सोचें, कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर। उन्होने प्रधानमंत्री द्वारा कांग्रेस को लगातार करप्ट कहने के बावजूद क्रोनी पूंजीवाद, अदानी, भ्रष्टाचार पर बोलना रोक दिया। ओबीसी और आरक्षण के उस मुद्दे को पकड़ा है जिसका चुनाव के मौजूदा राज्यों में ज्यादा अर्थ नहीं है। उन्होने पिछले महीने संसद के विशेष सत्र से पहले यानी 18 सितंबर से पहले तेलंगाना में एक सभा की। उसके बाद से कांग्रेस के नेता आज तक उस सभा की व्याख्या कर रहे हैं। तेलंगाना में कांग्रेस के लिए अच्छी संभावना है लेकिन अपने को झोंक कर चुनाव लड़ने का जज्बा राहुल-प्रियंका-खडगे में नहीं दिख रहा है। तेलंगाना हो या मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान कांग्रेस नेताओं ने सब कुछ प्रदेश के नेताओं के हवाले छोड़ा हुआ है। प्रदेश के नेता भी पुराने ढर्रे पर लड़ रहे हैं।
कांग्रेस के बड़े नेताओं को लगता है कि अगर सोनिया, राहुल या प्रियंका को चुनाव में झोंका और नहीं जीते तो उनका ब्रांड कमजोर होगा। वे समझ ही नहीं रहे हैं कि ब्रांड पहले ही बहुत कमजोर हो चुका है। अब ब्रांड की प्रतिष्ठा फिर से बहाल करने के लिए जरूरी है कि वे अपने को उसी तरह चुनाव में झोंके, जैसे मोदी अपने को झोंकते हैं। सोचें, जब मोदी को इस बात की परवाह नहीं रहती है कि चुनाव हार गए तो ब्रांड का क्या होगा तो राहुल और प्रियंका को क्यों इसकी चिंता करनी चाहिए? मोदी छोटे से छोटे राज्य में दिन-रात मेहनत करके प्रचार करते हैं। लेकिन राहुल और प्रियंका की चुनिंदा सभाएं होती हैं। क्या इसका एक कारण यह नहीं है कि ये दोनों नेता जिम्मेदारी लेने से बचना चाहते हैं?
उन्होंने प्रदेश के नेताओं को जिम्मेदारी दी है जबकि आगे बढ़ कर खुद जिम्मेदारी लेनी चाहिए। प्रचार को लीड करना चाहिए। इससे जहा गुटबाजी खत्म होती है और कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ता है। अगर आप विपक्ष में हैं तब तो सड़क पर उतर कर संघर्ष करना ही होता है। लेकिन आज की राजनीति में उलटा है। सत्ता में रहते हुए भी मोदी और शाह सड़क पर उतर कर संघर्ष करते हैं और पूरी जिम्मेदारी लेते हैं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर चुनाव नहीं हो रहा है, मोदी के चेहरे पर हो रहा है। राजस्थान में भी मोदी के चेहरे पर चुनाव हो रहा है तो छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में भी मोदी के चेहरे पर चुनाव हो रहा है। इसमें जोखिम है फिर भी मोदी ऐसी राजनीति कर रहे हैं। क्या ऐसा आत्मविश्वास राहुल, प्रियंका या खड़गे दिखा सकते हैं?
चाहे प्रचार और रैलियों का मामला हो या उम्मीदवारों का चयन करना हो या प्रचार की रणनीति बनानी हो सब पर मोदी की नजर रहती है। जिन राज्यों में चुनाव होने हैं वहां के प्रचार की बात छोड़ें तो उम्मीदवारों के चयन में भी दोनों पार्टियों का फर्क दिख रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पार्टी के स्तर से फीडबैक लेने के साथ साथ कई एजेंसियों से सर्वे करा कर एक-एक विधानसभा सीट की जानकारी जुटाई है। कहां कौन सा उम्मीदवार कमजोर है, किसकी संभावना बेहतर है, कहां क्या जातीय समीकरण है, यह सब तय किया हुआ है। तभी मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हारी हुई और कमजोर सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा महीनों पहले कर दी।
ध्यान रहे कर्नाटक में मोदी-शाह ने प्रदेश के नेताओं को खुली छूट दी थी, जिसका नुकसान वहां हुआ। इसलिए पांच राज्यों में सब कुछ अपने हाथ में ले लिया। कर्नाटक में विपक्ष ने नैरेटिव सेट किया था और उसके तय किए मुद्दों पर मोदी को चुनाव लड़ना पड़ा था। उससे सबक लेकर उन्होंने पांच राज्यों में पहले से नैरेटिव सेट करना शुरू कर दिया। अब वे किसी मसले पर जवाब नहीं दे रहे हैं, बल्कि विपक्षी पार्टियां उनके तय किए मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं। विपक्ष की ओर से न प्रचार में कोई इनोवेशन दिख रहा है और न मुद्दे तय करने में और न उम्मीदवार तय करने में। सब कुछ पारंपरिक तरीके से और पुराने ढर्रे पर हो रहा है।