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संसद की क्या हालत हो गई!

संसद का मानसून सत्र समाप्त हुआ। समापन के बाद बताया गया कि कितना कामकाज हुआ। अगर उस हिसाब से देखेंगे तो लगेगा कि संसद का सत्र काफी उपलब्धियों वाला रहा क्योंकि एक महीने के इस सत्र में लोकसभा में 12 और राज्यसभा में 15 विधेयक पास हुए। ऑनलाइन गेमिंग रोकने से लेकर स्पोर्ट्स और डोपिंग से जुड़े बिल पास हुए तो जहाजरानी मंत्रालय से जुड़ा बिल भी पास हुआ। नए आयकर कानून को दोबारा पेश करके पास कराया गया। इसके अलावा गिरफ्तारी या 30 दिन की हिरासत पर मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को कुर्सी से हटाने के लिए तीन विधेयक भी पेश किए गए, जिनको संसद की संयुक्त समिति के पास भेज दिया गया। इस लिहाज से दिखेगा कि संसद में कामकाज हुआ है।

लेकिन इन पर बहस, विचार कितना हुआ है। अफसरों ने बिल बनाए, केबिनेट ने ठप्पा लगाया और जनप्रतिनिधियों की बिना बहस, विचार, संशोधनों के बिल पास हो गए। लोकसभा में 12 और राज्यसभा में 15 बिल जो पास हुए हैं वो सारे बिल बिना किसी चर्चा के हुए हैं। शायद ही कोई बिल है, जिस पर संसद के अंदर चर्चा हुई। अगर चर्चा हुई भी तो वह सत्तापक्ष की तरफ से बिल पेश करते हुए कुछ बातें कही गईं और विपक्ष के हंगामे के बीच उनको पास करा लिया गया। ऑनलाइन गेमिंग पर रोक का बिल सूचना व प्रसारण मंत्री ने लोकसभा में पेश किया और चुटकियों में उसे पास करा लिया गया। अगले दिन राज्यसभा ने भी इसे पास कर दिया। लगभग सभी विधेयकों को ऐसे ही पास कराया गया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को हटाने का जो बिल पेश किया उस पर भी कोई चर्चा नहीं हुई। बिना चर्चा के ही उसे संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया।

लोकसभा में कुल 120 घंटे चर्चा के लिए निर्धारित थे लेकिन सिर्फ 37 घंटे चर्चा हुई। इसमें भी 16 घंटे की चर्चा पहलगाम कांड और ऑपरेशन सिंदूर को लेकर हुई, जिसमें एक घंटा 40 मिनट का भाषण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का था। इसका मतलब है कि बाकी विधेयकों और अन्य चीजों पर सिर्फ 21 घंटे चर्चा हुई। सोचें, इन 21 घंटों की चर्चा में ही 12 विधेयक पास हुए हैं, शून्यकाल की चर्चा हुई है, अल्पकालिक प्रस्तावों पर चर्चा हुई है और दूसरे जरूरी मुद्दे उठाए गए हैं।

इसी तरह राज्यसभा में 120 घंटे की तय अवधि के मुकाबले 40 घंटे चर्चा हुई। उसमें भी 16 घंटे की चर्चा ऑपरेशन सिंदूर पर था। इसका मतलब है कि बाकी सभी विषयों और विधेयकों पर 24 घंटे चर्चा हुई। सोचें, एक महीना सत्र चला और लोकसभा में 37 घंटे व राज्यसभा में 40 घंटे चर्चा हुई। इस बार केंद्र सरकार ने संसद के मानसून सत्र को स्वतंत्रता दिवस के आगे भी जारी रखने का फैसला किया था तो लगा था कि इस बार विधायी कामकाज कुछ बेहतर ढंग से होगा लेकिन संसद में न तो कोई गंभीर चर्चा हुई और न विधेयकों को पास कराने में संसद की मान्यताओं और परंपराओं का ध्यान रखा गया।

सोचें, संसद, उसके जनप्रतिनिधियों का का काम देश के 140 करोड़ लोगों के जीवन को बेहतर बनाने वाले कानून बनाने और देश के जरूरी मुद्दों पर चर्चा करने का है न कि अफसरों के बनाए विधेयकों पर आंख मूंद कर ठप्पा लगाने का है। लेकिन संसद, विधायिकी अब बिना चर्चा के है। धीरे धीरे यह नियम बनता जा रहा है कि किसी न किसी विषय पर सत्र के पहले दिन से हंगामा शुरू होता है और उस बहाने सारी चर्चाएं स्थगित कर दी जाती हैं। विपक्ष के हंगामे के बीच ही सरकार विधायी कामकाज कर लेती है। बिना चर्चा के विधेयक पास हो जाते हैं। उसके गुणदोष पर कोई चर्चा नहीं होती है।

यह भी लगता है कि सरकार जान बूझकर विवाद चलने देती है। जैसे इस बार विपक्षी पार्टियां पहले दिन से बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर पर चर्चा की मांग कर रही थीं। लेकिन सरकार ने इस पर चर्चा नहीं की। सरकार ने सत्र के दूसरे हफ्ते में पहलगाम कांड और ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा करा ली, जिसके बाद ये मुद्दे शांत हो गए लेकिन उसने आखिरी दिन तक एसआईआर पर चर्चा नहीं की, जिस पर विपक्ष सबसे ज्यादा हंगामा कर रहा था।

सरकार कह रही थी कि चुनाव आयोग सरकार के अधीन नहीं है इसलिए उसके कामकाज पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती है। सोचें, अगर चुनाव आयोग केंद्र सरकार के अधीन नहीं है तो क्या वह बिहार सरकार के अधीन है, जहां विधानसभा में एसआईआर को लेकर विस्तार से चर्चा हुई? वहां भी एनडीए की सरकार है। उसने विधानसभा में चुनाव आयोग के कामकाज पर चर्चा करा ली लेकिन संसद में चर्चा नहीं कराई। जाहिर है इसका मकसद हंगामा जारी रखना था ताकि जरूरी चीजों के जवाब नहीं देने पड़ें और विधेयक बिना चर्चा के पास हों।

यह अब हर सत्र की कहानी है। मोदी सरकार में अब लगभग सारे विधेयक बिना चर्चा के पास कराए जा रहे हैं। दिखावे के लिए अगर कोई विधेयक संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी को भेजा जा रहा है तो वहां भी मेरिट पर कोई काम नहीं हो रहा है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि संसदीय समितियों में सरकार अपने बहुमत की ताकत दिखा रही है। संसद की लोक लेखा समिति में बहुमत दिखा कर सरकार ने विपक्ष को जरूरी मसलों पर सवाल उठाने से रोका या रिपोर्ट स्वीकार नहीं होने दी। वक्फ बोर्ड का बिल जेपीसी में गया लेकिन क्या हुआ? जो सरकार चाहती थी वही रिपोर्ट वहां से आई।

ऐसे ही एक देश, एक चुनाव का बिल जेपीसी को गया है या मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्री को हटाने का बिल जेपीसी में गया है। उनमें भी वहीं होगा, जो सरकार चाहती है। हर जगह सरकार बहुमत का इस्तेमाल कर रही है। या तो संसदीय समितियों को विधेयक भेजे नहीं जा रहे हैं और भेजे जा रहे हैं तो बहुमत के दम पर मनमाफिक फैसला कराया जा रहा है। लोक लेखा समिति यानी पीएसी की रिपोर्ट पर पहले सरकारी हिल जाती थीं। लेकिन अब सीएजी की ओर से पीएसी को रिपोर्ट भेजना ही लगभग बंद हो गया है। पहले के मुकाबले एक चौथाई रिपोर्ट भी नहीं आती है। रिपोर्ट आती भी है तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। विपक्ष का नेता पीएसी का अध्यक्ष होता है लेकिन राहुल गांधी ने खुद अध्यक्ष बनने की बजाय अपने चहेते महासचिव केसी वेणुगोपाल को इसका अध्यक्ष बनवा दिया है।

संसद का इस बार का मानसून सत्र उप राष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के लिए भी याद रखा जाएगा। सत्र के पहले दिन ही धनखड़ ने इस्तीफा दे दिया। 21 जुलाई को वे राज्यसभा के सभापति के नेता सदन का संचालन करते रहे। उन्होंने कार्य मंत्रणा समिति की बैठक भी की लेकिन अचानक रात साढ़े नौ बजे के करीब उनका इस्तीफा हो गया। उसके बाद से वे कहां हैं, किसी को इसका अंदाजा नहीं है। सोचें, देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक अचानक पद से इस्तीफा दे देता है और उसके बाद एक महीने से उसका कोई अता पता न हो।

विपक्षी पार्टियां और पत्रकार पूछ रहे हैं कि वे कहां हैं। सत्र का कामकाज उप सभापति के जरिए चल गया। उधर लोकसभा में तो उपाध्यक्ष है ही नहीं। छह साल से ज्यादा हो गए। पिछली लोकसभा में उपाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं की गई और इस बार भी अभी तक नियुक्ति नहीं हुई है। सो, कुल मिला कर संसद, संसदीय पदाधिकारियों, पीठासीन अधिकारियों और समितियों आदि का कोई मतलब नहीं रहा है। सब अर्थहीन हो गए है। सरकार में एक या दो आदमी कुछ सोच कर रखते हैं और उसी हिसाब से काम हो जाता है।

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