सीजन प्राप्त हो। सब सड़ांध भरी कार्बन डाईआक्साइड छोड़ रहे हैं और दिल-दिमाग में जुगुप्सा बनाते हैं।

मोदी राज

परसों नरेंद्र मोदी सीकर में भाषण करते दिखलाई दिए। कुछ क्षण देख मैं अपने आप नरेंद्र मोदी के चेहरे, होंठ, जुबान और लाल किताब जैसे जुमलों पर उनके 2014 से पहले के चेहरे को याद करने लगा! मैंने 2014 से पहले अनेकों बार खासकर 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के कई भाषण सुने थे। मेरा मानना है उस वक्त के सच और आज के झूठ ने नरेंद्र मोदी के चेहरे की भाव भंगिमा को गजब बदला है। इतना कि अब वे अपने भक्तों के मानों कथावाचक हैं। वैसे ही जैसे इस सप्ताह मालूम हुआ कि बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री लंदन में यह कथावाचन कर रहे हैं कि पहले हम अंग्रेजों से सुनते थे लेकिन अब अंग्रेज हमसे सुनते हैं। मैं कोहिनूर लाऊंगा। और उनकी बातें सुन पढ़े-लिख एनआरआई तालियां बजाते हुए!

उफ! बागेश्वर के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री का मोदी राज में हिंदुओं का वैश्विक आध्यात्मिक दूत होना। विश्व संत होना! ऐसे ही इस सप्ताह संसद में विदेश मंत्री जयशंकर विपक्ष के ‘इंडिया’ पर तंज कसते हुए सुनाई दिए। उन्होंने इंडिया की उपलब्धियों में मोदीजी की यात्राएं गिनाईं। मतलब फलां-फलां जगह गए! जाहिर है जैसे भारत के विदेश मंत्रालय के बाबू लोग नेता-मंत्री के दौरे, उनकी यात्रा से अपनी बाबूगिरी की एसीआर को चमकाते हैं वैसे ही जयशंकर विदेश मंत्री बन कर भी वही कर रहे हैं जैसे बतौर एक बाबू पहले करते थे। या जैसे मोदी राज में तमाम बाबू याकि रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास, नीति आयोग के अमिताभ कांत, हरदीप पुरी, आरके सिंह, अजित डोवाल आदि ने देश के हर क्षेत्र में भक्ति में शक्ति, आबोहवा में सीलन, गुलामी बना देश को भटकाया और भ्रमित किया हुआ है।

मैंने संसद को काम करते देखा है। बहस और मंत्रियों-नेताओं के विवेकपूर्ण भाषण सुने हैं। देश के विकास, विदेश नीति, सुरक्षा, ऊर्जा, शिक्षा, धर्म या संस्कृति आदि के मंत्रियों-नियंताओं को काम करते देखा है। उन्हें संवेदनशीलता से विचार-विमर्श में सामूहिक फैसले लेते हुए देखा है। नेताओं-नियंताओं की भी स्वतंत्र-मस्त-जिंदादिली देखी है। उन्हें पढ़ते-लिखते देखा है। तभी तो सवाल है कि ‘अच्छा’ अब है कहां?

इसी सप्ताह जाना कि मोदी सरकार एक कानून बना रही है, जिसमें सरकार जिसे पुरस्कार देगी उससे एक अंटरटेकिंग लेगी कि वह बाद में पुरस्कार वापस नहीं करेगा। क्या किसी जिंदा कौम, जिंदा नस्ल में ऐसा मूर्खपना संभव है, जो स्वतंत्र मूर्धन्यता, विशिष्टता-श्रेष्ठता विशेष का राष्ट्रीय गौरव जान उसके सम्मान से पहले व्यक्ति से गांरटी लें कि सम्मान तो नहीं करोगे। मैंने तो नहीं सुना की किसी औरंगजेब ने या अंग्रेज ने सम्मान के साथ ऐसी गंवार शर्त सोची।

तभी लोगों के मान-सम्मान, गरिमा के साथ देश की सुरक्षा, विदेश और गृह नीति सबका भगवान मालिक। चीन की धौंस जगजाहिर है। विदेश नीति में जयशंकर की कूटनीति सिर्फ पश्चिमी नेताओं से प्रधानमंत्री मोदी को गले लगवाने, फोटोशूट का मकसद लिए हुए है। और वह भी यह जानते हुए कि बाइडेन, मैक्रों या खाड़ी का अमीर अपना उल्लू साधते हुए मोदी से गले मिल रहे हैं, जबकि हकीकत में न वे मोदी के साथ कंफर्ट में हैं और न खुद मोदी का उनसे कंफर्ट है। असलियत में नरेंद्र मोदी का कंफर्ट व धंधा-व्यापार पुतिन या शी जिनफिंग जैसों से है। पश्चिमी नेताओं से गले लगने, जी-20 की मेजबानी सचमुच इसलिए है क्योंकि एनआरआई भारतीयों और भक्त हिंदुओं की मनोदशा में लंदन, अमेरिका याकि पश्चिम से मान्यता व गौरव की भूख पुरानी है।

ऐसा पंडित नेहरू के समय भी था। नरसिंह राव, वाजपेयी व डॉ. मनमोहन सिंह के वक्त भी था। मगर तब और अब का फर्क है जो तब विवेकानंद, महर्षि अरविंद, जे कृष्णमूर्ति, आचार्य रजनीश, स्वामी प्रभुपाद, महेश योगी आदि बुद्धि-तर्क-भक्ति दर्शन से पश्चिम को मोहित करते थे जबकि अब नरेंद्र मोदी और आचार्य धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री लंदन में अपने श्रद्धालुओं की भीड़ से विश्व गुरूता की झांकी बनाते हैं।

यह सब जुगुप्साजनक है। अच्छा फील होना तो दूर वितृष्णा पैदा होती है। संसद की तस्वीरें दिखती हैं तो समझ नहीं आता क्या यह वही संसद है जो कभी थी? इस सप्ताह कई बार ओम बिरला, जगदीप धनकड़, अमित शाह के चेहरे दिखलाई दिए? मैं तीनों को देख कर बार-बार हैरान हुआ ये कैसे हो गए? क्या हो गए?

जाहिर है सब बिगड़ गया! जलवायु, प्रकृति, जीवन ही नहीं बदला है, बल्कि मनुष्य का वह मूल, दिमाग और समाज का वह फैब्रिक भी खत्म है जो मनुष्य बनाम पशु जीवन का बेसिक मानसिक फर्क है।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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