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काबिल और कारिंदे!

भारत में जिसको सुनिए वो कहेगा कि काबिल लोगों की कमी नहीं हैं। कमी नहीं है तो फिर कहां हैं काबिल लोग? भारत के काबिल लोग क्या अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के लिए कुलीगिरी नहीं कर रहे है? वे चाइनीज कंपनियों के भारत में बाजार एजेंट हैं या अमेरिकी उद्यमियों की कंपनियां चला रहे हैं। मोटा वेतन पा रहे हैं। उससे मुगालता और संतोष मिलता है कि हमारा दुनिया में डंका। देखा नहीं गूगल के इंडियन सीईओ सुदंर पिचाई ट्रंप के शपथ प्रोग्राम में थे। पर वे मालिक तो नहीं हैं। मालिक और कंपनी तो अमेरिकी हैं। और कल्पना करें कि नरेंद्र मोदी सुंदर पिचाई को भारत में ‘देशी गूगल’ बनाने की कंपनी बनाकर दें तो वे क्या भारत में स्वदेशी गूगल, फेसबुक बना देंगे?

सभी प्रवासी इंडियन सीईओ को भारत में ला दिया जाए तो क्या वे भारत को अमेरिका बना सकते हैं? इस सवाल पर चुप्पी छा जाएगी। क्या भारत के नाकाबिल सरकारी बाबू, कारिंदे भारत में कोई माइक्रोसॉफ्ट, एपल कंपनी, ऑरेकल, ओपनएआई जैसी महाबली वैश्विक कंपनी बनने देंगे? जाहिर है सबको जन्नत की हकीकत पता है। सब दिल बहलाते रहते हैं अमेरिका में भारतीय सीईओज का जिक्र करके।

भारत में काबिलियत को लेकर सोच ही नहीं है। उसकी कोई जरुरत ही नहीं मानी जाती है। 145 करोड़ लोगों में चंद ही काबिल, चंद ही सर्वज्ञ हैं और वह प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री होता है। उनके बाद रट्टा मार कर, यूपीएससी का सिलेबस याद करके आईएएस बनी जमात है। लेकिन सबको पता है कि भारत के एकाध प्रधानमंत्रियों, दो चार मुख्यमंत्रियों और चुनिंदा अधिकारियों के अलावा किसी के पास कोई ऐसी दृष्टि नहीं रही है कि वह भारत का विकास कर सके या भारत को अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोप की तरह बनाने के बारे में सोच सके। सब सत्ता और ताकत की मौज लेते रहे हैं। नेता अपनी सारी समझदारी चुनाव जीतने में लगाता है और अधिकारी अपनी सारी समझदारी बेहतर पोस्टिंग में लगाता है।

आजादी के बाद भारत में शिक्षा का ऐसा ढर्रा बना है, जिसमें उद्यमिता के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गई। सब नौकर बनना चाहते हैं। सदियों दबे कुचले रहने की वजह से औपनिवेशिक मानसिकता में दिमाग दौड़ता रहता है। सत्ता सबसे बड़ी चीज है, जो राजनीति या अखिल भारतीय सेवाओं की लाल बत्ती से मिलती है। उद्यमिता में भी वही सोच हावी रही, जो मुगलों और अंग्रेजों के राज में थी। ऊपर बैठे लोगों को चांदी का जूता दिखाओ और बाकी लोगों को लूट कर अपना खजाना भरो। इसका नतीजा है कि न शिक्षा में निवेश हुआ, न स्वास्थ्य में निवेश हुआ और न कारोबार में प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ। तभी यह अनायास नहीं है कि भारत के इतिहास में किसी रॉकफेलर या जॉन हॉपकिन्स या बिल गेट्स या इलॉन मस्क का नाम सुनने को नहीं मिलता है।

अंग्रेजी राज की विरासत वाली शिक्षा से जो थोड़े बहुत लोग काबिल बनते हैं वे अमेरिका और ब्रिटेन या यूरोप चले जाते हैं। अगर कोई बच जाता है वह भारत में निजी उद्यमियों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए कुलीगिरी करता है। अगर उसमें किसी को योग्य मान कर सरकार के कामकाज में लिया जाए तो सिस्टम उसको काम नहीं करने देता है। सोचें, मोदी सरकार के अनुभव पर। उसने जब लैटरल एंट्री से निजी सेक्टर के किसी योग्य आदमी को सरकार में लाने का इरादा बनाया तो उनका चुनाव करते समय भी विचारधारा, जाति, क्षेत्र या किसी नेता से निकटता में होता दिखा। पुराने अफसरों ने उन्हें न टिकने दिया और न वे कोई छाप बना पाए।  सिस्टम के अंदर ऐसा विरोध कि हमारे बीच में काबिल व्यक्ति की क्या जरूरत। हम तो भगवानजी के अवतार हैं हम तो पद का बापी पट्टा लिए हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी हिम्मत हवा हो गई। हाल में जब यूपीएससी ने लैटरल एंट्री के जरिए बहाली की वैकेंसी निकाली और आरक्षण वालों का विरोध शुरू हुआ तो वैकेंसी रद्द कर दी गई। जो लोग लैटरल एंट्री के जरिए सिस्टम में लाए गए थे उनमें से किसी ने कोई अद्भुत काम किया हो इसकी कोई मिसाल नहीं है।

भारत में जिन भी काबिल लोगों का जिक्र है उनकी काबिलियत नकल करने भर की है। किसी ने फ्लिपकार्ट बना दिया या किसी ने जोमैटो और ब्लिंकिट बना दिया या किसी न जेरोधा ऐप बना दिया तो किसी ने ओला ऐप बना दिया तो इनमें नया या अनोखा क्या है? यह तो सब अमेजन के पीछे पीछे चलने वाली बात हुई। दुनिया भर में अमेजन से लेकर अलीबाबा और उबर की जब ऐप आधारित सेवाओं का दौर शुरू हुआ तो भारत में भी कुछ लोगों ने नकल करके अपनी कंपनी बनाई और कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी तो सब अरबपति हो गए। लेकिन उससे दुनिया में भारतीय उद्यमिता की क्या साख बनी? भारत में कौन सा ऐप बना, जिसका इस्तेमाल दुनिया कर रही है या भारत में कौन सा ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म बना, जिसके यूजर दुनिया भर में हैं? लेकिन दुनिया भर की नकल करके भारत में जो अरबपति बने या जो सिस्टम का इस्तेमाल करके पारंपरिक धंधे से अरबपति बने उनमें में भी शिक्षा या शोध, नई तकनीक में खर्च करने की समझ नहीं है। यदि सरकार की बात करें तो उसके पास वेतन, भत्ता और पेंशन देने से पैसा बचे तभी तो कुछ कर पाए! डोनाल्ड ट्रंप ने अभी ओपन एआई, ऑरेकल और सॉफ्टबैंक को साथ लाकर पांच सौ अरब डॉलर के स्टारगेट की नींव रखवाई है। क्या भारत में सर्वशक्तिशाली प्रधानमंत्री दो चार उद्योगपतियों और निजी बैंक वालों का साथ लेकर इसके 10 फीसदी के बराबर का भी कोई प्रोजेक्ट शुरू करा सकते हैं?

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