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महाराष्ट्र और झारखंड की चिंता

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भारतीय जनता पार्टी को जम्मू कश्मीर और हरियाणा से ज्यादा चिंता महाराष्ट्र और झारखंड की है। उसमें भी महाराष्ट्र भाजपा नेतृत्व के लिए जीवन मरण का सवाल है। लोकसभा चुनाव में भाजपा का गठबंधन महाराष्ट्र में बुरी तरह हारा। एकनाथ शिंदे की पार्टी को असली शिव सेना और अजित पवार की पार्टी को असली एनसीपी बनाने के बावजूद भाजपा की महायुति को 48 में से सिर्फ 17 सीटें मिलीं। पिछली बार उसने उद्धव ठाकरे के साथ लड़ कर 41 सीटें जीती थी। यानी उसके गठबंधन को 24 लोकसभा सीटों का नुकसान हुआ है। विधानसभा चुनाव में भी स्थिति सुधरती नहीं दिख रही है।

महाराष्ट्र कई कारणों से भाजपा के लिए बहुत अहम है। लोग कहते हैं कि दिल्ली की सत्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाती है। यह बात सही है लेकिन कई बार बिना उत्तर प्रदेश के भी देश की सत्ता मिलती है, परंतु महाराष्ट्र के बगैर कभी दिल्ली की सत्ता नहीं मिलती है। महाराष्ट्र जीतने वाला ही देश जीतता है। याद करें कैसे 1995 में पहली बार महाराष्ट्र में शिव सेना और भाजपा की सरकार बनी और उसके बाद एक विधानसभा के कार्यकाल में देश में भाजपा की तीन बार सरकार बनी। महाराष्ट्र में सत्ता में रहते ही भाजपा ने केंद्र में 1996, 1998 और 1999 की सरकार बनाई थी। वह 1999 में महाराष्ट्र की सत्ता से बाहर हुई और फिर केंद्र की सत्ता से भी बाहर हो गई। फिर वह 2014 में महाराष्ट्र में लोकसभा का चुनाव जीती और बाद में महाराष्ट्र में भी सरकार बनाई। इस बार लोकसभा चुनाव में वही इतिहास दोहराया गया है। कांग्रेस और उसका गठबंधन जीता है और अब वहां विधानसभा चुनाव की बारी है। अगर विधानसभा में भी कांग्रेस, शरद पवार और उद्धव ठाकरे का गठबंधन जीतता है तो दिल्ली में नरेंद्र मोदी की गद्दी के लिए बड़ा संकट पैदा होगा।

महाराष्ट्र देश की वित्तीय राजधानी है। कॉरपोरेट का गढ़ है। उत्तर प्रदेश का जैसा राजनीतिक मैसेज बनता है उसी तरह का आर्थिक मैसेज महाराष्ट्र से बनता है। मोदी और शाह नहीं चाहेंगे कि वह मैसेज खराब हो। दूसरी बात यह है कि महाराष्ट्र में गुजरात को लेकर इन दिनों बहुत विद्वेष बना है। पिछले कुछ समय में महाराष्ट्र से कई बड़ी आर्थिक परियोजनाएं गुजरात गई हैं। चाहे फॉक्सकॉन का प्रोजेक्ट हो या टाटा एयरबस का प्रोजेक्ट हो। लाखों करोड़ रुपए की परियोजनाएं जो पहले महाराष्ट्र में लगने वाली थीं वह गुजरात चली गईं। इसे मराठी मानुष भेदभाव मान रहा है। उसके मन में यह धारणा बनी है कि महाराष्ट्र बनाम गुजरात की पुरानी लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात को बड़ा बनाने में लगे हैं। वे महाराष्ट्र की कीमत पर गुजरात को देश की वित्तीय राजधानी बनाने में लगे हैं।

महाराष्ट्र की हार हिंदुत्व के मुद्दे पर भी भाजपा की पोजिशन को कमजोर करेगी। अगर महाराष्ट्र के लोग उद्धव ठाकरे मॉडल के हिंदुत्व को पसंद करते हैं तो भाजपा के लिए मुश्किल होगी। उसे इस मसले पर भी नए सिरे से पोजिशनिंग करनी होगी। लोकसभा चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के भी कई पदाधिकारियों ने इधर उधर बयान दिया है। हालांकि उनकी भी खुल कर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई है। लेकिन महाराष्ट्र का नतीजा अगर भाजपा के अनुकूल नहीं आता है तो संघ के लोगों की भी हिम्मत खुल जाएगी। फिर छायावादी अंदाज में बातचीत बंद होगी और खुली चर्चा होगी।

तभी महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव को टाला गया। सोचें, हरियाणा में विधानसभा का कार्यकाल तीन नवंबर को खत्म हो रहा था और महाराष्ट्र में 25 नवंबर को। फिर भी हरियाणा में चुनाव हो रहा है और महाराष्ट्र में नवंबर के दूसरे हफ्ते तक चुनाव टाल दिया गया। इसका मकसद सिर्फ इतना था कि मोदी और शाह वहां राजनीतिक समीकरण बैठाने और नीतिगत फैसलों से माहौल बनाने के लिए कुछ अतिरिक्त समय चाह रहे थे। उनको यह भी उम्मीद है कि जम्मू कश्मीर और हरियाणा में अगर संयोग से नतीजे अनुकूल आ गए तो महाराष्ट्र और झारखंड में उसका सकारात्मक असर होगा। तभी जम्मू कश्मीर और हरियाणा में इतना जोर लगाया जा रहा है और इतनी तरह की तिकड़म की जा रही है। लोकसभा चुनाव में अजित पवार के बुरी तरह से फेल होने के बावजूद उनको साथ रखा गया है। खबर है कि उनकी पार्टी को एमएलसी की तीन सीटें दी जाएंगी। उनके सहारे भाजपा अब भी मराठा वोट की उम्मीद कर रही है।

ऐसे ही झारखंड में भाजपा ने पूरी ताकत झोंकी है। चुनाव प्रभारी शिवराज सिंह चौहान और सह प्रभारी हिमंत बिस्वा सरमा ने पूरा जोर लगाया है तो चुनाव की घोषणा से पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दौरे भी हो रहे हैं। पड़ोस के राज्यों में दो आदिवासी मुख्यमंत्री बना कर और झारखंड की राज्यपाल रहीं द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर भाजपा ने आदिवासी वोटों को मैसेज दिया है तो बांग्लादेशी घुसपैठियों के हवाले हिंदू, मुस्लिम का मुद्दा भी खुल कर बनाया जा रहा है। वहां भी भाजपा ऐसे सारे उपाय आजमा रही है, जो हरियाणा और जम्मू कश्मीर में आजमाए जा रहे हैं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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