Naya India

विपक्ष नकल करता है अक्ल नहीं लगाता!

रणनीति

विपक्ष के पुराने और नए नेता नरेंद्र मोदी की देखा-देखी वह सब कर रहे है जो चुनाव प्रबंधन के नए तौर-तरीके हैं। सोशल मीडिया, सर्वे टीम, चुनावी प्रबंध की एजेंसियों, पेशेवरों, मार्केटिंग-ब्रांडिंग की पोस्टरबाजी के सारे तामझाम राहुल, अखिलेश, तेजस्वी, हेमंत, अरविंद केजरीवाल, जयंत चौधरी, अभिषेक बनर्जी आदि चुनावों में अपनाए हुए होते हैं। करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करते हैं। निश्चित ही चार महीने बाद ‘इंडिया’ एलांयस की पार्टियां इसी ढर्रे पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। मगर होगा वही जो अभी उत्तर भारत में हुआ है। कांग्रेस जैसे हारी है। क्यों?

जवाब में राहुल गांधी, केजरीवाल, अखिलेश, मायावती, लालू यादव, नीतीश कुमार, हेमंत सोरेन आदि को खुद यह सोचना चाहिए कि इनके पास वह जुमला, वह मुद्दा, वह जादू, वह अभिनय, वह स्क्रिप्ट कहां है, जिसके भौकाल से लोग नरेंद्र मोदी की बजाय उनकी फिल्म पसंद करें? उनके भक्त बने? क्या विपक्ष किसी ऐसे चेहरे को मोदी के आगे उतार सकता है, जिससे लोग ठिठक कर सोचें, हां, यह तो काबिल है, दमदार है और इसे ही वोट देना है! या क्या विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी को घेरने का ऐसा मुद्दा, ऐसा आरोप है, जिससे लोग नरेंद्र मोदी के खिलाफ सोचने को मजबूर हों? लोग गुस्सा हो जाएं? अगला सवाल है कि विपक्षी नेताओं में यह संकल्प है कहां कि कुछ भी हो जाए हम एक साथ करो-मरो में नरेंद्र मोदी को हराने की प्रतिज्ञा करते हैं?

विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद विपक्षी नेताओं की क्या कानाफूसी सुनाई दी? अखिलेश अपने अंतरंगों में कहते हुए थे अच्छा हुआ कांग्रेस को औकात मालूम हुई! सब यह खैर मनाते हुए थे कि अब कांग्रेस दबी रहेगी! नीतीश को भरोसा हुआ कि वे अब ‘इंडिया’ के मालिक। ऐसे ही मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के जेल में होने और केजरीवाल के जेल जाने के आसार के बावजूद आप पार्टी के नेताओं में गलतफहमी है कि वे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब में अकेले मोदी को लोकसभा सीटें नहीं जीतने नहीं देंगे। कांग्रेस या तो हमारी शर्तों पर सीट समझौता करे नहीं तो हम अकेले लड़ेंगे।

हां, इसी अंदाज में सब नेता, सभी विरोधी पार्टियां एक-दूसरे को लेकर सोचते हुए हैं। आखिरी वक्त तक ऐकला चलो के ढर्रे में पार्टियां तैयारियां करेंगी और ऐन वक्त सीट एडजस्टमेंट से हवा बनाई जाएगी कि हम मोदी को हराने के लिए एकजुट हो गए हैं। पर उससे माहौल कैसे बनेगा? यूपी-बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़ आदि में मोदी भक्तों की भीड़ और मोबिलाइजेशन के आगे मोदी विरोधियों में क्या कोई वैसी बिजली कड़की हुई होगी जैसे इमरजेंसी के बाद विपक्षी एकता बनते ही उत्तर भारत में फिजा बदली थी? 1977 का वक्त हो या 2014 के चुनाव से पहले का अन्ना हजारे आंदोलन व मोदी-शाह का भौकाल कई महीनों में धीरे-धीरे पका था। जबकि ‘इंडिया’ एलायंस में होना क्या है? राहुल, अखिलेश, नीतीश, तेजस्वी, हेमंत, केजरीवाल आदि पहले अपने सलाहकारों, सर्वेयरों, मैनेजरों से हिसाब लगवाते रहेंगे कि हम फलां-फलां सीट को जीत लेंगे। फिर सौदेबाजी करेंगे। खींचतान होगी। मार्च तक सीट एडजस्टमेंट बना होगा और सभी अपने खाते की सीट पर विपक्षी वोटों की गोलबंदी से भाजपा को हराने की गलतफहमी में रहेंगे। न पार्टियों के कार्यकर्ताओं में मिलजुल कर मेहनत का जोश बना हुआ होगा और न किसी नारे, मुद्दे का अखिल भारतीय भौकाल व नैरेटिव होगा।

मेरा मकसद विपक्ष के मनोबल को पंक्चर करने का नहीं है और न नरेंद्र मोदी को अजेय बताने का है। इंदिरा गांधी जब लुंजपुंज एलायंस से हार गई थी और राजीव गांधी की 420 सीटों का बहुमत भी जब पांच साल बाद में हार में बदला था तो नरेंद्र मोदी और भाजपा के चालीस प्रतिशत भक्त हमेशा जीतते जाने की गारंटी नहीं है। मगर हवा का रूख और परिवर्तन का माहौल तो पहले पका हुआ होना चाहिए। उत्तर भारत में इतनी बुरी हार के बाद चार महीनों में केजरीवाल, खड़गे-राहुल, अखिलेश, तेजस्वी, हेमंत, नीतीश कुमार में अपनी कमियों-गलतियों को समझ कर अक्ल से करो-मरो की एकता बना ले और चुनाव लड़े तो यह फिलहाल असंभव सा है। फिर भले तमाम विरोधी नेता जानते हुए हैं कि मई 2024 में हारने के बाद उनका खत्म होना तय है।

Exit mobile version