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‘मक्का’ में है भारत की जान!

इस सप्ताह अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक ने भारत को ललकारा। कहा- भारत अपनी 140 करोड़ आबादी का दम्भ भरता है, पर अमेरिका से एक क्विंटल ‘मक्का’ खरीदने को तैयार नहीं! जाहिर है अमेरिका भीड़ की संख्या से भारत को विकसित होता मानता है। वह समझता है भारत जब इतनी ढींग मार रहा है कि खेती पैदावार-डेयरी में व्यापार से क्यों तौबा? भारत का विदेशी मुद्रा कोष भरा हुआ है। किसान सबसिड़ी खा रहे है तो भारत को गैर-कृषि क्षेत्र के ज्यादा उत्पादक कामों में लगाना चाहिए।

अमेरिका की तरह दूसरे भी कई देश ऐसे ही मुगालते पालते हुए झटके खा रहे है। इसका एक प्रमाण है सऊदी अरब का पाकिस्तान के साथ भयावह सैन्य समझौता। अमोरिका, रूस, चीन, खाडी देशों, बांग्लादेश सबमें पाकिस्तान का महत्व बन जाना।

विषयांतर है। मूल बात है कि ट्रंप प्रशासन हो गेंहू, मक्का जैसी छोटी खरीद पर बात का बतगंड बनाना। पर खेती की यह पैदावार ही भारत की जान है। इसके अलावा भारत के पास कुछ भी तो नहीं है जिससे वह सुरक्षित रोटी खाता रहे। पहली बात मक्का, गेंहू, धान पैदा कर, दूध बेचने के काम में भारत की 45 प्रतिशत श्रमशक्ति लग हुई है। किसान परिवारों की बेगारी, काम में खंपे रहने का आधार खेती है। सो यदि विदेश से गेंहू, मक्का, सोयाबीन भारत के बाजार में बिकने लगा तो भारत की 45 प्रतिशत आबादी घर बैठेगी। विदेश सस्ते अनाज के आगे भारत का खाद्यान वैसे ही लुट-पीट जाएगा जैसे चीन ने भारत के घरेलू-कुटीर, मझौली फैक्ट्रीयों की मैन्यूफैक्चिंग को खत्म किया था।

यों इस किसानी श्रमशक्ति का जीडीपी में हिस्सा सिर्फ 15-16 प्रतिशत हिस्सा है। एक तरह से विशाल आबादी का बेगारी जैसा योगदान। पर भीड़ को किसानी में उलझाए रखने के अलावा सरकार के पास विकल्प ही क्या है? किसान या लोग मक्का तो पैदा कर सकते है हाथ काले कर मशीन बनाने का काम तो संभव ही नहीं हुआ। उस नाते अंग्रेज जैसा भारत छोड़ गए थे वैसा आज भी है। तब भी खेती से जीविका थी या कुलीगिरी-मजदूरी से। अब कहने को कृषि के बाद वह सेवा क्षेत्र है जिसके कॉल-सेंटर, आईटी की कोडिंग लिखने वाले कुली हो या बैक ऑफिस और डिजिटल प्लेटफॉर्म में काम करते सफेदपोश नौकरीपेशा, सब की मजदूरी में उत्पाजकता न्यूनतम है। अंग्रेजों ने भारत से किसान, मजदूर ले जा कर विदेशों में गन्ने की खेती करवाई थी और दशकों से भारत अब भी मजदूर सप्लायर है। खाड़ी, विएतनाम, आसियान देशों में मजदूर जाते है तो आईटी कंपनियां आनलाइन मजदूरी के ठेके लेकर लोगों से कोडिग कराती है। इनसे भारत की आर्थिकी है। अर्थात सेवा क्षेत्र का जीड़ीपी में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान। और मेरा मानना है कि ये अधिकांश काम अगले 5-10 वर्षों में एआई के स्वचालित होंगे। तब बेरोजगारों की भीड बनेगी उसके आगे मक्का पैदा करते किसान भारत को रोटी तो खिलाते रहेंगे। कम से कम रोटी के मामले में तो 150-160 करोड़ लोग आत्मनिर्भर रहेंगे!

यह रियलिटी या भारत की मजबूरी को अमेरिका का वाणिज्य मंत्री या दुनिया इसलिए भूली बैठी है क्योंकि मोदी सरकार ने 140 करोड की भीड के बाजार का हल्ला बना कर विकसित देशों में यह भ्रम बना दिया है कि जब तुर्की, खाडी, आसियान देश अनाज खरीद रहे है तो भारत का अडियल रूख क्यों?

असल बात है कि बाकि तमाम देश किसी कॉमिडिटी विशेष, किसी क्षेत्र विशेष (जैसे पर्यटन) मैन्यूफेक्चरिंग (अपने आपको दुनिया की फैक्ट्री बना कर) या फिर खेती (जैसे यूक्रेन, ब्राजील, बोलिविया से ले कर कई अफ्रिकी देश) से विदेश व्यापार में पहचान के साथ खड़े है वही भारत न तीन में है और पांच में। भारत की विश्व व्यापार में कोई विशेषज्ञता याकि पहचान नहीं है। वह केवल एक बाजार है। जहां खेती और सेवा के सारे काम “लो-वैल्यू” बेगारी के है। मैन्युफैक्चरिंग के “प्रोडक्टिव” जॉब्स नहीं के बराबर है।

भारत की कथित उत्पादकता में प्रोसेसिंग, रिफाईननिंग, रिपैकेजिंग में लोगों की मजदूरी है। भारत में मैन्युफैक्चरिंग की बुनियादी मशीने नहीं बनती। सारी मशीनरी याकि प्लांट की स्थापना चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी से आयातित मशीनों से होती है। उस नाते भारत ने औद्योगिक क्रांति का अनुभव लिया ही नहीं। हम हर साल 45–50 अरब डॉलर की औद्योगिक मशीनें, टर्बाइन, उपकरण, सीएनसी, रोबोटिक्स विदेश से मंगाते है। भारत में कार का कारखाना खुला हो या एपल के आईफोन बनने का, इन्हे बनाने वाली सारी मशीन, मशीन के टूल विदेश निर्मित है। कोई 70-80 फिसदी उन्नत मशीन टू्ल्स-पुर्जे विदेश से आते है। यही स्थिति सेमीकंडक्टर, प्रिसिजन इंजीनियरिंग, हाई-एंड रोबोट्स के मामले में है।

हां, नोट करे भारत के अदानी, अंबानी जैसे खरबपति कुछ नहीं बनाते। है ये सब सिर्फ व्यापार- धंधा करते है तेल रिफाईन करके बेचते है, फोन सेवा (इसकी आवश्यक मशीनरी, आधुनिक तकनीक सब विदेश से) देते है, हवाईअड्डे-बदंरगाह चलाते है। लोगों को टोपियां पहनाते हुए सरकार की कृपा से बेइतंहा मुनाफा कमाते है। इसलिए अदानी-अंबानी, अमेरिका सभी की दिली तमन्ना है कि भारत दुनिया से मक्का, गेंहू खरीदना शुरू करें ताकि बंदरगाह से लेकर सुपर स्टोरों में रौनक बढे। आखिर 140 करोड लोगों की भीड़ में विदेशी अनाज, खाद्यान, खानपान वाले भी तो दो-चार करोड़ लोग पैदा हो गए है।

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