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राहुल हों या अखिलेश, एक ही अंदाज

Rahul Gandhi Akhilesh YadavImage Source: ANI

कांग्रेस और राहुल गांधी का कैनवास अखिल भारतीय है। इसलिए विपक्ष की दुर्गति का राहुल गांधी पर ठीकरा फूटना स्वाभाविक है। लेकिन सोचें, यदि उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में अखिलेश यादव हारे तो ठीकरा उन्हीं पर फूटेगा या राहुल पर? अखिलेश वैसे ही चुप्पी धार के बैठ जाएंगे, जैसे बिहार में तेजस्वी बैठे हुए हैं। कसूरवार फिर भी राहुल गांधी ठहरेंगे। आखिर बड़ी पार्टी के बड़े नेता के नाते झारखंड और महाराष्ट्र के नतीजों में कांग्रेस पर ही फोकस होना है। कहा जाएगा राहुल गांधी ने मेहनत नहीं की। पर अखिलेश, हेमंत सोरेन, तेजस्वी, अरविंद केजरीवाल (दिल्ली में) कथित मेहनत के बाद भी हारे तो क्षेत्रीय दलों पर कितना ठीकरा फूटेगा? यूपी से लेकर दिल्ली, बिहार सब जगह यदि भाजपा ने उपचुनाव या आगे के विधानसभा चुनाव जीते तो अखिलेश, केजरीवाल, तेजस्वी क्या मानेंगे कि वे खुद के कारण हारे हैं, तब कांग्रेस सीन में कितनी होगी? अरविंद केजरीवाल और नई दलित पार्टी बनाए चंद्रशेखर ने हाल में हरियाणा में उम्मीदवार खड़े किए तो उसके बाद अब ये क्या सोचते हुए हैं? इन्होंने क्या रत्ती भर भी यह सोचा कि वे जिम्मेवार हैं भाजपा की जीत के लिए! या इस घमंड में अधिक हैं कि कांग्रेस को औकात बता दी।

सोचें, केजरीवाल-मनीष सिसोदिया एंड पार्टी को मोदी सरकार ने कैसा प्रताडित किया? तेजस्वी, अखिलेश, चंद्रशेखर, उद्धव, हेमंत, ममता, पवार आदि सबके साथ क्या नहीं किया। इस अनुसार ये सब, ‘इंडिया’ गठबंधन को अपनी पहली प्राथमिकता क्या बताते हैं? नरेंद्र मोदी और भाजपा को हराना है! यदि ऐसा है तो मोदी के खिलाफ का वोट कौन सा है? मुसलमान, दलित, आदिवासी और अन्य जातियों का वह किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग जो आर्थिक कारणों से बेहाल या बेचैन है। इस बेसिक वोट आधार की बुनियादी अखिल भारतीय आवाज, राजनीति का मंच कांग्रेस है। इसी के चलते लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन का कुछ आधार बना था, जिसका सर्वाधिक फायदा उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को हुआ। मेरा मानना है यदि लोकसभा चुनाव में राहुल-अखिलेश का साझा नहीं होता तो भाजपा की यूपी में फिर छप्पर फाड़ जीत थी। हालांकि अखिलेश ने यह होशियारी की थी जो यादव, मुसलमान उम्मीदवार अधिक खड़े नहीं किए। बावजूद इसके मुसलमानों, भाजपा विरोधी वोटों ने ‘इंडिया’ एलायंस को अच्छा वोट दिया।

जाहिर है लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा एक और एक ग्यारह की केमिस्ट्री से जीते। पर नतीजों के बाद अखिलेश को लगा उन्होंने किला फतह कर लिया। उनकी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी सो हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनाव में भी वे कांग्रेस से सीटें मांगने लगे। यूपी के उपचुनाव में अकेले अपनी ताकत मानी। और नोट करें अखिलेश की यह अपने पांवों कुल्हाड़ी है। जबकि वे यह निश्चित ही जानते हैं कि मोदी, शाह, योगी, भाजपा यूपी में अब आगे बरदाश्त नहीं करेंगे। किसी भी सूरत में समाजवादी पार्टी को नहीं जीतने देंगे। यूपी में जीत के लिए मुसलमान का सौ फीसद वोट अखिल भारतीय चिंता में कांग्रेस के साथ से ही मिलना संभव है। उस नाते राहुल गांधी की समझदारी थी जो यूपी उपचुनाव में कांग्रेस ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। न ही श्रीनगर में सरकार में वह शामिल हुई। यदि कांग्रेस उमर सरकार में होती तो वहां अनुच्छेद 370 का प्रस्ताव विधानसभा में आता नहीं कि महाराष्ट्र, झारखंड में भाजपा का नंबर एक प्रचार मुद्दा तब यह होता कि देखो, कांग्रेस जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 लौटाना चाह रही है।

निश्चित ही कोई भी क्षेत्रीय पार्टी अपने यहां कांग्रेस को बढ़ने नहीं देना चाहेगी। लेकिन मोदी-भाजपा की अखिल भारतीय राजनीति के आगे कांग्रेस की अखिल भारतीय पहचान वह छाता है, जिसे पकड़ कर क्षेत्रीय दल अपने-अपने प्रदेश में मुस्लिम, दलित, आदिवासी, किसान-मध्य वर्ग के भाजपा विरोधी आधार को पक्का बना सकते हैं। उसी के जोड़ से क्षेत्रीय पार्टियों का जातीय आधार एक और एक ग्यारह के नतीजे बनवा सकता है।

पर भारत की नई युवा पीढ़ी (भाजपा में भी) तात्कालिक और तत्क्षण राजनीति के स्वभाव की है। मोदी-भाजपा की चुनौती के आगे ‘इंडिया’ गठबंधन के युवा नेताओं (महाराष्ट्र में शरद पवार पर गौर करें। कैसे इस उम्र में भी पार्टी को खड़ा कर दे रहे हैं) में एक-एक बूंद जुटा कर, एकजुटता बना जीतने की जिद्द और राजनीति है ही नहीं।

और कांग्रेस में तो बहुत बुरी दशा। न राहुल गांधी चौबीसों घंटे राजनीति सोचते और करते हैं। न ही कांग्रेस मुख्यालय में मोदी-शाह की चौबीसों घंटे की पैंतरेबाजी को समझने की तनिक भी बुद्धि लिए एक भी व्यक्ति बैठा है। वही दूसरी तरह अखिलेश, केजरीवाल, तेजस्वी, स्टालिन, प्रकाश करात, ममता आदि अपने दायरे में वैसी ही ख्याली राजनीति करते हुए हैं, जैसे 2014 में करते थे। जबकि पिछले दस वर्षों में ही मोदी-शाह कई गुना अधिक आधुनिक मशीनरी, संसाधनों के साथ वोटों की नई-नई असेंबली लाइन बनाते हुए हैं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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