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तो जेनरेशन जेड भी पंक्चर!

मतदान से पहले पूरा भारत जब धमाके से भला गूंजा तो मतगणना का दिन बिना धमाके के कैसे होगा? यों 14 नवंबर का दिन नेहरू जयंती का दिन है सो, मामूली बात नहीं जो इस दिन बिहार ने बताया है कि पीढ़ी नई हो, युवा हो, प्रौढ़ हो या बुजुर्ग या फिर महिला व पुरूष और जातियों की टोलीबाजी के सभी मतदाताओं को प्रभावित करता है धमाका, पैसा, झुनझुना और जुमले। सबसे बड़ी बात वोटों की फैक्टरी का वह प्रबंधकीय कौशल, जिसमें ए से ले कर जेड तक के सभी फॉर्मूलों के छब्बीसों विकल्पों के उपयोग का रोडमैप बना हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की मशीनरी ने महाराष्ट्र के बाद बिहार में जो ताजा कौशल बताया है वह इस नाते ऐतिहासिक है क्योंकि 140 करोड़ लोगों की भीड़ की 60 प्रतिशत नौजवान आबादी का यह परीक्षाफल जैसा है।

यह परीक्षाफल राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, प्रशांत किशोर, अखिलेश यादव, आगे ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी या दीपेंद्र हुड्डा, सचिन पायलट, अरविंद केजरीवाल, स्टालिन के बेटे की मुकाबले की क्षमताओं का भी संकेत है। सोचें, तेजस्वी यादव ने क्या नहीं किया? तो उनके लिए जुटी बेइंतहां भीड़ ने जोश दिखलाने में क्या कोई कमी दिखाई? मगर नतीजे उलटे निकले। यह सोचना फिजूल है कि तेजस्वी, प्रशांत किशोर, मुकेश सहनी से उनके समवर्ती चिराग पासवान सियासी तौर पर ज्यादा शातिर हैं। बिहार के इन तमाम चेहरों का, स्थानीय चेहरों का विशेष अर्थ नहीं है। जो है वह मोदी-शाह के ए टू जेड विकल्पों तथा प्रबंधकीय बंदोबस्तों, खरीदफरोख्त के तानेबाने, वोटों की असेंबली लाइन के लिए बनी सप्लाई चेन के फॉर्मूलों का है।

उस नाते परीक्षा में सौ में से सौ नंबर लाने का मोदी-शाह का जुगाड़ सचमुच फिर बेमिसाल साबित हुआ है। इसकी बारीकियों का अनुमान लगाना आसान नहीं है। मेरा मानना है कि मोदी-शाह ने बिहार के चुनाव को इस चुनौती में लड़ा कि जेनरेशन जेड का जो हल्ला बना है उसे बिहार के रास्ते पूरे देश से खत्म किया जाए। निश्चित ही बिहार में बेरोजगारी, बेगारी, गरीबी, पिछड़ेपन की हकीकत से नौजवान आबादी के भभकने के सर्वाधिक खतरे थे। वह अब खत्म है। सो, 14 नवंबर 2025 का बिहार जनादेश भारत के यूथ का कोल्ड स्टोर में निर्वासन है।

इससे चुनाव को लेकर अविश्वास निश्चित बढ़ेगा। महाराष्ट्र, हरियाणा के बाद बिहार से भी अविश्वास के विषाणु फैलेंगे। इससे आगे क्या बनेगा इसके जितने अनुमान लगाए वे कम होंगे। बिहार के होहल्ले का मुंह के बल धड़ाम होना मनोवैज्ञानिक तौर पर विपक्ष, खासकर राहुल गांधी, कांग्रेस, अखिलेश, ममता बनर्जी आदि की राजनीति की बोलती बंद करने वाला है। खासकर राहुल गांधी के लिए। उन्होंने बिहार में वह सब किया जो उनके प्रगतिशील सलाहकारों ने सुझाया था। जाति जनगणना, पिछड़ों-दलितों के हक आदि का शोर बना कर उन्होंने मोदी-शाह की जमीन खिसकाने के जितने भी फॉर्मूले अपनाए वे सब बिहार में बेमतलब साबित हुए हैं।

हैरानी का यह सवाल मामूली नहीं है कि ऐसा क्या था जिससे बिहार में जनता दल यू- भाजपा को जिताने के लिए ईवीएम मशीन पर थोक में ठप्पे पड़े? क्या नीतीश कुमार इतने लोकप्रिय हो गए जो उनके पुराने रिकॉर्ड इस चुनाव में टूटे? क्या नरेंद्र मोदी का करिश्मा गुजरी छठ से नए अवतार का नया सूर्योदय है? हाल में ऐसा भला क्या हुआ जो डबल इंजन सरकार ने बुलेट ट्रेन वाला जनादेश पाया?

मेरे लिए बिहार के ये नतीजे अपेक्षित थे। मैं तब से ऐसा मानने लगा था जब नीतीश-मोदी सरकार ने घर-परिवार की महिलाओं के खातों में दस-दस हजार रुपए जमा कराना शुरू किया। सरकारी खजाने से लोगों के खातों में इतनी तरह की योजनाओं में खटाखट इतना पैसा जमा हुआ कि निर्धन परिवारों में वह छप्पर फाड़ से कम नहीं था। बिहार निर्धन परिवारों से भरापूरा प्रदेश है। जहां हजार, दो हजार रुपए पर झगड़े हो जाएं, हत्या हो जाए वहां चुनाव से ऐन पहले खजाना खुला मिले तो उसकी माया में वोट क्यों नहीं पकेंगे?

फिर दूसरे चरण के मतदान से ठीक पहले दिल्ली में आतंक का राष्ट्रीय-वैश्विक स्तर वाला धमाका! सो, बिहार में भी वही हुआ जो एक लोकसभा चुनाव से पहले पुलवामा में हुआ था। लालकिले के सामने का धमाका बिहार में भी जब पैठा तो दूसरे चरण के मतदान में और कुछ सोचने के लिए था ही नहीं!

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