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महाकुंभ के महाइवेंट से पाया क्या?

Mahakumbh 2025Image Source: ANI

Mahakumbh 2025: सभी धर्मों के सालाना उत्सव होते हैं। कुछ का अंतराल ज्यादा होता है। मुस्लिम समाज के लोग हर साल हज के लिए जाते हैं तो उर्स के लिए भी निकलते हैं।

सिख संगत होती है। हर साल गुरुओं का प्रकाश पर्व भी मनता है। मगर कभी ऐसा सुनने या देखने को नहीं मिला कि सउदी अरब की सरकार दुनिया भर के अखबारों में विज्ञापन छपवाती हो कि इस साल हज के लिए उसने क्या क्या तैयारियां की हैं, कितने शिविर लगवाए हैं, कितने सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए हैं, कितनी विशेष उड़ानों की व्यवस्था है या कितनी चकाचौंध होगी और इस आधार पर आओ, हज आने का न्योता है।

ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर होने वाले सालाना उर्स का भी कोई विज्ञापन कभी दिखाई नहीं दिया। इन जगहों पर भी लाखों, करोड़ों की संख्या में लोग पहुंचते हैं लेकिन सब अपनी आस्था से बंधे होते हैं किसी मार्केटिंग की वजह से खींचे नहीं जाते हैं।

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लेकिन प्रयागराज में महाकुंभ का समय आया तो क्या देखने को मिला? तीन महीने से हर दिन दिल्ली और देश भर के अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन छपे।

प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री की तस्वीरों वाले विज्ञापनों में ढिंढोरा था कि इस बार का आयोजन तो न भूतो न भविष्यति वाला है।(Mahakumbh 2025)

महाकुंभ के कई महीनों पहले से बताया जाने लगा था कि इस बार करीब 45 दिन के आयोजन में 45 करोड़ लोग पहुंचेंगे। देश भर के लोगों से महाकुंभ आने और आस्था की डुबकी लगाने की अपील थी।

ऐसा लग रहा था कि राज्य सरकार का एकमात्र लक्ष्य किसी तरह से देश भर के लोगों को महाकुंभ में खींच कर लाना है और संख्या 45 या 50 करोड़ पहुंचानी है।

चूंकि जब विज्ञापन दिए जा रहे थे तो मीडिया समूहों की जिम्मेदारी भी थी कि वे इसकी बड़ी बड़ी खबरें छापें। ऐसा बड़े इवेंट्स में होता है। आयोजक खूब प्रचार करते हैं ताकि बड़ी संख्या में लोग आएं।

144 साल के संयोग वाली कहानी

इसके बाद आई 144 साल के संयोग वाली कहानी। कहा गया कि 144 साल में पहली बार ग्रहों का अद्भुत संयोग बन रहा है इसलिए इस बार कुंभ नहीं महाकुंभ है और इसलिए हर हिंदू को डुबकी लगाने प्रयागराज पहुंचना चाहिए।

हालांकि बाद में ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा कि वे जब से कुंभ में जा रहे हैं तब से 144 साल वाली बात सुन रहे हैं।Mahakumbh 2025)

उन्होंने याद दिलाया कि 2013 में भी कहा गया था कि 144 साल बाद ग्रहों का अद्भुत संयोग बन रहा है। कहा गया कि इलाहाबाद का नाम प्रयागराज होने के बाद पहला कुंभ है।

यह भी कहा गया कि इस बार सरकार ने ऐसी व्यवस्था की है कि किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। यह सब बिना सोचे समझे किया गया। कहा जा रहा है कि कितने शोध के बाद मेला में भीड़ प्रबंधन के इंतजाम किए गए हैं।

प्रशासनिक तैयारी का सवाल(Mahakumbh 2025)

लेकिन भीड़ प्रबंधन का सामान्य विज्ञान कहता है कि प्रति वर्ग मीटर अगर पांच लोग इकट्ठा हैं तो उनके घायल होने की संभावना है और अगर प्रति वर्ग मीटर सात लोग इकट्ठा हैं तो उनमें से कुछ के मरने की आशंका होती है।

सोचें, अगर मौनी अमावस्या को 10 करोड़ लोग इकट्ठा होने हैं तो उनकी सुरक्षा तभी हो सकती है, जब दो करोड़ वर्ग मीटर जगह उपलब्ध हो।

अगर इसे 10 घंटे में बांटे तब भी प्रति घंटे 20 लाख वर्ग मीटर जगह की जरुरत होगी। क्या किसी शोध में सरकार को इस सामान्य विज्ञान का पता नहीं चला?

अगर पता होता तो वे सोच लेते कि उनके पास कितनी जगह है और वे कितने लोगों की भीड़ का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं?

सोशल मीडिया की क्रांति के बाद पहला महाकुंभ

बहरहाल, सरकार के इस प्रचार के बीच सोशल मीडिया का व्यापक असर देखने को मिला। सोशल मीडिया की क्रांति के बाद यह पहला महाकुंभ था।

हर व्यक्ति कुंभ से पहले रील बना रहा था। सारे इन्फलूएंसर्स की मंजिल महाकुंभ थी। सोशल मीडिया के रीलबाजों ने ‘फीयर ऑफ मिसिंग आउट’ यानी फोमो सिंड्रोम को हर उस व्यक्ति के दिल दिमाग में बैठा दिया है, जो सोशल मीडिया देखता है।

हर व्यक्ति को लगता है कि ऐसे अद्भुत आयोजन में अगर नहीं गए तो लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे।(Mahakumbh 2025)

यह बात किसी रॉक कन्सर्ट के बारे में भी है, किसी रेस्तरां के बारे में भी है, किसी फिल्म और सीरीज के बारे में भी है और महाकुंभ के बारे में है। हर व्यक्ति को वहां पहुंचना है, जहां बाकी लोग पहुंच कर रील बना रहे हैं।

आस्था का महाइवेंट(Mahakumbh 2025)

सो, अब सवाल है कि आस्था के इस महान आयोजन को महाइवेंट में बदल देने का क्या मकसद था और इससे क्या हासिल हुआ?

पिछले महाकुंभ में यानी 2013 में जब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार थी तब 24 करोड़ लोगों के डुबकी लगाने का आंकड़ा आया था।

उस आंकड़े के आधार पर भी महाकुंभ दुनिया के किसी भी दूसरे आयोजन से बड़ा आयोजन था। सो, अब अगर वह संख्या 45 करोड़ हो जाएगी तो उससे क्या हासिल हो जाएगा?

सिवाए राजनीति चमकाने या राजनीतिक स्कोर सेटल करने के अलावा इसका दूसरा क्या मकसद हो सकता है? क्या यह दिखाना मकसद है कि जितने हिंदू महाकुंभ में आ रहे हैं वे सब योगी और भाजपा के भक्त हैं?

जिस तरह से विपक्षी पार्टियों ने संख्या को लेकर प्रतिक्रिया की उससे भी लगा कि विपक्ष भी मान रहा है, जितनी ज्यादा संख्या बताई जाएगी, भाजपा को उतना फायदा होगा।

इसलिए वे अपनी ओर से कहने लगे कि नहीं, इतने लोग डुबकी नहीं लगा रहे हैं।(Mahakumbh 2025)

45 करोड़ वोटों के मालिक

क्या दो साल बाद होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले जीत सुनिश्चित करने के मकसद से इतना प्रचार और इतनी संख्या जुटाने का उपक्रम किया गया?

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में देश भर में भाजपा को 2014 में 17 करोड़, 2019 में 22 करोड़ से ज्यादा और 2024 में करीब 24 करोड़ वोट मिले।

तो क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री यह दिखाना चाहते थे कि वे 45 करोड़ वोटों के मालिक हैं?(Mahakumbh 2025)

बहरहाल, इससे पता नहीं राजनीतिक मकसद कितना सधा लेकिन मौनी अमावस्या के मसले पर हुई भगदड़, उसे ढकने, छिपाने की कोशिशों और उसके बाद के घटनाक्रम ने समूचे आयोजन को कलंकित किया। महीनों, बरसों की तैयारियों की पोल चंद घंटों में ही खुल गई।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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