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नीतीश, मायावती का सरेंडर

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देश के अलग अलग प्रादेशिक क्षत्रप अलग अलग तरीके से राजनीति करते हैं। लेकिन एक बात सबमें कॉमन होती है कि वे अपना हित सबसे ऊपर रखते हैं। शायद ही कोई प्रादेशिक क्षत्रप ऐसा होगा, जिसने किसी दबाव में या लालच में अपना राजनीतिक हित छोड़ दिया हो। वह कुछ और समझौता कर सकता है लेकिन अपनी चुनावी राजनीति दांव पर नहीं लगा सकता है। मिसाल हेमंत सोरेन की है, जिनके ऊपर पूरे पांच साल दबाव रहा। वे गिरफ्तार हुए। जेल गए। लेकिन चुनावी राजनीति में समझौता नहीं किया। वे कांग्रेस और राजद से तालमेल करके लड़े और लगातार दूसरी बार जीत कर सरकार बनाई। प्रादेशिक क्षत्रपों की राजनीति के इस स्थापित सिद्धांत के बावजूद मायावती एक ऐसी क्षत्रप हैं, जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपनी पार्टी की राजनीति को खत्म होने दिया। यह समझना मुश्किल है कि जब 2019 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से तालमेल करके चुनाव लड़ा और उनके 10 सांसद जीते तो उन्होंने सपा से तालमेल क्यों खत्म किया? उनसे तालमेल का सपा को कोई फायदा नहीं हुआ। पहले भी उसके पांच सांसद थे और 2019 में भी पांच ही रहे। लेकिन 2014 में मायावती का एक भी सांसद नहीं जीता था और सपा से तालमेल की वजह से उनके 10 सांसद जीत गए।

परंतु मायावती ने सपा से तालमेल खत्म कर लिया। अगर मायावती तालमेल नहीं खत्म करतीं तो सपा अपनी ओर से तालमेल नहीं तोड़ने जा रही थी। अगर दोनों पार्टियां 2019 के लोकसभा की तरह 2022 में विधानसभा चुनाव एक साथ लड़तीं तो भाजपा का चुनाव जीतना मुश्किल था। लेकिन मायावती ने सपा से तालमेल खत्म करने के भाजपा की जीत का रास्ता बनाया। उन्होंने न सिर्फ तालमेल तोड़ा, बल्कि पूरी तरह से निष्क्रिय हो गईं। इसका नतीजा यह हुआ कि उनका वोट भाजपा और सपा दोनों तरफ बिखरा। वे नौ फीसदी वोट और एक विधायक की पार्टी बन गईं। उन्होंने लोकसभा में यही काम किया, जबकि वे अगर अपनी पार्टी की राजनीति को बचाने में दिलचस्पी लेतीं तो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में शामिल हो सकती थीं। उनके बगैर सपा ने 37 और कांग्रेस ने छह सीटें जीतीं और वे जीरो पर ही रह गईं। उनका सौ टका सरेंडर भाजपा के सामने है। पता नहीं किसी लालच से है या किसी भय से है या कोई और कारण है लेकिन यह हकीकत है कि वे सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि दूसे राज्यों में भी भाजपा की जीत के लिए काम कर रही हैं। इस वजह से उनका वोट बिखरा है और उनकी जगह लेने के लिए चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी खड़ी हो गई है।

मायावती की तरह ही अब बिहार के प्रादेशिक क्षत्रप नीतीश कुमार ने भी सरेंडर कर दिया है। हालांकि फिर भी नीतीश का मामला मायावती से थोड़ा अलग है। नीतीश 2020 के विधानसभा चुनाव में परदे के पीछे से चले गए भाजपा के दांव से घायल हुए थे। उस समय भाजपा उनके साथ थी लेकिन उसने अलग होकर लड़े चिराग पासवान की परदे के पीछे से मदद की और इससे नीतीश कमजोर हुए। 20 साल में पहली बार उनकी पार्टी तीसरे नंबर की पार्टी बनी। हालांकि लोकसभा चुनाव 2024 में उन्होंने अपनी खोई जमीन हासिल की लेकिन अब उनकी सेहत पहले की तरह उनका साथ नहीं दे रही है। चर्चा है कि वे अब एनडीए की राजनीति का मुखौटा बन गए हैं और उनकी पार्टी वैसे ही राजनीति कर रही है, जैसे भाजपा चाहती है।

यह भी कहा जा रहा है कि उनकी पार्टी के चुनिंदा नेता उनके बदले में फैसला कर रहे हैं और ऐसे तमाम नेताओं का समर्थन भाजपा के प्रति है। अगर ऐसा नहीं होता है तो अपने 16 सांसदों की जैसी कीमत चंद्रबाबू नायडू वसूल रहे हैं वैसे ही नीतीश कुमार भी अपने 12 सांसदों की कीमत वसूलते। लेकिन कम से कम अभी तक बिहार को केंद्र से वैसा पैकेज नहीं मिल पाया है, जैसा आंध्र प्रदेश को मिल रहा है। मायावती से नीतीश का एक फर्क यह भी है कि नीतीश किसी भय या लालच में नहीं फंसे हैं। तभी हो सकता है कि अंत में भाजपा उनके चेहरे पर चुनाव लड़े और जीतने के बाद वे थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री बनें। लेकिन अंततः उनकी पार्टी जनता पार्टी या जनता दल वाली गति को प्राप्त हो सकती है क्योंकि बाकी समाजवादी नेताओं की तरह नीतीश ने अपना उत्तराधिकारी तय नहीं किया है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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