पिछले 10 साल की नरेंद्र मोदी राज की कूटनीति को बारीकी से देखें तो वह कुल मिला कर क्रोनी कैपिटलिज्म को प्रमोट करने वाली रही है। सारी कूटनीति का कुल जमा मकसद अडानी और अंबानी को फायदा पहुंचाना है। प्रधानमंत्री के दौरे और आर्थिक मामलों में होने वाले सभी समझौतों में कहीं न कहीं इन दो कारोबारी समूहों का फायदा जरूर दिखा है। ऑस्ट्रेलिया से लेकर रूस और श्रीलंका से लेकर म्यांमार तक अनेक देशों में इन कारोबारी समूहों के फायदे वाले समझौते है।
सबसे कमाल की बात श्रीलंका के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कही थी। उसकने साफ शब्दों में कहा था कि अडानी समूह को प्रोजेक्ट दिलाने की पैरवी खुद प्रधानमंत्री मोदी ने की थी। यह बात जून 2022 की है, जब श्रीलंका की सरकारी बिजली कंपनी सिलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड यानी सीईबी के अध्यक्ष एमएमसी फर्डिनेंडो ने एक संसदीय बोर्ड के सामने यह दावा किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर पवन बिजली की एक परियोजना अडानी समूह को दिलाने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे से पैरवी की थी। राष्ट्रपति ने इससे इनकार किया और बाद में फर्डिनेंडो ने भी अपनी बात से मुकरते हुए इस्तीफा दिया। लेकिन बाद में हुई तमाम घटनाएं सबको पता होता है कि कैसे होती हैं। बहरहाल, उसी साल यानी 2022 के नवंबर में ही कोलंबो में अडानी समूह के बंदरगाह का काम शुरू हुआ और वह देश की पहली कंपनी बनी है, जिसका बंदरगाह श्रीलंका में बन रहा है। अब खबर है कि इसे अमेरिका से भी वित्तीय मदद मिल रही है।
अडानी समूह के पास ऑस्ट्रेलिया में कोयले की खदानें हैं, जिन्हें लेकर वहां बड़ा आंदोलन हुआ था। वहां के स्थानीय लोगों ने माइनिंग लीज दिए जाने का विरोध किया था। इस विरोध की वजह से कोई भी बैंक अडानी समूह को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। उसी समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऑस्ट्रेलिया यात्रा हुई थी और उस यात्रा में भारतीय स्टेट बैंक की तत्कालीन अध्यक्ष अरुंधति भट्टाचार्य भी थीं। तभी खबर आई थी कि स्टेट बैंक ने एक अरब डॉलर यानी उस समय के डॉलर की कीमत के हिसाब से कोई छह हजार करोड़ रुपए का कर्ज अडानी समूह को देने की सहमति जताई। इस पर कांग्रेस ने सवाल उठाए थे कि जिस प्रोजेक्ट को पांच विदेशी बैंकों ने कर्ज देने से मना कर दिया उसे स्टेट बैंक ने क्यों कर्ज दिया? इस पर भट्टाचार्य ने सफाई दी थी कि अभी सिर्फ शुरुआती सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं और कर्ज पूरी जांच के बाद ही दिया जाएगा। बहरहाल, चाहे ऑस्ट्रेलिया में मिले कोयला खदान का मामला हो या सरकारी बैंक से कर्ज का सारे मामले विवादित रहे हैं लेकिन किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता है।
रूस और यूक्रेन के युद्ध के बीच अंबानी समूह का रूस के साथ तेल का कारोबार करना भी इसकी एक मिसाल है कि कैसे कूटनीति के जरिए चुनिंदा कंपनियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। दुनिया के सभी सभ्य और लोकतांत्रिक देशों ने रूस के साथ कारोबार बंद कर रखा है क्योंकि सब मानते हैं कि रूस हमलावर है। उसने यूक्रेन की संप्रभुता का उल्लंघन करके उसके ऊपर हमला किया और इस हमले में हजारों लोगों की जान गई है। इसके बावजूद भारत ने रूस से कारोबार जारी रखा। स्वतंत्र विदेश नीति के नाम पर कारोबार जारी रखा गया और इसका फायदा सिर्फ रिलायंस पेट्रोलियम और नायरा एनर्जी को हुआ। रूस के पास कच्चे तेल का विशाल भंडार है। उसे बेहद सस्ती कीमत पर उसने रिलायंस पेट्रोलियम को बेचा, जिसे रिलांयस की रिफाइनरी में रिफाइन करके यूरोप के देशों को महंगी कीमत पर बेचा गया। इस कारोबार में कंपनी को इतना फायदा हुआ कि सरकार को विंडफॉल टैक्स लगाना पड़ा और एक अनुमान के मुताबिक विंडफॉल टैक्स से सरकार को 40 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की आमदनी हुई। अब सोचें, अतिरिक्त टैक्स से सरकार को इतनी आमदनी हुई है तो जो कंपनी कारोबार कर रही थी उसको कितनी कमाई हुई होगी?