नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने 10 साल पहले जब सरकार और पार्टी की कमान संभाली थी तब उन्होंने भाजपा के पुराने और जमे जमाए नेताओं को हटा कर निराकार चेहरों को गद्दी पर बैठाना शुरू किया था। योग्यता और क्षमता की बजाय सिर्फ स्वामीभक्ति की कसौटी पर नेताओं को चुन कर मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री बनाने का सिलसिला शुरू हुआ। स्वामीभक्ति की कसौटी वाले सिद्धांत को पूरी तरह से आकार लेने में कई बरस लगे। लेकिन पिछले दिनों यह प्रक्रिया लगभग पूरी हो गई। एकाध राज्यों को छोड़ कर हर जगह निराकार चेहरे बैठा दिए गए। अब इन चेहरों की परीक्षा का समय आ गया है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जिन लोगों को मुख्यमंत्री बना कर प्रयोग किया था उनमें से एकाध अपवाद छोड़ कर लगभग सभी लोग फेल रहे। रघुवर दास के नेतृत्व में भाजपा 2019 में झारखंड हार गई। देवेंद्र फड़नवीस की कमान में भाजपा का गठबंधन जीता लेकिन सरकार नहीं बन सकी। पहले ढाई साल कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से शिव सेना के उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री रहे और फिर शिव सेना से अलग हुए एकनाथ शिंदे को मजबूरी में भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया। हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर का प्रयोग बुरी तरह से विफल रहा। उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत फिर तीरथ सिंह रावत और अंत में पुष्कर सिंह धामी का प्रयोग हुआ, तब जाकर कामयाबी मिली। लेकिन कर्नाटक में बसवराज बोम्मई का प्रयोग भी फेल हो गया। आगे के चुनावों में भजनलाल शर्मा, मोहन यादव, विष्णुदेव साय, मोहन चरण मांझी आदि चेहरों की परीक्षा होगी।
बहरहाल, ऐसे ही प्रयोग के क्रम में प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर को 2014 में मुख्यमंत्री बनाया था। हालांकि 2019 के चुनाव में भाजपा ने बहुमत गंवा दिया और उसे दुष्यंत चौटाला की पार्टी से तालमेल करके सरकार बनानी पड़ी। फिर भी खट्टर सीएम बने रहे। लगातार साढ़े नौ साल पद पर रहने के बाद वे हटाए गए तो केंद्र में भारी भरकम मंत्रालय के साथ मंत्री बने। लेकिन भाजपा ने लोकसभा चुनाव में राज्य की 10 में से पांच सीटें गंवा दी। अब विधानसभा चुनाव में खट्टर कुर्सी पर नहीं हैं कि लेकिन निराकार चेहरों को आगे करके रणनीति के तहत नायब सिंह सैनी सीएम बनाए गए हैं। इन दोनों चेहरों की परीक्षा हरियाणा में होनी है। भाजपा के पुराने नेतृत्व को खत्म करके या किनारे करके मोदी और शाह ने जो नया नेतृत्व आगे किया है उनकी परीक्षा हो रही है। इस परीक्षा के नतीजे का भाजपा की आगे की राजनीति पर बड़ा असर होगा।
जम्मू कश्मीर में भाजपा की राजनीति अब नए चेहरों से हो रही है। कविंद्र गुप्ता या निर्मल सिंह हाशिए में हैं। जितेंद्र सिंह और उनके भाई देवेंद्र सिंह सबसे बड़े नेता हैं। ध्यान रहे देवेंद्र सिंह कुछ समय पहले तक नेशनल कॉन्फ्रेंस में थे और उसके नेता उमर अब्दुल्ला के सलाहकार थे। अब रविंद्र रैना पार्टी के अध्यक्ष हैं। या तो इन दो तीन नेताओं के चेहरे हैं या मोदी और शाह का प्रचार है। कोई जमीनी संगठन या संघ के साथ जमीनी तालमेल करके लड़ने का माहौल नहीं दिखा है। दो चरण के चुनाव हो चुके हैं और तीसरे चरण में जम्मू की ज्यादातर सीटों पर चुनाव होगा, जहां भाजपा पारंपरिक रूप से मजबूत रही है। लेकिन वहां भी स्थिति बहुत अनुकूल नहीं दिख रही है। रियासी सीट से अलग करके नई बनाई गई माता वैष्णो देवी सीट पर भी भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं बताई जा रही है।
इन दो राज्यों के बाद महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा के चुनाव होंगे और वहां भी स्वामीभक्ति की कसौटी पर आगे किए गए नेताओं की कमान में भाजपा को चुनाव लड़ना है। हालांकि उसमें भी देवेंद्र फड़नवीस को पांच साल तक मुख्यमंत्री रखने के बाद लगातार उनका कम कद कम करने का प्रयास हुआ। तभी वे राज्य की राजनीति से भागने की फिराक में थे। सोचें, वहां भाजपा शिव सेना के एकनाथ शिंदे और एनसीपी के अजित पवार के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। झारखंड में पिछले विधानसभा चुनाव के बाद बाबूलाल मरांडी की पार्टी में वापसी कराई गई थी। लेकिन उनकी कोई ब्रांडिंग भाजपा ने नहीं की है। इसलिए नाम उनका है लेकिन असली काम केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा कर रहे हैं।