कहने को भारत आज महाशक्ति है। लेकिन दक्षिण एशिया में अपने पड़ौस में भी छोटे बड़े सभी देश भारत से छिटके हुए है। नेपाल जैसे छोटा और पारंपरिक दोस्त देश भी भारत विरोधी राजनीति का गढ़ है। सोचें, जिस देश के साथ तमाम धार्मिक और सांस्कृतिक संबंध हों और जिस देश के गांव गांव में भारत के लोगों के सामाजिक संबंध हों वह देश भारत विरोधी गतिविधियों का अड्डा बन जाए और कूटनीति के जरिए इसे नहीं संभाला जा सके तो इसे क्या कहा जाएगा? पिछले ही दिनों चीन में पुष्प कमल दहल प्रचंड की सरकार चली गई और चीन समर्थक केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री बने गए। तब लगा, मानों मोदी सरकार को पड़ोस में हुए इस राजनीतिक बदलाव से मतलब नहीं है।
फिर बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ। शेख हसीना वाजेद को देश छोड़ कर भागना पड़ा। उन्होंने भारत में शरण ली है। लेकिन बांग्लादेश के घटनाक्रम में भारत की खुफिया एजेंसियां और कूटनीतिक प्रतिष्ठान गाफिल रहे। उनको या तो जानकारी नहीं हुई या अगर जानकारी हुई तो उनके पास स्थितियों को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं थी। अभी तो वहां नोबल पुरस्कार सम्मान पाए मोहम्मद यूनुस सरकार संभाल रहे हैं लेकिन सबको पता है कि चुनाव हुए तो जमात के समर्थन वाली सरकार बनेगी। सोचें, एक घनघोर कट्टरपंथी और भारत विरोधी संस्था के समर्थन वाली सरकार बनने से भारत के लिए कैसे संकट पैदा होंगे।
श्रीलंका पहले ही चीन के पाले में है। वहां जब जिन विद्रोह हुआ तो भारत ने श्रीलंका को बड़ी मानवीय सहायता पहुंचाई। लेकिन राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से वह चीन के पाले में ही रहा। तभी चीन के बड़े जासूसी जहाज उसके बंदरगाहों पर रूके रहे। भारत के सामरिक प्रतिष्ठानों की निगरानी कर रहे हैं। वहीं उसके पास ही हिंद महासागर में स्थित द्वीपीय देश मालदीव भी भारत के खिलाफ है। हालांकि छोटी छोटी बातों के सहारे सोशल मीडिया में यह नैरेटिव बनाया जा रहा है कि मालदीव मजबूरी में भारत के साथ आ रहा है लेकिन हकीकत यह है कि मोइज्जू की सरकार चीन के प्रति ज्यादा सद्भाव रखती है। तभी सरकार में आते ही उन्होंने भारत के सैनिकों को वहां से हटाया। सोचें, वह देश, जहां एक समय भारत की सरकार ने तख्तापलट को विफल किया था। वह देश, जहां की अर्थव्यवस्था भारत के पर्यटकों से चलती है। वह देश, जहां के तमाम संवेदनशील जगहों की सुरक्षा भारत की सेना करती थी। उस देश ने भारत से दूरी बना ली।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में तो कहने की जरुरत ही नहीं है। पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त नहीं रहा है। लेकिन कामचलाऊ संबंध सभी सरकारों ने बनाए। सबने वार्ता का चैनल खोले रखा और थोड़ी बहुत मात्रा में कारोबार भी करते रहे। लेकिन घरेलू राजनीति के हिसाब से कूटनीति करने वाली इस सरकार ने पाकिस्तान के साथ सारे संबंध तोड़ लिए। चीन ने जून 2020 में हमारे 40 जवान मारे लेकिन उसके साथ सैन्य वार्ता जारी है और कारोबार खूब फलफूल रहा है लेकिन पाकिस्तान के साथ न तो कूटनीतिक वार्ता है और न सॉफ्ट कूटनीति है। उधर अफगानिस्तान में तालिबान शासन के तीन साल हो गए। इन तीन सालों में उनके साथ कोई प्रत्यक्ष संवाद नहीं दिखाई दिया है। ऊपर से पिछले तीन चार साल में वहा से भारत में नशीले पदार्थों की बड़ी बड़ी खेप पहुंचने की दर्जनों खबरें आई हैं। कहा जा रहा है कि अफगानिस्तान से या वहां के रास्ते यह खेल चल रहा है। यह पता लगाना भी मुश्किल है कि भारत का पाब्लो एस्कोबार कौन है, जो क्विंटल में नहीं टन में नशीले पदार्थ भारत ला रहा है। इतना ही नहीं चीन ने भूटान के साथ भी समझौता करके वहां भी भारत को बैकफुट पर ला दिया है।