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भाजपा का नया चुनावी अंदाज

ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। 45 साल के चुनावी अनुभव में मुझे कभी पहले यह अनुभव नहीं हुआ भाजपा चुनाव लड़े और उसके मुख्यमंत्री, टिकटार्थी, कार्यकर्ता व संघ परिवार सभी सस्पेंश में दिखलाई दें। मतलब शिवराजसिंह, वसुंधरा राजे को टिकट मिलेगा या नहीं? ये फिर मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं? संगठन में कौन है जिसकी चल रही है?  जिला कमेटी, प्रदेश कमेटी या केंद्रीय चुनाव समिति में उम्मीदवारों को ले कर विचार भी होगा या नहीं? सीटिंग विधायक का टिकट होगा या उसकी जगह कोई सांसद चुनाव लड़ने आ जाएगा?  किसी का कोई अर्थ नहीं, किसी की कोई गारंटी नहीं! मेरा मानना है राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ या चुनावी राज्य तेलंगाना में भी भाजपा का नेता, प्रदेश संगठन, प्रदेशों के संगठन प्रभारी, संघ के प्रचारक लोग यह बूझने में असमर्थ है कि होगा क्या या क्या हो रहा है? टिकट मिल गया है तो क्या शिवराजसिंह का वापिस मुख्यमंत्री बनना भी तय या कैलाश विजयवर्गीय या प्रहलाद पटेल मुख्यमंत्री बनेंगे? प्रदेश में न शिवराजसिंह चौहान, बीडी शर्मा टिकट करवाते हुए है तो न वसंधुरा राजे या सगंठन मंत्री या संघ के भाई साहेब लोगों से टिकट की गारंटी है।

मतलब न संगठन है और न चेहरा। बावजूद इसके हाईकमान नई एप्रोच में चुनाव जीतने की सौ टका गारंटी माने हुए है। जाहिर है भाजपा का हर तरह से कायाकल्प है। यह क्यों और क्या सोचकर हुआ? मेरा मानना है सबकुछ 2024 के लोकसभा चुनाव के खातिर है। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि ये विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी और अमित शाह लड़ेंगे। गहलोत, कमलनाथ और भूपेश बघेल को हराने का बीड़ा मोदी-शाह का है। इसलिए संघ परिवार और भाजपा में अब सिद्धांततः यह निर्णय है कि हर विधानसभा चुनाव बिना चेहरे के होगा। तभी पहली बार हो रहा है कि मुख्यमंत्री होते हुए भी शिवराज सिंह चौहान भाजपा की और से अगले मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है।

ऐसा कर्नाटक में नहीं था। बसवराज बोम्मई मुख्यमंत्री थे तो उन्हे ही अगले सीएम के चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट किया गया। लेकिन बावजूद इसके भाजपा जब हारी तो अर्थ यह निकाला गया कि इससे अच्छा तो गुजरात और उत्तराखंड में बिना चेहरे के जैसे चुनाव ल़ड़ा गया वही ठिक है। इसी सोच में मोदी-शाह का अब यह निर्णय है कि चुनाव नतीजों के बाद चेहरा तय होगा। चुनाव में चेहरे पर नहीं बल्कि पार्टी के चुनाव चिंह कमल पर वोट मांगे जाए।

हिसाब से यह गलत नहीं है। पार्टी अपने नाम पर वोट मांगे और नतीजों के बाद विधायक लोग नेता को चुने यह लोकतंत्र की आदर्श स्थिति है। मगर भारत के लोकतंत्र काऐसा मिजाज नहीं है। यदि यही सिद्धांत व संकल्प है तो लोकसभा चुनाव भी तब बिना चेहरे याकि नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट किए बिना लड़ना चाहिए। क्या भविष्य में बिना योगी आदित्यनाथ के भाजपा यूपी में चुनाव लड़ेगी?

कह सकते है सन् 2024 के सेमी फाइनल के नाते मोदी-शाह इन विधानसभा चुनावों को इस आक्रमकता से लड़ रहे है कि कुछ भी हो जाए राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ में चुनाव हर हाल में जीतना है। इसलिए सबकुछ नरेंद्र मोदी के चेहरे पर होगा। प्रदेश नेताओं, अलग-अलग खेमों में किसी की नहीं चलेगी। उम्मीदवार सिर्फ और सिर्फ चुनाव जीत सकने की मोदी-शाह की कसौटी पर तय होंगे। तभी विधानसभा की सीटो को ए, बी, सी की केटेगरी में वर्गीकृत करके भाजपा ने सबसे पहले कांग्रेस से हारी हुई या हमेशा भाजपा के लिए मुश्किल रही सी केटेगरी की सीटों पर उम्मीदवार तय किए। जैसे भी हो चुनाव जीतना है, के मकसद में सांसद, केंद्रीय मंत्री या जातबल, धनबल, बाहुबल वाले लोगों को उम्मीदवार बनाया गया। फिर भले कोई दलबदलू हो अवसरवादी, इसकी परवाह नहीं।

मुझे पता नहीं ग्राउंड रियलिटी क्या है लेकिन यह फीडबैक है कि सी केटेगरी में उम्मीदवारों की जो लिस्ट घोषित हुई है उससे कांग्रेस के प्रदेश नेता परेशान है। हमेशा हारने वाली सीटों में भी भाजपा कुछ न कुछ सीटे जीतेंगे और ऐसा होना लड़ाई में उसका बोनस होगा वही कांग्रेस का भारी नुकसान।

मोटी बात की एक-एक विधानसभा सीट के चरित्र और जरूरत के अनुसार मोदी-शाह उम्मीदवार तय करते हुए है। कहते है नए ढर्रे में दिल्ली में उम्मीदवारों को ले कर जितना भी सामूहिक विचार है उसमें संगठन मंत्री बीएल संतोष (संघ परिवार की और से आए नामों से लेकर फीडबैक आदि का जरिया) का मोटामोटी एक प्रजेंटेशन होता है जिसके आगे शिवराजसिंह हो या प्रदेशों के संगठन मंत्री या राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का फीडबैक देना, सिफारिश या विरोध करना संभव ही नहीं। अंततः बिना निर्णय के सबकुछ अमित शाह के सुपुर्द हो जाता है। एक उदाहरण है। मध्य भोपाल की एक मुस्लिम बहुल सीट (मौजूदा विधायक कांग्रेस के आरिफ मसूद) पर हाईकमान ने पूर्व में कांग्रेस में रहे ध्रुवनारायण सिंह का नाम रखा। शिवराजसिंह चौहान को पसंद नहीं आया। उन्होने बेकग्राउंड बताई। मीडिया में बदनाम रहे है, फंला-फंला विवाद। तब उनसे दो टूक पूछा गया है क्या इसके खिलाफ अभी कोई केस है? कौन है दूसरा जो वहां मुकाबला कर सके? शिवराजसिंह चौहान के पास जवाब नहीं था? और फैसला हाईकमान पर छूटा। इस सी केटेगरी की सीट पर ध्रुवनारायण सिंहउम्मीदवार घोषित हुए। निश्चित ही कांग्रेस के लिए मुकाबला भारी हो गया है।

आश्चर्य नहीं होगा यदि वहा औवेसी की पार्टी का उम्मीदवार कांग्रेस के वोट काटने के लिए खड़ा हो जाए। ऐसे ही राजस्थान में कांग्रेस की मुस्लिम बहुल मजबूत सीट तिजारा पर मोदी-शाह ने मंहत बालकनाथ को उम्मीदवार बनाया है। वहा भी औवेसी के उम्मीदवार खड़े होने की संभावना है ताकि महंत बालकनाथ के लिए लड़ाई आसान बने।

यह सब अनहोना है। सोचे, योगी आदित्यनाथ जैसे राजस्थान भाजपा में यह हवा बनना कि प्रदेश के सीएम महंत बन सकते है तो राज्यवर्धनसिंह के भी अवसर या गजेंद्रसिंह के सीएम बनने के अवसर। इन तीनों नामों को या ऐसे दर्जनों नामों का घोषणा से पहले प्रदेश भाजपा नेताओं को भान तक नहीं था। इसलिए सोचे, तीनों प्रदेशों में भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं की कैसी धुकधुकी व अनिश्चितताएं होगी।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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