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विपक्षी गठबंधन आगे कैसा?

opposition allianceImage Source: ANI

opposition alliance: अगर संसद के शीतकालीन सत्र में पहले तीन हफ्ते की कार्यवाही की रोशनी में विपक्षी राजनीति को देखें तो यह सवाल उठता है कि अगर राहुल गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे नेता नहीं होते हैं और ममता बनर्जी को कमान मिलती है तो विपक्षी राजनीति का स्वरूप कैसा होगा?

क्या ममता बनर्जी विपक्षी गठबंधन को एक रखते हुए उसे भाजपा के खिलाफ ज्यादा प्रभावी तरीके से लड़ने के लिए तैयार कर पाएंगी?

यह बड़ा सवाल है क्योंकि एक तो ममता बनर्जी ने कहा है कि वे पश्चिम बंगाल नहीं छोड़ेंगी और वहीं रह कर विपक्षी गठबंधन का संचालन करेंगी।

कोलकाता से कैसे राष्ट्रीय गठबंधन का संचालन होगा, यह समझना मुश्किल है। ऐसा लग रहा है कि वे डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले की पोजिशनिंग कर रही हैं।

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वे अपने को राष्ट्रीय नेता और कोलकाता को शक्ति पीठ दिखाना चाहती हैं ताकि बांग्ला मानुष में गर्व की भावना भर सकें और अगला चुनाव जीत सकें।

यही राजनीति पिछले साल तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव ने की था। उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदल कर भारत राष्ट्र समिति किया था और अपने को राष्ट्रीय नेता बताना शुरू किया था लेकिन वे चुनाव में पीट गए थे।

अब ममता बनर्जी वही राजनीति कर रही है। उनका मकसद किसी तरह से 2026 का विधानसभा चुनाव जीतना है। उनको पता है कि अगला चुनाव बहुत मुश्किल होगा।

लगातार 15 साल के राज की एंटी इन्कम्बैंसी को किसी बड़े गेमप्लान से ही काउंटर किया जा सकता है।

दूसरी बात यह है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस एक राज्य की पार्टी है। उन्होंने अनेक राज्यों में पैर फैलाने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली।

इसलिए बाकी प्रादेशिक पार्टियों के लिए भी उनका नेतृत्व स्वीकार करना मुश्किल होगा। कहने को सभी पार्टियां तैयार हो जाएंगी कि वे विपक्षी गठबंधन की नेता बनें लेकिन वे कोई सामूहिक फैसला सभी पार्टियों से लागू करवा पाएंगी इसमें संदेह है। तीसरी बात यह है कि ममता बनर्जी की प्रकृति अकेले चलने की है।

एकला चलो की राजनीति(opposition alliance)

वे हमेशा एकला चलो की राजनीति करती हैं और उनकी राजनीति बंगाल केंद्रित होती है। तभी वे चाहे जिस गठबंधन में रहें वहां उनका टकराव चलता रहता है।

वे जब कांग्रेस में थीं तो कांग्रेस के सभी नेताओं से उनका झगड़ा चलता था। फिर जब अपनी पार्टी बनाई और भाजपा से तालमेल किया तो भाजपा से उनकी लड़ाई चलती रही और जब कांग्रेस के गठबंधन में आईं तो वहां भी लड़ाई चलती रहीं।

उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर अपनी पार्टी बनाई, फिर भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस से गठबंधन किया और फिर कांग्रेस को छोड़ कर अकेले लड़ीं। अब फिर वे गठबंधन की नेता बनना चाहती हैं लेकीन उनकी एकला चलो वाली प्रकृति बाधा बनेगी।

कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी

भारत के अब तक के राजनीतिक इतिहास को देखें तो किसी प्रादेशिक पार्टी के राष्ट्रीय गठबंधन का नेतृत्व करने की मिसाल नहीं मिलेगी।

कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी बनी तो सभी विपक्षी पार्टियों के विलय से बनी थी। हमेशा सबसे बड़ी पार्टी नेतृत्व करती रही है।(opposition alliance)

एनडीए में भी भले टीडीपी या जनता दल यू के नेता संयोजक होते थे लेकिन नेतृत्व भाजपा के हाथ में ही होता था। संयोजक का पद प्रतीकात्मक होता था।

फैसला अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ही करते थे। सरकारों की बात करें तो उस मामले में भी सबसे बड़ी पार्टी के हाथ में सत्ता होने से ही स्थिरता रहती है।

चाहे वीपी सिंह की सरकार हो या चंद्रशेखर की या एचडी देवगौड़ा की सरकार हो या आईके गुजराल की हर बार सबसे बड़ी पार्टी के नेता के हाथ में कमान नहीं थी।

वाजपेयी की 1998 की सरकार के अपवाद को छोड़ दें तो उसके बाद 1999, 2004 और 2009 में सबसे बड़ी पार्टी ने कमान संभाली और सरकारों ने कार्यकाल पूरा किया।

ममता बनर्जी के समर्थन में

बहरहाल, ममता बनर्जी के समर्थन में यह तर्क दिया जा रहा है कि वे भाजपा से लड़ती हैं और सीधी लड़ाई में उसको हरा देती हैं।

लेकिन एक प्रदेश में सीधी लड़ाई में भाजपा को हरा देना अगर कोई पैमाना है तो कई नेता दावेदार हो जाएंगे। झारखंड में हेमंत सोरेन ने भी लगातार दो मुकाबले में भाजपा को हराया है और गठबंधन का भी नेतृत्व किया है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भी लगातार भाजपा को हरा रहे हैं।

देश ही नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक आयाम वाला गठबंधन बनाने के लिए सिर्फ यह मानक नहीं तय किया जा सकता है कि जो नेता एक राज्य में भाजपा को हराए उसे राष्ट्रीय नेता बना दिया जाए।

उसकी राजनीतिक विचारधारा, भाजपा से सैद्धांतिक लड़ाई लड़ने की उसकी क्षमता, उसका राजनीतिक इतिहास, संगठन की ताकत, अखिल भारतीय स्तर पर पार्टी का फुटप्रिंट, नेता की प्रतिबद्ता और दबाव में नहीं आने की क्षमता जैसी कई चीजें देखी जाती हैं।

ममता बनर्जी की सीमाएं हैं और वे दबाव में भी हैं। ऐसे ही हर प्रादेशिक पार्टी की सीमाएं होती हैं और वे केंद्र की सत्ता के दबाव में बहुत आसानी से आ जाते हैं।

तभी चाहे मंशा कितनी भी सही हो लेकिन राष्ट्रीय गठबंधन का नेतृत्व किसी प्रादेशिक पार्टी को सौंपना कभी भी बहुत फलदायक नहीं होता है। इसलिए किसी प्रादेशिक पार्टी को नेतृत्व सौंपने से ‘इंडिया’ का भाजपा से मजबूती से लड़ने वाला स्वरूप नहीं बन पाएगा।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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