लगता है कि कांग्रेस खुद ही अपनी रणनीति भूल गई है या किसी नई योजना के चक्कर में कर्नाटक की जीत का फॉर्मूला छोड़ रही है। कांग्रेस ने कर्नाटक में एक रणनीति बनाई थी, जिसमें उसने सबसे पहले अपनी कमजोर सीटों की पहचान की थी। ऐसी सीटों की, जहां पार्टी कई चुनाव से हार रही थी या जिन सीटों पर कांग्रेस का सामाजिक समीकरण बहुत अच्छा नहीं था। उन सीटों पर पार्टी ने सबसे ज्यादा मेहनत की। सबसे पहले उन्हीं सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा हुई। वह रणनीति काफी सफल रही। कांग्रेस कर्नाटक में ऐसी कई सीटों पर जीती जो पारंपरिक रूप से कमजोर मानी जाती थी। अपनी इस रणनीति से कांग्रेस ने उत्तरी व तटीय कर्नाटक में भाजपा के गढ़ में तो ओल्ड मैसुरू के इलाके में एचडी देवगौड़ा के गढ़ में सेंधमारी की।
सो, हिसाब से कांग्रेस को इसी रणनीति को आजमाना था लेकिन ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस की बजाय भाजपा इस फॉर्मूले पर काम कर रही है। भाजपा ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में एक दर्जन सर्वे कराए हैं और पहले कमजोर सीटों व कमजोर उम्मीदवारों की पहचान कराई। इसके बाद सबसे कमजोर सीटों पर पार्टी ने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। सोचें, अभी चुनाव की घोषणा नहीं हुई है। तभी जब चुनाव की घोषणा से पहले ही भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक हुई, तो सबको हैरानी हुई। कयास लगाए गए कि चुनाव तैयारियों के लिए बैठक हुई है। लेकिन बैठक के अगले दिन भाजपा ने मध्य प्रदेश की 39 और छत्तीसगढ़ की 21 सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। ये सभी कमजोर सीटें हैं। भाजपा ने अपनी हारी हुई सीटों पर सबसे पहले उम्मीदवारों की घोषणा की है। ताकी उनको चुनाव की तैयारी करने का ज्यादा समय मिले और पार्टी के राष्ट्रीय नेता भी उनके लिए समय निकाल सकें।
भाजपा ने कमजोर सीटों पर कितनी बारीकी से काम किया है इसकी सबसे अच्छी मिसाल मध्य प्रदेश की गोहद विधानसभा सीट है, जहां 2018 में भाजपा के लाल सिंह आर्य लड़े थे और चुनाव हार गए थे। इस सीट से जीते कांग्रेस के विधायक रणवीर जाटव बाद में पाला बदल कर ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में चले गए। भाजपा ने उपचुनाव में उनको टिकट दिया लेकिन वे हार गए। उपचुनाव में हारने वाले इक्का-दुक्का उम्मीदवारों में से वे भी थे। तभी इस बार सिंधिया के तमाम सद्भाव के बावजूद भाजपा ने उनकी टिकट काट दी क्योंकि उसका आकलन था कि जब राज्य में सरकार बनने के बाद उपचुनाव में वे नहीं जीते तो इस बार नहीं जीतेंगे। उनकी टिकट काट कर भाजपा ने अपने 2018 में चुनाव लड़े अपने पुराने नेता और अनसूचित जाति मोर्चा के लाल सिंह आर्य को टिकट दिया। इस तरह भाजपा ने साफ मैसेज किया कि किसी के प्रति निष्ठा के नाम पर टिकट नहीं मिलने वाली है।
भाजपा ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर सीटों की चार श्रेणी बनाई है, जिसमें ए से डी श्रेणी तक की सीटें हैं। उसने टिकट का बंटवारा डी श्रेणी की सीटों से किया है। अगर भाजपा द्वारा घोषित सीटों को ध्यान से देखें तो कई में साफ दिखेगा कि उसने कांग्रेस की मजबूत सीटों को सबसे पहले टारगेट किया है। मध्य प्रदेश की 39 सीटों में से कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की सीटें ज्यादा हैं। भाजपा ने कांग्रेस के मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह की सीट पर उम्मीदवार घोषित कर दिया है। कांग्रेस के दिग्गज और प्रदेश चुनाव समिति के अध्यक्ष बनाए गए कांतिलाल भूरिया की सीट पर भी भाजपा ने उम्मीदवार घोषित कर दिया है। इनके अलावा जीतू पटवारी, विजय लक्ष्मी साधो, केपी सिंह, सुरेंद्र सिंह बघेल, अरिफ अकील, सचिन यादव आदि की सीट पर भी उम्मीदवारों की घोषणा हो गई है। इस तरह भाजपा ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेताओं की घेराबंदी का दांव चला है।
भाजपा ने आरक्षित सीटों पर जल्दी उम्मीदवार घोषित करने की रणनीति भी अपनाई है। मध्य प्रदेश में जिन 39 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा हुई है उनमें से 21 सीटें आरक्षित श्रेणी की हैं। भाजपा ने अनुसूचित जाति की आठ और जनजाति की 13 सीटों के लिए उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। भाजपा 2013 के चुनाव में इन 39 में से 29 विधानसभा सीटों पर जीती थी लेकिन 2018 में सभी सीटों पर हार गई। पार्टी को अंदाजा है कि 2013 की जीत नरेंद्र मोदी के नाम पर हुई थी, जिनको विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया था। इसलिए इन सीटों को पार्टी अपनी मजबूत सीट नहीं मान रही है। तभी पहले दौर में इन पर उम्मीदवार घोषित किए गए। भाजपा को लग रहा है कि अगर इनमें से कुछ भी सीट जीत गए तो वह बोनस है। ध्यान रहे पिछली बार 2018 में जब भाजपा हारी थी तब उसके वोट कांग्रेस से ज्यादा थे और उसकी सीटों में कांग्रेस से सिर्फ पांच कम थीं। कांग्रेस को 114 और भाजपा को 109 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा का वोट 41.02 फीसदी था और कांग्रेस का वोट 40.89 फीसदी था। सोचें, 15 साल राज करने के बाद जब भाजपा हारी तो उसका सिर्फ 3.86 फीसदी वोट कम हुआ। वह जीतने वाली पार्टी से वोट प्रतिशत में आगे रही थी। इस हकीकत को ध्यान में रख कर कांग्रेस को अपनी रणनीति बनानी चाहिए थी लेकिन वह अति आत्मविश्वास में दिख रही है और यह उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता है।