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क्या युवा दिमाग समझेगा?

हिसाब से गुजरा सप्ताह हिंदू नौजवानों के लिए सोचने वाला था। आखिर दिल्ली, एनसीआर, गुरूग्राम आईटीकर्मियों का नंबर एक ठिकाना है। उत्तर भारत व हिंदीभाषी इलाके में ऐसा दूसरा कोई इलाका नहीं है जो यूथ की दिमागी तरंगों का एपिसेंटर हो। तभी नूंह, गुरूग्राम में हिंदू बनाम मुस्लिम हिंसा में जब इंटरनेट बंद हुआ, वैश्विक आईटी कंपनियों ने घर से काम करने के फरमान दिए तो सवाल था कि नौकरीपेशा नौजवान वोटखोरी की हिंदू राजनीति को समझते हुए होंगे या नहीं? इतना तो समझ आना चाहिए कि ज्यों-ज्यों चुनाव करीब आते हैं त्यों-त्यों हिंदू बनाम मुसलमान बनता है तो आखिर इससे क्या जाहिर? चुनाव से पहले यह सब और उसके बाद नरेंद्र मोदी सऊदी अरब जा कर उसके बादशाह के गले मिलेंगे। वेटिकन जा कर पोप से आशीर्वाद लेंगे! मतलब कब्रिस्तान-श्मशान, देखो-देखो उनकी पोशाक या एक घर दो कानून, घुसपैठियों को बाहर खदेड़ने, पाकिस्तानियों भारत छोड़ो आदि की तमाम जुमलेबाजी केवल चुनाव से पहले होती है तो क्या अर्थ? और अब इंतहां जो सरकार दिल्ली-एनसीआर-गुरूग्राम की उस इंटरनेट कनेक्टिविटी पर भी बाधाएं बनवा दे रही है, जिससे नौजवान पेशेवरों का काम-धंधा है! भारत की, आईटी क्षेत्र की वैश्विक साख-धाक है!

ऐसे में क्या नौजवानों में यह धारणा नहीं बनेगी कि मोदी-शाह, भाजपा, संघ परिवाद हिंदू राष्ट्र नहीं बना रहे हैं, बल्कि मूर्ख बना कर ठीक चुनाव से पहले वोट का खेला रचते हैं? इतनी मोटी बाते तो नोटिस होनी चाहिए कि चुनाव आ रहे हैं इसलिए भक्त जबरदस्ती में मुस्लिम इलाकों में शोभा यात्रा निकालते हैं। भड़काऊ नारेबाजी करते हैं। मतलब वह सब होगा, जिससे दोनों तरफ खून खौले। हर-हर महादेव बनाम अल्लाह हू अकबर के पानीपती गृहयुद्ध की लाइव झांकियां बने। नतीजतन हिंदू अपने आप सुरक्षा की चिंता में भेड़ों की तरह नरेंद्र मोदी के पीछे-पीछे चलता रहे।

सचमुच समझ नहीं आता कि भाजपा के नेताओं ने क्यों कर गुरूग्राम में इंटरनेट पाबंदी और काम ठप्प करा कर पेशेवर नौजवानों को हिंदू बनाम मुस्लिम की लाइव झांकी का अनुभव कराया? क्यों कर गुरूग्राम हिंदुत्व की प्रयोगशाला बना हुआ है, जबकि मुस्लिम आबादी लगभग नगण्य है? मेवात के मुसलमानों का खौफ बनवाना एक मायने में गुरूग्राम व दिल्ली के मुहाने से राजधानी को असुरक्षित बनाना है। यदि इसकी प्रतिक्रिया में पुरानी दिल्ली-ओखला और यमुना पार की सघन मुस्लिम आबादी नई दिल्ली की सड़कों पर चल पड़ी तब एनसीआर इलाका क्या मणिपुर की तरह दो कम्युनिटी याकि हिंदुस्तान बनाम पाकिस्तान में नहीं बंटा दिखेगा? लोगों में कंपकंपी व चिंता पैदा करना क्या हिंदू नौजवानों में भाजपा की रीति-नीति के खिलाफ गुस्सा  पैदा करना नहीं है? मोदी के भक्त बने नौजवान भी मन ही मन देश के बरबादी की तरफ बढ़ने का ख्याल क्या नहीं बनाते हुए होंगे?

कहा नहीं जा सकता। मैं नूंह, गुरूग्राम की घटना के दिन बगल के अलवर में था। और न केवल वहां लोग हिंदू बनाम मुस्लिम की चिंता में थे, बल्कि सभी यह सलाह देते हुए थे कि तिजारा, नूंह व नए नेशनल हाईवे से हो कर नहीं जाएं। मतलब मेवात से हो कर नहीं जाना। गुरूग्राम से एक सुधी पाठक ने शहर के हालात गंभीर बताते हुए ऐसी-ऐसी बातें कहीं तो वही यह सलाह दी कि वडोदरा एक्सप्रेसवे से नहीं आएं क्योंकि बादशाहपुर में भी बवाल है।

इतना पैनिक, ऐसी घबराहट और इतनी मोटरसाइकिल लूट लेने, मुसलमानों के पलायन, आगजनी की इतनी तरह की बातें, खबरें की लगा मानों दिल्ली का रास्ता भी असुरक्षित है। दिल्ली और एनसीआर का हिस्सा मेवात तो मानों मणिपुर होता हुआ। मणिपुर जैसी सरहदों में हिंदू अपनी सरहद में दुबके हुए होंगे तो मुसलमान अपनी सरहद में क्या-क्या सोचते हुए होंगे।। गृह मंत्री अमित शाह भले मेवात में रैपिड एक्शन फोर्स का ठिकाना बनवा दें। क्या उससे वहां हिंदुओं को सुरक्षा मिलेगी? या मुसलमानों को और इससे दो समुदायों के इलाकों व दिलों की सरहदें खत्म होंगी या उलटे कट्टर होंगी?

इस सबका ख्याल क्या उस हिंदू नौजवान के दिल-दिमाग में भी उठता हुआ होगा जो नौ वर्षों से मान रहा है कि नरेंद्र मोदी हैं तो हम सुरक्षित हैं। मतलब क्या गुरूग्राम के वोटर भाजपा से पिंड छुड़ाएंगे?

मुश्किल है। गुरूग्राम में भाजपा ही जीतेगी। छप्पर फाड़ वोटों से जीतेगी। इसलिए कि गुरूग्राम के एपिसेंटर से रचा-पका देश का बाकी हिंदू पेशेवर यूथ का दिमाग नौ सालों से लगातार रेडिकल होता हुआ है। वैसे ही जैसे मणिपुर में हिंदू मैती समुदाय लगातार कुकी-आदिवासियों के ईसाईकरण के नैरेटिव में पकता चला आया है। अंत में दोनों समुदाय अब अपने-अपने इलाके की सरहद बनाए हुए हैं। तभी मणिपुर का आगे समाधान विभाजन से होगा। घाटी की मैती आबादी बनाम पहाड़ी आदिवासी के दो प्रदेश। दोनों समुदायों में परस्पर विश्वास रहा ही नहीं। ऐसे ही युवा हिंदू मानस अब वोट राजनीति और प्रोपेगेंडा में बर्फ की सिल्ली है। यों भी मौजूदा यूथ आबादी का अधिकांश हिस्सा सर्व शिक्षा अभियान से छोटे-संकीर्ण और पेशेगत एकांगी व लकीर की फकीर वाली बुनावट लिए हुए है।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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