अगले कुछ दिनों तक अनेक प्रादेशिक क्षत्रपों के प्रदेश में चुनाव होना है। अभी दिल्ली में चुनाव चल रहा है, जहां अरविंद केजरीवाल को अपना किला बचाना है। केजरीवाल के आगे बिहार के दो प्रादेशिक क्षत्रपों लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की परीक्षा है क्योंकि बिहार में विधानसभा का चुनाव है। बिहार चुनाव में भाजपा का जितना दांव पर लगा है उससे ज्यादा नीतीश और लालू का है और उतना ही चिराग पासवान का है। उसके बाद अगले साल यानी 2021 में तो कई बड़े प्रादेशिक क्षत्रपों के राज्य में चुनाव है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में एमके स्टालिन और पुड्डुचेरी में रंगास्वामी को अपनी लड़ाई लड़नी है। केरल का चुनाव भी अगले साल है, जहां लेफ्ट मोर्चे को अपना आखिरी किला बचाना है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा का उसका किला ढह चुका है और केरल में भी उसकी बुनियाद हिल रही है।
लगातार दो विधानसभा चुनाव वह जीत चुकी है। तभी अगले साल का चुनाव उसके लिए बड़ी मुश्किल वाला होने वाला है। इसके अलावा एक राज्य असम है, जहां दो बार से भाजपा जीत रही है। अगले डेढ़ साल में जिन सात राज्यों में चुनाव है उनमें भाजपा को सिर्फ असम की सत्ता बचानी है। पुड्डुचेरी में भाजपा से ज्यादा उसके सहयोगी एनआर रंगास्वामी और बिहार में नीतीश कुमार की राजनीति दांव पर है। इस तरह प्रादेशिक क्षत्रपों की राजनीति दांव पर लगी है।
दिल्ली के बाद बिहार का चुनाव होगा, जो माना जा रहा है कि नीतीश कुमार का आखिरी विधानसभा चुनाव होगा। उम्र और सेहत के हवाले इस बात की चर्चा है। हालांकि उन्होंने शरद पवार या एचडी देवगौड़ा की तरह ऐसी कोई घोषणा नहीं की है। उनकी पार्टी लगातार 20 साल से सत्ता में हैं और इस चुनाव से पहले उनकी सहयोगी भाजपा ने यह कह कर उनको झटका दिया है कि मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव के बाद होगा। अमित शाह ने महाराष्ट्र का फॉर्मूला भी याद दिलाया है कि वहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी हुई तो उसका मुख्यमंत्री बना।
तभी यह सवाल है कि चुनाव जीत कर भी नीतीश मुख्यमंत्री बन पाएंगे या नहीं? दूसरा सवाल यह है कि क्या नीतीश की तरह की अपना आखिरी चुनाव सक्रिय रूप से अपनी पार्टी को लड़ा रहे लालू प्रसाद यादव कुछ कर पाएंगे या नहीं? उनकी इच्छा है कि वे अपने बेटे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनता देखें। उधर चिराग पासवान की इच्छा है कि वे केंद्रीय मंत्री रहते हुए विधानसभा का चुनाव लड़ें और बिहार में मुख्यमंत्री नहीं तो उप मुख्यमंत्री बनें। सो, ये तीन प्रादेशिक क्षत्रप, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और चिराग पासवान कैसी राजनीति करते हैं और किस तरह से चुनाव लड़ते हैं यह देखने वाली बात होगी।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अगले साल की चुनावी तैयारी शुरू कर दी है। यह भी कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरह वे भी एक चुनाव जीतते ही दूसरे चुनाव की तैयारी में लग जाती हैं। ‘मा, माटी और मानुष’ उनके चुनाव की केंद्रीय थीम है। पहले दीदी बन कर और पिछली बार बेटी बन कर वे चुनाव लड़ी थीं। अभी वे 70 साल की हुई हैं तो किस रूप में चुनाव लड़ती हैं यह देखना होगा। हालांकि यह तय दिख रहा है कि पुराने से नए में नेतृत्व परिवर्तन का फैसला अभी नहीं होने वाला है। उन्होंने भतीजे अभिषेक बनर्जी को नंबर दो ही बना कर रखा है और उनके नंबर एक की दिशा में बढ़ने की हर कोशिश को पहले चरण पर ही रोक दिया जाता है।
ममता को पता है कि अभिषेक चाहे जितनी अच्छी रणनीति बनाते हों और जितना अच्छा चुनाव लड़ाते हों लेकिन उनके चेहरे पर चुनाव जीतना संभव नहीं है। हो सकता है कि अगला चुनाव जीतने के बाद वे अभिषेक को कमान सौंपे। दूसरी ओर भाजपा की चुनौती भी आसान नहीं होगी। हालांकि भाजपा का प्रादेशिक नेतृत्व बुरी तरह से फिसड्डी साबित हुआ है। उसका उठाया कोई भी मुद्दा ममता के लिए परेशानी का कारण नहीं है। लग रहा था कि संदेशखाली का मामला नंदीग्राम और सिंगूर की तरह हो जाएगा परंतु नहीं हुआ। आरजी कर अस्पताल में जूनियर डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना भी ममता के लिए तात्कालिक समस्या रही। भाजपा ऐसे बड़े मुद्दे भी स्थापित नहीं कर पाई और न उनके खिलाफ प्रतिरोध का आंदोलन निरंतर चला पाई। फिर भी चुनाव आते आते भाजपा माहौल बना देती है।
ऐसे ही तमिलनाडु में एमके स्टालिन की राजनीति पर नजर रखने की जरुरत है। उन्होंने अपने बेटे उदयनिधि स्टालिन को अपनी सरकार में मंत्री बना दिया है लेकिन अगले साल का चुनाव उनके चेहरे पर होगा। उदयनिधि ने सनातन धर्म पर टिप्पणी करके अपने दादा दिवंगत करुणानिधि की राजनीति की याद दिलाई है। स्टालिन ने तमिल अस्मिता की राजनीति को वैसे ही केंद्र में रखा है, जैसा ममता बनर्जी ने बांग्ला अस्मिता और भाषा को रखा है। चाहे नीट की परीक्षा का विरोध करना हो या वाइस चांसलर और शिक्षकों की बहाली के नियम बदलने के यूजीसी के फैसले का विरोध करना हो या केंद्र से जीएसटी में ज्यादा हिस्सा और अतिरिक्त फंड मांगने का मामला हो या परिसीमन का विरोध हो या जनसंख्या बढ़ाने का मामला हो या तमिल भाषा व संस्कृति का गौरव बहाल करने वाले फैसले हों वे अपने रास्ते से भटके नहीं हैं। कह सकते हैं कि देश में सबसे अच्छी राजनीति करने वाले क्षत्रपों में स्टालिन को शीर्ष पर स्थान मिलेगा। ममता ने सिर्फ चुनाव जीतने वाली राजनीति की है लेकिन स्टालिन ने चुनाव जीतने के साथ साथ तमिलनाडु के आर्थिक विकास को भी प्राथमिकता दी है।
अगले साल बहुत दिलचस्प लड़ाई केरल और असम में देखने को मिलेगी। केरल में भाजपा धीरे धीरे वोट प्रतिशत बढ़ा रही है। लेकिन इस बात की कोई संभावना नहीं है कि कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा उसके रोकने के लिए साथ आएंगे। केरल में आमतौर पर पांच साल में सत्ता बदलती है लेकिन 2021 में लेफ्ट मोर्चा लगातार दूसरी बार चुनाव जीत गया।
लोकसभा में बड़ी हार के बाद लेफ्ट की वापसी हैरान करने वाली थी। परंतु इस बार लेफ्ट में बिखराव है और इसलिए उसकी लड़ाई मुश्किल होने वाली है। अगर वह केरल में हारी तो भारत में लेफ्ट की चुनावी राजनीति स्थायी रूप से अंत की ओर बढ़ जाएगी। भाजपा को लेकर वहां दिलचस्पी सिर्फ इस बात पर होगी कि उसका खाता खुलता है या नहीं। हां, असम में भाजपा की राजनीति दिलचस्प होगा। भाजपा में धुमकेतू की तरह उभरे हिमंत बिस्वा सरमा पार्टी को लगातार तीसरी बार चुनाव जीता पाते हैं या नहीं? प्रभारी के तौर पर वे झारखंड में चुनाव लड़ाने गए थे, जहां भाजपा बुरी तरह से हारी है। उसके बाद वे अलग थलग हुए हैं। उनकी जीत हार से भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से भी अहम होगी।