प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वंशवादी पार्टियों को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते रहे हैं। उन्होंने कुछ समय पहले कहा था कि वे एक लाख युवाओं को प्रशिक्षण देकर राजनीति में ले आएंगे। हालांकि कहने के बाद उस दिशा में क्या हुआ यह किसी को पता नहीं है। वंशवादी राजनीति पर प्रधानमंत्री जब हमला करते हैं तो उन पार्टियों की ओर से गिनाया जाता है कि भाजपा में कितने वंशवादी नेता हैं या भाजपा ने कितने नेताओं के बच्चों को आगे बढ़ाया है। यह अंतहीन सूची है। अभी ही भाजपा ने जो प्रदेश अध्यक्ष बनाए हैं उनमें से कम से कम दो, मध्य प्रदेश के हेमंत खंडेलवाल और आंध्र प्रदेश के पीवीएन माधव दूसरी पीढ़ी के नेता हैं और उनके पिता भाजपा के बड़े नेता रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री, जिनको वंशवादी पार्टी बताते हैं उनकी ओर से उठाया जाने वाला सवाल सैद्धांतिक नहीं है। वे भाजपा के कुछ नेताओं के नाम गिना देते हैं और अपनी पोजिशन को जस्टीफाई करते हैं। उन्हें सैद्धांतिक सवाल उठाना चाहिए कि वंशवादी पार्टियां जो राजनीति कर रही हैं और भाजपा का मौजूदा नेतृत्व जो राजनीति कर रहा है उसकी तुलना करें तो पता चलेगा कि लोकतंत्र का ज्यादा नुकसान भाजपा कर रही है।
यह सही है कि वंशवादी या परिवारवादी पार्टियों में सर्वोच्च पद परिवार के किसी सदस्य के लिए आरक्षित है। वह योग्य नहीं होने पर भी उत्तराधिकार के आधार पर पार्टी में शीर्ष पद हासिल करेगा। लेकिन यह संभव है कि वह योग्य भी हो और भले उसको परिवार की पृष्ठभूमि से पद मिले लेकिन उसके बाद वह अपनी योग्यता से अपनी पोजिशन मजबूत करे। इसकी अनेक मिसाल दी जा सकती है। भाजपा के सहयोगी चंद्रबाबू नायडू को अपने ससुर एनटी रामाराव की विरासत मिली या एमके स्टालिन को अपने पिता एक करुणानिधि की विरासत मिली, जगन मोहन रेड्डी को बड़े संघर्ष के बाद अपने पिता वाईएसआर रेड्डी की विरासत मिली, लेकिन इन नेताओं ने अपनी योग्यता प्रमाणित की थी।
ये वंशवादी हैं लेकिन अयोग्य या निकम्मे नहीं हैं। ये किसी की कृपा पर राजनीति नहीं कर रहे हैं। किसी ने परची निकाल कर इनको मुख्यमंत्री नहीं बनाया है। इनको अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए किसी की चरण वंदना नहीं करनी होती है और किसी एक व्यक्ति के इलहाम पर उनको हटाया नहीं जा सकता है। ये जनता के बीच जाकर चुनाव लड़ते हैं, जीतते या हारते हैं और कुर्सी पाते हैं या कुर्सी गंवाते हैं। हेमंत सोरेन को उनके पिता शिबू सोरेन की वजह से झारखंड मुक्ति मोर्चा का उत्तराधिकार मिला लेकिन पिछले दो चुनावों में उन्होंने सर्वशक्तिशाली भाजपा को और उसकी सारी तिकड़मों को हराया। वे दो बार से अपनी पार्टी और गठबंधन को जीता रहे हैं और मुख्यमंत्री बन रहे हैं। वे अपने पिता की वजह से चुनाव नहीं जीत रहे हैं।
जो वंशवादी नेता इनकी तरह सफल नहीं हुए और चुनाव नहीं जीत सके वे भी राजनीति करते हैं, समीकरण बैठाते हैं, मजबूत नेताओं को आगे करते हैं उनके यहां भी नेता बनने का एकमात्र क्राइटेरिया निष्ठा या स्वामीभक्ति नहीं है। मिसाल के तौर पर तेजस्वी यादव अभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए हैं। हालांकि उनकी पार्टी दो बार सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है और वे दो बार उप मुख्यमंत्री बने हैं। फिर भी उनकी राजनीति में कमी नहीं दिखती है। उन्होंने निष्ठा के आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता और सामाजिक समीकऱण के आधार पर मंगनी लाल मंडल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। योग्यता और सामाजिक समीकरण के आधार पर अभय कुशवाहा को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया है। अगड़ी जाति से आने वाले मनोज झा और अमरेंद्र धारी सिंह को राज्यसभा भेजा है।
भाजपा के मौजूदा नेतृत्व और वंशवादी नेताओं की राजनीति का यह बड़ा फर्क है कि वंशवादी नेताओं को अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए सारे समय तिकड़म करने की जरुरत नहीं पड़ती है। दूसरी ओर भाजपा के नेता 24 घंटे इस चिंता में रहते हैं कि कोई दूसरा नेता चुनौती तो नहीं दे देगा या चुनाव हार गए तो सत्ता के साथ साथ पार्टी पर से पकड़ तो नहीं खत्म हो जाएगी? इस चिंता में हर जगह बिना जनाधार वाले और बिना किसी वैचारिक, राजनीतिक ताकत वाले व्यक्ति को सिर्फ इस आधार पर मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा रहा है कि वह निष्ठावान है, स्वामीभक्त है और राजनीतिक रूप से कमजोर है तो बाहर नहीं जाएगा, काबू में रहेगा। इस राजनीति के तहत ही परची निकाल कर मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं। उसके बाद प्रतिबद्ध मीडिया इसे मास्टरस्ट्रोक बताता है। हालांकि इसमें कुछ भी मास्टरस्ट्रोक नहीं है कि आप चौथी कतार में बैठने वाले किसी व्यक्ति को, जो पहली बार विधायक बना है, उसको मुख्यमंत्री बना दें और उसके ऊपर अपने भरोसे के किसी अधिकारी को बैठा दें, सरकार चलाने के लिए। आपका चुना हुआ व्यक्ति मुख्यमंत्री बन कर खुश है और आप सरकार पर अपनी पकड़ बना कर खुश हैं।
अयोग्य, निकम्मे, निराकार, बिना जनाधार वाले, बिना वैचारिक ज्ञान वाले व्यक्ति को निष्ठा व स्वामीभक्ति के पैमाने पर चुनना, उसको मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष बनवाना, उसे सांसद और मंत्री बनाना, किसी मानक पर लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाला नहीं कहा जा सकता है। यह वंशवाद की राजनीति से किसी मायने में बेहतर नहीं है, बल्कि कई बार उससे भी खराब होता है। वंशवादी राजनीति में तो किसी के योग्य निकल जाने की संभावना भी रहती है लेकिन सिर्फ निष्ठा और स्वामीभक्ति के आधार पर चुने गए नेता के योग्य होने की संभावना नगण्य होती है। इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि योग्यता के पैमाने को खारिज करके ही ऐसे लोगों को नेता चुना जाता है। इसलिए उसके योग्य होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। उसकी एकमात्र योग्यता अपने नेता का स्तुतिगान करने और नेता के विरोधी की खराब से खराब शब्दों में आलोचना करने की होती है। भाजपा में चौतरफा यही होता दिख रहा है। हर शाख पर ऐसे ही लोग बैठाए जा रहे हैं, जो पार्टी और देश की राजनीति में कोई गुणात्मक बढ़ोतरी नहीं कर रहे हैं। वे देश और पार्टी की राजनीति को या लोकतंत्र को मजबूत बनाने या कोई सार्थक दिशा देने वाले काम नहीं कर रहे हैं। उनको एक भूमिका दी जाती है, जिसे निभा कर वे चुपचाप नेपथ्य में चले जाते हैं। कैसे कैसे नेताओं को मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया? एकाध अपवाद को छोड़ दें तो किसे लोग याद रखेंगे? किसके योगदान की चर्चा होगी? एक दशक या दो दशक बाद उनमें से कौन भाजपा की राजनीति संभालता हुआ होगा?