पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभी को कूटनीति का चस्का रहा है। सारे प्रधानमंत्री घरेलू नीतियों के साथ साथ विदेश नीति को भी साधने और दुनिया में अपना नाम बनाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके हवाले फिर चाहे नेहरू हों या वाजपेयी और मनमोहन सिंह या मोदी सबने किसी न किसी रूप में कूटनीति का राजनीतिक और चुनावी इस्तेमाल भी किया है। वाजपेयी की लाहौर की बस यात्रा रही हो या मनमोहनसिंह की परमाणु संधि इन सबका चुनाव में इस्तेमाल हुआ और पार्टियों को फायदा मिला। अब नरेंद्र मोदी कूटनीति का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका हर विदेश दौरा एक मैसेज लिए होता है। मिसाल के तौर पर वे दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स देशों का सम्मेलन अटेंड करने के बाद यूनान गए तो प्रचार का सारा फोकस इस बात पर रहा कि 40 साल के बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री यूनान गया है और यूनान वह देश है, जो तुर्किये का विरोधी है और तुर्किये वह देश है, जिसने कश्मीर पर पाकिस्तान का साथ दिया था। सो, यूनान को ब्रह्मोस देने की बात भी भारत और पाकिस्तान के संबंधों और कश्मीर के साथ जुड़ गए। इस किस्म के नैरेटिव भारतीय मीडिया में हर विदेश यात्रा में बनते हैं।
दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में प्रधानमंत्री ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में शामिल हुए। उन्होने सर्वानुमति में ब्रिक्स के विस्तार का समर्थन किया। इससे ठीक पहले प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने 10वें भाषण में कहा था कि जिस तरह से दूसरे महायुद्ध के बाद एक नई विश्व व्यवस्था बनी थी उसी तरह कोरोना के बाद एक नया वर्ल्ड ऑर्डर बन रहा है, जिसमें भारत का स्थान प्रमुख है। ब्रिक्स सम्मेलन से पहले से ही प्रचार था कि ग्लोबल साउथ के देश भारत को अपना नेता मान रहे हैं। जोहान्सबर्ग में प्रधानमंत्री ने जो बातें कहीं वह उसी लाइन पर थी। उन्होंने भारत को विश्व का ग्रोथ इंजन बताया। ब्रिक्स के विस्तार पर सहमति जताई और नए सदस्य देशों को भारत का पुराना दोस्त बताया। इस तरह ब्रिक्स की कूटनीति का जो मैसेज बना वह यह था कि अमेरिका और यूरोप के संगठनों के बरक्स एक नया संगठन बन रहा है, जिसका नेतृत्व भारत कर रहा है।