देश भर में हो रही घटनाओं को देख कर ऐसा लग रहा है मानों योजना के तहत समाज में और राजनीति में भी स्थायी तनाव पैदा किया जा रहा है। लोगों के मन में किसी न किसी मसले पर उबाल बनाए रखने की कोशिश है। लोग गुस्से में रहें और एक-दूसरे के प्रति नफरत से भरे रहें, इस बात के प्रयास किए जा रहे हैं। असल में किसी बड़े सांप्रदायिक या सामुदायिक दंगे की बजाय समाज में स्थायी तौर पर खदबदाहट बनाए रखने की रणनीति राजनीतिक रूप से ज्यादा कारगर है। दंगे से जीत की गारंटी नहीं होती है। दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए थे लेकिन उसके बाद हुए दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा हार गई। उसका 15 साल का एमसीडी का राज खत्म हो गया। असल में बड़े दंगों में हिंदुओं का ज्यादा नुकसान होता है। उनका कारोबार ठप्प होता है और जान-माल दोनों का नुकसान होता है। इस बारे में लेखक बद्रीनारायण ने अपनी किताब ‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व’ में विस्तार से लिखा है।
बहरहाल, समाज में स्थायी तनाव बनाए रखने के लिए कई उपाय किए जाते हैं। वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा के शाही ईदगाह का मसला भी ऐसा ही है। जिस समय अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का मामला अपने चरम पर था तब विश्व हिंदू परिषद का नारा था, ‘अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है’। तो अब मथुरा और काशी की बारी आ गई है। अयोध्या में मंदिर निर्माण पूरा होने वाला है। अगले साल जनवरी में वहां रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। उससे पहले ही वाराणसी और मथुरा का मामला फिर से उभार दिया गया है। अभी यह कानूनी लड़ाई के स्टेज में है लेकिन इसे लेकर जल्दी ही धार्मिक व राजनीतिक संघर्ष शुरू होने वाला है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बयान देकर इसकी शुरुआत कर दी है। सोचें, क्या मुख्यमंत्री को अब जाकर पता चला है कि ज्ञानवापी मस्जिद में कथित तौर पर शिवलिंग है या त्रिशूल है या दूसरे हिंदू धार्मिक प्रतीक चिन्ह बने हैं? हो सकता है कि उनको पहले से इस बारे में पता हो या अंदाजा हो लेकिन यह बात कहने के लिए इंतजार किया गया। पहले चार महिलाओं ने माता शृंगार गौरी की नियमित पूजा-अर्चना के लिए याचिका डाली थी। उसके बाद मस्जिद के पुरातत्व विभाग से सर्वेक्षण कराने की याचिका डाली गई। और अब मुख्यमंत्री ने कहा है कि उसे मस्जिद कहा जाए तो यह विवाद की बात होगी। उन्होंने कहा कि मुस्लिम समाज को ऐतिहासिक गलती स्वीकार करनी चाहिए। मुख्यमंत्री ने मुस्लिम समाज से ही उपाय सुझाने को कहा है।
जाहिर है कि जब अयोध्या का मामला निपट रहा है तो दूसरा कोई ऐसा मुद्दा होना चाहिए, जिसकी आंच सुलगती रही और चूल्हे पर चढ़ा वोट का बर्तन उबलता रहे। अगर स्थायी तौर पर समाज में उबाल बनाए रखने की मंशा नहीं होती तो एक झटके में सरकार सारे धर्मस्थलों को बदल सकती है। संसद में सरकार के पास पूर्ण बहुमत है, जिसके दम पर वह 1991 में बने धर्मस्थल कानून को बदल सकती है। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही है। क्योंकि एक झटके में कोई काम नहीं करना है। इसलिए मथुरा और काशी का मामला निचली अदालत से शुरू हुआ है और अभी सर्वेक्षण कराने के स्टेज पर है। सोचें, अदालतें कह रही हैं कि किसी भी धर्मस्थल का सर्वेक्षण कराने से धर्मस्थल कानून का उल्लंघन नहीं होता है। फिर किस चीज से उल्लंघन होगा? जब धर्मस्थल कानून की परवाह किए बगैर इस तरह पंडोरा बॉक्स खोला जाएगा तो फिर अंत में क्या होगा, इसका अंदाजा किसको नहीं है! अगर किसी सर्वे से पता चल जाए कि अमुक मस्जिद की जगह पहले मंदिर था तो क्या फिर हिंदुओं को उस पर दावा करने से रोका जा सकेगा? इस तरह का विवाद न हो इसलिए धर्मस्थल कानून बना था। उस कानून के रहते ही अलग अलग जगहों पर विवाद की शुरुआत हो गई है।
इसके अलावा भी कई और काम किए जा रहे हैं, जिनका मकसद समाज में स्थायी तौर पर तनाव और विभाजन बनाए रखने का है। जैसे चार साल पहले नागरिकता कानून में संशोधन किया गया। जैसे तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट से अवैध घोषित करन के बाद उसे अपराध बनाने का कानून बनाया गया था। जैसे समान नागरिक संहिता की चर्चा गाहे-बगाहे छेड़ी जा रही है। जैसे मुस्लिम धर्मस्थलों पर अलग अलग हिंदू संगठनों द्वारा दावा किया जा रहा है। जैसे मुस्लिम नाम वाले शहरों, रेलवे स्टेशनों आदि के नाम बदले जा रहे हैं।