अमित शाह ने मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ की वैसे ही कमान संभाली है, जैसे 2014 से पहले महासचिव रहते हुए यूपी में लोकसभा चुनाव की कमान संभाली थी। इससे नतीजे वैसे आएं जैसे यूपी में आए, ऐसा कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि 2014 के बाद गंगा में बहुत पानी बह चुका है। खुद उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ अब अमित शाह से बड़े वोटदिलाऊ व उग्र चुनावी प्रबंधक हैं। फिर मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी एक और एक ग्यारह है। ऐसे ही छतीसगढ़ में भूपेश बघेल की इमेज और जातीय समीकरण में आदिवासी-दलित-पिछड़े वोटों की काट आसान नहीं है। वहां ओम माथुर के जरिए ही अमित शाह के अधिक काम होंगे। अमित शाह का अधिकांश समय मध्य प्रदेश में गुजरना है। और मैं अभी भी यह संभव मानता हूं कि जी-20 के बाद अमित शाह अचानक ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला करें।
इसलिए क्योंकि अमित शाह को येन केन प्रकारेण मध्य प्रदेश जीतना है। प्रदेश भाजपा के नेताओं मतलब शिवराज सिंह, नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय, वीडी शर्मा आदि का कोई अर्थ नहीं है। कोई माने या न मानने मेरा मानना है मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 में अमित शाह (साथ में भूपेंद्र यादव) बनाम दिग्विजय सिंह की वह राजनीति, वे दांवपेंच देखने को मिलेंगे, जिसका फिलहाल अनुमान लगाना ठीक नहीं है। असली लड़ाई मध्य प्रदेश में है, जिसकी जमीनी हकीकत की मोदी-शाह बारीक खबर रखते हैं। और उतनी ही दिग्विजय सिंह भी रखते हैं। इसमें दिग्विजय सिंह की अब तक की बड़ी सफलता यह है जो बागेश्वर धाम, प्रदीप मिश्रा आदि से प्रदेश में भगवा भक्ति का जो ज्वार बना है उसमें कमलनाथ को हिंदू विरोधी नहीं माना जा रहा है। कमलनाथ को आम हिंदू आस्थावान मानता है और तभी मुकाबला कांटे का होगा।
बावजूद इसके कमलनाथ-दिग्विजय सिंह की यह कमी है जो वे यह सोचते हैं कि अमित शाह उन्हें जीतने देंगे। दरअसल कांग्रेस दोनों प्रदेशों में इस इलहाम में है कि जैसे कर्नाटक में भाजपा पंक्चर हुई वैसे मध्य प्रदेश-छतीसगढ़ में भी होगी। मगर इसी से कांग्रेस को यह बूझना था कि कर्नाटक से मोदी-शाह चेत गए होंगे। वे हिंदी प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में रत्ती भर कमी नहीं रख छोड़ेंगे। कहते हैं मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने भाजपा के गढ़, कांग्रेस की सर्वाधिक मुश्किल सीटों का जिम्मा दिग्विजय सिंह को दिया था। दिग्विजय सिंह खूब घूमे और मेहनत भी की। हिसाब से दिग्विजय सिंह-कमलनाथ को लगातार हारने वाली सीटों पर पहले अपने उम्मीदवारों की घोषणा करनी थी। पार्टी को तैयारी के लिए मैदान में उतारना था। मगर उलटे पहल भाजपा ने की। तभी भोपाल में लोगों का यह कहना गलत नहीं है कि पहले मारे सो मीर की तरह भाजपा की लिस्ट का पॉजिटिव मैसेज बना। धारणा बनी है कि भाजपा ने अच्छे उम्मीदवार उतारे। इसलिए 39 उम्मीदवारों में यदि 5-8 उम्मीदवार भी जीत गए तो वह भाजपा का बोनस होगा। अमित शाह का मास्टरस्ट्रोक कहलाएगा।
तय मानें मुश्किल एसटी-एससी सीटों पर पहले उम्मीदवार उतार अमित शाह अब बसपा सहित छोटे जातीय समूहों-पार्टियों को मैनेज करेंगे। एक-एक सीट पर अपने हिसाब से उम्मीदवार उतरवाएंगें। दिग्विजय सिंह ने बसपा आदि के दलित वोटों के बिखरने की हकीकत में अपना जो हिसाब बनाया था उसे माइक्रो मैनेजमेंट से पंक्चर करेंगे। ध्यान रहे बसपा का प्रदेश में कभी अच्छा वोट हुआ करता था। पिछले चुनाव में भी कोई आठ प्रतिशत था। इन दिनों देश भर के आदिवासी-दलित वोटों में जो बेचैनी है तो उसका मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान तीनों जगह कांग्रेस को फायदा मिलना चाहिए। इस मामले में दिग्विजय सिंह-कमलनाथ ने काफी मेहनत की है। उस सब पर पानी फिरने वाला है (ऊपर से खड़गे-राहुल गांधी-वेणूगोपाल के मुगालते में भोपाल में रणदीप सूरजेवाला- जिंतेंद्र भंवर से अलग पंचायती अराजकता रहेगी)। कांग्रेस की समस्या बूथ-पंचायत स्तर के संगठन नहीं होने के साथ टिकट के समय के झगड़ों की है। जो मोदी-शाह की कमान से राजस्थान व मध्यप्रदेश में संभव ही नहीं है तो संघ परिवार के तमाम संगठनों की संगठन शक्ति अलग है। ये दिन-रात काम में जुट गए हैं। इस मामले में मध्य प्रदेश-छतीसगढ़ के संगठन प्रभारी शिवप्रकाश और अजय जांबवाल और संघ की तरफ से सब कुछ देखने वाले अरूण कुमार ने बहुत कुछ मोबलाइज कर लिया बताते हैं। छतीसगढ़ में पुराने संगठक सौदान सिंह का पूरे सीन से बाहर रहना अमित शाह-नरेंद्र मोदी की संगठन समझ और संगठन उपयोग का एक और संकेत है।
जो हो, मध्य प्रदेश में अमित शाह बनाम दिग्विजय सिंह के चुनावी दाव-पेंच देखने और समझने लायक होंगे। अमित शाह की प्रतिष्ठा क्योंकि अधिक दांव पर होगी तो मध्य प्रदेश के चुनाव में बहुत कुछ अनहोना होना है।