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कांग्रेस का विभाजित नेतृत्व

कांग्रेस

चुनाव वाले राज्यों में कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या विभाजित नेतृत्व की है। कर्नाटक में भी कांग्रेस का नेतृत्व विभाजित था। पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार दोनों मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। दोनों अलग अलग जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दोनों की जातियों का दबाव भी था। लेकिन दोनों को यह बात समझ में आई हुई थी कि चुनाव जीतना है तो एक साथ मिल कर लड़ना होगा। वैसी समझदारी इस समय कम से कम दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नहीं दिख रही है। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार है और मंजे हुए नेता मुख्यमंत्री हैं इसके बावजूद पार्टी के अंदर तालमेल नहीं है। मध्य प्रदेश में जरूर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच तालमेल दिख रहा है और दोनों ने चुनाव जीतने को प्राथमिकता बनाया है। परंतु यह बात राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नहीं दिख रही है।

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दोनों मुख्यमंत्रियों की यह प्राथमिकता जरूर है कि चुनाव जीतना है। इसके लिए दोनों बड़ी मेहनत भी कर रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है कि पार्टी के दूसरे नेता और यहां तक कि प्रभारी भी ऐसे मोड में हैं कि हर हाल में चुनाव जीतना है। राजस्थान में हाल के समय तक मुख्यमंत्री गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच खींचतान चल रही थी। अब पार्टी आलाकमान की पहल पर झगड़ा तो बंद हुआ है लेकिन दूरी मिट गई है, यह नहीं कहा जा सकता है। टिकट बंटवारे और प्रचार में दोनों का विवाद उभर कर सामने आए तो हैरानी नहीं होगी। प्रदेश नेतृत्व में टकराव के सवाल पर कांग्रेस के नेता भाजपा की मिसाल देते हैं और कहते हैं कि भाजपा में भी टकराव है और प्रदेश में कई खेमे बन गए हैं। वसुंधरा राजे को किनारे किया जा रहा है और उनके विरोधियों को तरजीह दी जा रही है।

लेकिन कांग्रेस और भाजपा का फर्क यह है कि भाजपा का चुनाव खुद नरेंद्र मोदी संभालेंगे। सो, प्रदेश के नेता का विवाद ज्यादा नहीं चलेगा। बहरहाल, कांग्रेस नेतृत्व ने पंजाब के सुखजिंदर रंधावा को प्रभारी बनाया है। प्रदेश कांग्रेस के नेता चाहे गहलोत हों या सचिन पायलट या सीपी जोशी सब बड़े नेता हैं। उनके बीच अगर कोई मुद्दा है तो वह रंधावा नहीं सुलझा सकते हैं। इतना ही नहीं रंधावा चुनाव रणनीति बनाने, कमजोर सीटों की पहचान करने, सर्वे कराने, फीडबैक लेने या टिकटों का फैसला कराने में भी कितने प्रभावी होंगे यह नहीं कहा जा सकता है।

यही हाल छत्तीसगढ़ का है। जब सरकार के ढाई साल पूरे हुए थे तो टीएस सिंहदेव ने दावा किया कि पार्टी आलाकमान ने उनको ढाई साल के लिए सत्ता देने का वादा किया था। इसे लेकर भूपेश बघेल और सिंहदेव में कई महीने तक जोर आजमाइश हुई। उस समय तो सिंहदेव पीछे हट गए लेकिन अब पार्टी ने उनको उप मुख्यमंत्री बनाया है। वे अभी तो दावा कर रहे हैं कि भूपेश बघेल के नेतृत्व में पार्टी चुनाव लड़ेगी लेकिन कुछ समय पहले ही खबर आई थी कि वे भाजपा और आम आदमी पार्टी दोनों के संपर्क में थे। हालांकि अब वे पाला नहीं बदल रहे हैं लेकिन चुनाव में उनमें और भूपेश बघेल में वैसा तालमेल शायद ही बनेगा, जैसा कर्नाटक में सिद्धरमैया और शिवकुमार के बीच था। वहां भी लंबे समय तक प्रभारी रहे पीएल पुनिया को हटा कर कुमारी शैलजा को प्रभारी बनाया गया है लेकिन उनका ज्यादा ध्यान हरियाणा की राजनीति पर रहता है। प्रदेश की राजनीति एक तरह से भूपेश बघेल के हवाले है। पिछले दिनों जिस तरह से प्रदेश अध्यक्ष को बदला गया उससे बघेल की ताकत दिखी। मोहन मरकाम ने कुमारी शैलजा से पूछे बगैर प्रदेश में पदाधिकारी नियुक्त किए थे। बाद में मरकाम की लिस्ट खारिज की गई और उनको अध्यक्ष पद से हटाया गया। लेकिन हटाने के साथ ही बघेल ने उनको मंत्रिमंडल में शामिल किया। उनकी जगह बनाने के लिए टीएस सिंहदेव के एक करीबी मंत्री को हटाया गया। सो, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव और कुमारी शैलजा तीनों में टकराव साफ दिख रहा है।

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