यह उत्तर भारत का चुनावी सत्य है। जयपुर, भोपाल, रायपुर, लखनऊ कहीं बात करें सभी तरफ फीका, निराकार चुनाव है। न उम्मीदवारों के चेहरे चर्चा में हैं और न पक्ष-विपक्ष का प्रचार दिख रहा है। लोगों के मन में अकेले पैठे नरेंद्र मोदी के चेहरे में सब माने बैठे हैं कि भले गले में भाजपा का पट्टा बंधाए कुत्ता उम्मीदवार हो, जीतेगा वही। चर्चाओं में जीत-हार की बहस या उम्मीदवारों को लेकर किसी तरह की कोई चख-चख नहीं। 1977 बाद इतना फीका लोकसभा चुनाव (तब मौन क्रांति थी) कभी देखने को नहीं मिला।
मगर बेजान चुनाव की यह हकीकत उन्ही हिंदी भाषी राज्यों की है, जहां मेरे तो गिरधर गोपाल नरेद्र मोदी की भक्ति है। मतलब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू की कोई 185-189 लोकसभा सीटों में वह माहौल है, जहां कार्यकर्ताओं, पार्टियों, नेताओं और मतदाताओं सभी ने यह माना हुआ है कि जीतना तो भाजपा को है। इसलिए न खर्च की जरुरत और न वोट मांगने की जरुरत।
मैं इस लिस्ट से हिंदीभाषी इलाके के दिल्ली, बिहार और झारखंड को अलग रख रहा हूं। इन तीन राज्यों में विपक्षी क्षत्रप हैं इसलिए यहां दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों की तरह कांटे की लड़ाई का माहौल दिख रहा है। इन राज्यों में मोदी विरोधी नेताओं को सहानुभूति और जमीनी गणित का दमखम मिला हुआ है। हां, अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन भले जेल में हों लेकिन लोगों में उनका चेहरा है। इनके प्रति लोगों की सहानुभूति से क्या गुल खिलेगा, यह चुनाव नतीजों से मालूम होगा। ऐसे ही बिहार में लालू-तेजस्वी-कांग्रेस एलायंस का जमीनी आधार बिहार में माहौल को गर्माए हुए है।
नीतीश कुमार और उनके बाकी साथियों के उम्मीदवार निश्चित ही संकट में हैं। बिहार में नरेंद्र मोदी से भाजपा के उम्मीवारों को भले भक्तों के वोट मिलें लेकिन नीतीश कुमार, मांझी, चिराग पासवान के उम्मीदवारों के लिए लोग वोट डालने उमड़ पड़ें, यह मुश्किल है। तभी बिहार में, पटना में चुनावी कयासों, चर्चाओं और सरगर्मियों की जबरदस्त गहमागहमी है। कुछ जानकारों के अनुसार भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कांग्रेस की समझदारी से हरियाणा में भी कांटे का मुकाबला बना है। लोगों में मुकाबले का सस्पेंस है बावजूद इसके मैं हरियाणा को मोदी की हवा वाला राज्य ही मानता हूं। विपक्ष को दो-तीन सीटें मिल जाएं तो वह बड़ी उलटफेर होगी।
जाहिर है जिन राज्यों में मोदी हवा है वहां विपक्ष का दो-तीन सीटें जीतना बड़ी उलटफेर होगी। मोदी भक्ति की 185-189 लोकसभा सीटों (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू) में विपक्ष को 20-25 सीटें भी मिलें तो हैरानी होगी।
और यह तथ्य नोट रखें कि इन राज्यों में 2019 के मुकाबले में एक-दो-पांच सीटों का नुकसान ही भाजपा की पिछली 303 सीटों में कमी का आधार होगा। इन्ही इलाकों से भाजपा के 273 पार सीटों का आंकड़ा बेजान चुनाव से घटना या बढ़ना है।
सवाल है माहौल जब फीका है तो मतदान प्रतिशत कम होगा या अधिक? उत्तर प्रदेश में भाजपा उम्मीदवारों को जिताने के लिए अपने आप अधिकाधिक मतदान होगा या भाजपा विरोधी वोट मरे हुए विपक्ष को ज्यादा शिद्दत से वोट डालेंगे? मान लें अमेठी में राहुल गांधी, रायबरेली में प्रियंका खड़ी हों तो इनके लिए अधिक मतदान फायदेमंद है या कम मतदान? चुनाव जब उठ नहीं रहा है, उम्मीदवार पैसे खर्च नहीं कर रहे और भाजपा उम्मीदवार जीत के अति आत्मविश्वास में हैं तो वे भला क्यों मतदान के दिन अधिक वोट डलवाने के लिए पैसा खर्च करें? वोट डालने के मामले में मोदी भक्त अधिक गंभीर होंगे या मोदी विरोधी?
अपना मानना है माहौल कितना ही फीका रहे, भाजपा संगठन व संघ मशीनरी मतदान के दिन अपने वोट डलवाने के लिए भारी एक्टिव होगी। भाजपा का पूरा चुनाव अब या तो मोदी-शाह-योगी की रैली की भीड़ के लिए है या मतदान के दिन अपने वोट डलवाने की मशीन है। मतदान के दिन भक्तों के पूरे वोट ईवीएम में डले, यही भाजपा-संघ मशीनरी का अकेला चुनावी मिशन है। पर यदि पहले से ही, मतदान के दिन तक जब मोदी के उम्मीदवार के जीतने की गारंटी है तो वोट डालने का उत्साह कैसे बनेगा? तभी इस बार फीके चुनावी माहौल के बावजूद मतदान का आंकड़ा देखने लायक होगा।