राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, आरएसएस लगातार कहता रहा है कि उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है और वह राष्ट्र निर्माण के लिए काम करने वाला एक सांस्कृतिक संगठन है। परंतु ऐसा लग रहा है कि पिछले कुछ दिनों से रोजमर्रा की राजनीतिक घटनाओं में उसकी भागीदारी बढ़ गई है। नीतिगत मसलों पर बंद कमरे में विचार करने और चुपचाप उस पर अमल करने की बजाय संघ का विचार विमर्श रोजमर्रा की राजनीतिक घटनाओं पर ज्यादा हो रहा है। उत्तर प्रदेश से लेकर झारखंड और अब केरल में संघ की जो बैठकें हुई हैं उनके एजेंडे पर नजर डालें तो साफ दिखेगा कि हाल के दिनों में हुई राजनीतिक घटनाएं ही चर्चा के केंद्र में रहीं। यह स्थिति लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ज्यादा दिखने लगी है। तभी सवाल है कि क्या लोकसभा चुनाव नतीजों में भाजपा और नरेंद्र मोदी के कमजोर होने के बाद संघ की सक्रियता बढ़ी है और उसने राजनीतिक घटनाक्रम को अपने हिसाब से प्रभावित करने का फैसला किया है?
अभी केरल में संघ की अखिल भारतीय समन्वय बैठक हुई, जिसमें उसके करीब तीन दर्जन अनुषंगी संगठनों के नेता शामिल हुए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी पहले दिन पहुंचे और संघ प्रमुख मोहन भागवत से उनकी मुलाकात हुई। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक की तरह ही समन्वय बैठक को भी बहुत अहम माना जाता है। इसमें सभी अनुषंगी संगठनों में तालमेल बेहतर करने के बारे में बातचीत हुई। तीन दिन की बैठक के बाद संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने जो कहा वह देश के तमाम राजनीतिक घटनाक्रम पर संघ की प्रतिक्रिया की तरह था। उन्होंने नीतिगत मामलों या संघ के आगे के रोडमैप के बारे में नहीं बताया। यह भी नहीं बताया कि इस साल विजयादशमी से संघ की स्थापना का शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा तो उसके लिए क्या योजनाएं हैं।
उन्होंने बताया कि संघ ने कई विषयों पर चर्चा की, जिसमें जाति जनगणना का एक मुद्दा है। पहले माना जा रहा था कि संघ को जाति जनगणना से आपत्ति है क्योंकि इससे सामाजिक विभाजन बढ़ेगा। लेकिन संघ ने केरल की बैठक के बाद कहा कि सामाजिक कल्याण के लिए यह जरूरी है और सरकार सिर्फ आंकड़े जुटाने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकती है। हालांकि संघ ने साथ में यह भी कहा कि इसके आंकड़ों का राजनीतिक टूल के तौर पर इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। सोचें, संघ का यह कैसा भोलापन है? जाति गिनती का पूरा मामला ही राजनीति के लिए उठाया गया है और एक तरह की इसकी अनुमति देने के बाद संघ कह रहा है कि इसका राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होना चाहिए!
संघ की समन्वय बैठक में कोलकाता की बलात्कार और हत्या की घटना पर भी चर्चा हुई। सोचें, संघ की बैठकों में कब कानून व्यवस्था या आपराधिक घटनाओं या राज्यों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होने लगी? बलात्कार और हत्या की जघन्य घटना के बाद से कोलकाता में आंदोलन हो रहे हैं और लंबे समय तक देश में भी आंदोलन हुए। इसे लेकर ममता बनर्जी की सरकार ने एक सख्त कानून बना कर विरोधियों को चुप कराने का प्रयास किया है। मामले की जांच सीबीआई कर रही है और अब ईडी का भी दखल हो गया है। ऐसे में संघ की इसमें क्या भूमिका है? संघ अगर इस बहाने पूरे देश में एक बेहतर समाज रचने या पुरुषों को स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनाने का अभियान चलाए तो बात समझ में आती। अन्यथा उसे अपनी समन्वय बैठक में इस पर विचार मंथन करने की क्या जरुरत आन पड़ी? जहां तक राजनीति विरोध की बात है तो वह काम भाजपा के नेता बंगाल में बखूबी कर रहे हैं।
इसी तरह बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्त पलट के बाद हिंदुओं की स्थिति को लेकर भी संघ की बैठक में चर्चा हुई। इस मामले में भी संघ की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होने वाली है। यह केंद्र सरकार और कूटनीति का मामला है। फिर भी अगर संघ ने हिंदुओं की स्थिति पर विचार किया तो बताया क्यों नहीं क्या विचार हुआ है? जैसे जाति जनगणना की मंजूरी का संकेत दिया गया वैसे ही क्या संघ ने बांग्लादेश में दखल देने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव डालने का कोई फैसला किया या विचार किया तो उसकी जानकारी दी जानी चाहिए।
बहरहाल, यह सिर्फ केरल के पलक्कड में हुई बैठक का मामला नहीं है, बल्कि हर जगह ऐसा ही देखने को मिल रहा है। संघ के विचारक इस बात में उलझे हैं कि महाराष्ट्र में अजित पवार की एनसीपी के साथ भाजपा का तालमेल क्यों है और क्यों नहीं उसे खत्म कर देना चाहिए? सोचें, संघ के विचारक लेख लिख कर इसका दबाव बना रहे हैं। सो, बड़े नीतिगत मसलों और हिंदू व भारत राष्ट्र के व्यापक विषयों पर विचार करने और देश को दिशा देने के कामों की बजाय संघ अब रोजमर्रा की राजनीतिक घटनाओं पर राय देने में लगा है।